4.12 जड या चेतन? ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.12 जड या चेतन?

जड संसार जड परमाणुओंके एकत्रित होने या जड विद्युत्कणोंके संघर्ष अथवा प्रकृतिके हलचलमात्रका परिणाम नहीं है; किंतु अखण्ड सत्ता अखण्ड बोध परमानन्दस्वरूप परमात्माकी अघटितघटनापटीयसी मायाशक्तिका परिणाम है। जैसे कल-कारखाने, रेल, तार, रेडियो, वायुयान, परमाणुबम, हाइड्रोजन बम आदि उत्पादक, पालक, संहारक अनेक यन्त्रोंका निर्माण जड-प्रकृति आदिसे सम्पन्न नहीं होता, किंतु उनके लिये कोई बुद्धिसम्पन्न परिष्कृत मस्तिष्कवाला वैज्ञानिक उनका निर्माता अपेक्षित होता है। वैज्ञानिकोंके परिष्कृत मस्तिष्क, बुद्धि एवं शरीर आदिका निर्माता, विविध पशुओं, पक्षियों, फलोंका निर्माता सर्वेश्वर अपेक्षित है। मोहनजोदड़ो और हड़प्पाकी खुदाइयोंमें मिलनेवाली रंग-बिरंगी और विचित्र वस्तुओंके आधारपर यदि कोई विशिष्ट बुद्धिमान् चेतन कर्ता अपेक्षित होता है तो कोई कारण नहीं कि उपर्युक्त रंग-बिरंगे विचित्र फूलों-फलों, विचित्र साड़ी पहननेवाली तितलियों, पक्षियों, पशुओं तथा विचित्र बुद्धिपूर्ण मनुष्यका निर्माता कोई चेतन ईश्वर न हो। चन्द्र-सूर्य-सागर-पर्वतादि वस्तुएँ सावयव होनेसे कार्य हैं। कार्य होनेसे उनका सकर्तृक होना आवश्यक है। किसी भी कार्यको सकर्तृक, साधार एवं सोपादान होना अनिवार्य ही है। इस दृष्टिसे प्रपंचोत्पादिनी शक्तिसम्पन्न चेतनसे विश्वकी उत्पत्ति होना उचित है। पार्थिव प्रपंचका कारण पृथ्वी, पृथ्वीका कारण जल, उसका कारण तेज, उसका कारण वायु, वायुका आकाश, आकाशका अहंतत्त्व, अहंतत्त्वका महत्तत्त्व, महत्तत्त्वका अव्यक्ततत्त्व और उसका कारण स्वप्रकाश सत्तत्त्व है। जैसे वह्निमें दाहिका शक्ति एवं मृत्तिकामें घटोत्पादिनी शक्ति होती है, वैसे ही सत्में प्रपंचोत्पादिनी शक्ति होती है। जैसे व्यष्टिगत व्यवहारमें निद्रायुक्त चेतनसे निद्रा भंग होनेपर कुछ बोध उत्पन्न होता है, तत्पश्चात् अहंका उल्लेख होता है, अनन्तर वायु, आकाश आदिका उपलम्भ होता है। आकाश होनेपर हलचल, हलचलसे उष्मा, उष्मासे स्वेद, स्वेदसे घनीभूत स्वेद अर्थात् पार्थिव मल उत्पन्न होता है। ठीक यही स्थिति समष्टि जगत‍्की उत्पत्तिकी है। कारण सूक्ष्म तथा व्यापक एवं निर्विशेष होता है। कार्य उसकी अपेक्षा स्थूल, सविशेष एवं व्याप्य होते हैं। पृथ्वीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—ये पाँच गुण हैं। जलमें गन्धविहीन पूर्वोक्त चार गुण हैं। तेजमें शब्द, स्पर्श, रूप तीन गुण; वायुमें शब्द, स्पर्श दो गुण तथा आकाशमें केवल एक शब्द ही गुण है। उत्तरोत्तर व्यापकता भी इनमें प्रसिद्ध है। आधाराधेयकी दृष्टिसे भी व्यापक, सूक्ष्म एवं निर्विशेष आधार है। स्थूल, व्याप्य आधेय हैं। सर्वाधार, सर्वकारण, स्वप्रकाश सत् निराधार एवं अकारण है। ‘मूले मूलाभावादमूलं मूलं’ अन्तिम मूल समूल माननेसे अनवस्था प्रसंग होगा। अत: उसे अमूल मानना आवश्यक है।
यद्यपि भौतिकवादी भूतको ही मूल मानता है। फिर भी किसी भी कार्यमें प्रकाश, हलचल, अवष्टम्भ (रुकावट) अपेक्षित है। परमाणु, विद्युत्कण या भूतसे बिना उपर्युक्त तीनों गुणोंके काम नहीं चल सकता। प्रकाश बिना हलचल नहीं, हलचल बिना कार्य नहीं। साथ ही उचित रुकावट (अवष्टम्भ) बिना भी कार्य नहीं सम्पन्न हो सकता। कोई बढ़ई आलमारी तभी बना सकता है, जब उसे पहले उसका बोध हो, पुन: वह बसूला लेकर क्रिया प्रारम्भ करे। निरन्तर बसूला चलता ही जाय तो काष्ठ ही समाप्त हो जायगा, कोई कार्य सम्पन्न नहीं होगा। अत: यथायोग्य क्रिया और रुकावट भी होनी चाहिये। बस, ये ही तीन चीजें सत्त्व, रज और तम हैं। सत्त्व प्रकाशात्मक, रज क्रियात्मक तथा तम अवष्टम्भात्मक है। सांख्य और कई उसके अनुयायियोंने इन तीनों गुणोंकी समष्टि प्रकृतिको ही मूल मान लिया है; परंतु प्रकृति या गुणोंका भी अस्तित्व एवं स्फुरण अपेक्षित है। उसके बिना सब असत् एवं स्फूर्तिविहीन हो जाते हैं। अत: सत्स्फुरण अर्थात् अबाधित स्फुरण या स्वप्रकाश सत‍्के भीतर सबका अन्तर्भाव हो जाता है। सत‍्का अन्तर्भाव अन्यत्र नहीं हो सकता, अत: स्वप्रकाश सत् ही मूल कारण है। वही अबाधित बोधस्वरूप है। वही सब विश्वका मूल है। एक वृक्ष, एक सरोवर, एक अंगुल भूमितक बिना स्वामीके नहीं है तो कैसे माना जाय कि चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, नक्षत्रमण्डल, गगन, भूधर, पर्वत, सागर, भूमि, अरण्य बिना स्वामीके होंगे। इस तरह सर्वकारण सर्वाधार सर्वकर्ता सर्वस्वामी सर्वशासक परमेश्वर सिद्ध होता है। उसीका सनातन अंश क्षेत्रज्ञ आत्मा सिद्ध होता है। देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धिका द्रष्टा साक्षी आत्मा देहादिसे भिन्न है। जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों बुद्धिकी अवस्थाओंका वही साक्षी है। जैसे महाकाशका अंश घटाकाश होता है, वैसे ही अनन्तबोध अखण्ड सत्स्वरूप परमात्माका ही अंश जीवात्मा है। वह भूतोंका परिणाम नहीं है। अतएव चेतनविहीन देहादि जडमात्र रह जाते हैं।
भले ही देह, दिल-दिमाग या मस्तिष्क एवं बुद्धिके बिना स्वतन्त्र चेतनाका उपलम्भ नहीं होता, फिर भी चेतना देह या दिल-दिमाग आदिका धर्म नहीं है। जैसे तेज या अग्निका दाहकत्व, प्रकाशकत्व, लोहालक्‍कड़ तार आदि पार्थिव आप्य पदार्थोंके ही सम्बन्धसे व्यक्त होता है तो भी पार्थिव आप्य पदार्थोंका धर्म दाहकत्व, प्रकाशकत्व नहीं माना जाता, इसी तरह दिल-दिमाग आदिके सम्बन्धसे आत्माका चैतन्य अभिव्यक्त होता है, परंतु चैतन्य उनका धर्म नहीं है। व्यक्तिके सम्बन्धसे ही जातिकी अभिव्यक्ति होती है। फिर भी जाति स्वतन्त्र वस्तु मान्य है। जालान्तर्गत सूर्यरश्मियोंके सम्पर्कसे त्रसरेणु आदि प्रतीत होते हैं, फिर भी उनका स्वतन्त्र अस्तित्व है। उसी तरह जिस बोधके द्वारा सब प्रमाण-प्रमेय आदिकी प्रतीति होती है, उस बोधका स्वतन्त्र अस्तित्व है। इतना ही क्यों? उसकी ही सत्तासे अन्य पदार्थ सत्तावान् होते हैं। उसीकी स्फूर्तिसे इतर पदार्थोंमें स्फूर्ति होती है। जैसे दर्पणभानके अनन्तर ही दर्पणस्थ प्रतिबिम्बकी प्रतीति होती है, इसी तरह अथवा आलोककी प्रतीतिके अनन्तर ही रूपकी प्रतीति होती है, उसी तरह प्रमेय, प्रमाण तथा प्रमाता तीनोंकी प्रतीतिसे पहले ही सर्वभासक भानकी प्रतीति होती है। प्रकाश-सम्पर्क होनेसे अथवा प्रकाशस्वरूप होनेसे वस्तु प्रकाश होता है। प्रमाण बिना प्रमेयसिद्धि नहीं होती। प्रमाण भी प्रमाताके पराधीन होता है। प्रमाता स्वभिन्न प्रमेयकी प्रमितिके लिये प्रमाण ढूँढ़ता है। अपनी प्रमितिके लिये प्रमाणकी आवश्यकता नहीं समझता। यदि प्रमाता भी प्रमाणसिद्ध माना जाय, तब तो वह प्रमेयकोटिमें आ जायगा। फिर उसका प्रमाता कोई अन्य आवश्यक होगा, उसका भी अन्य फिर उसका भी अन्य प्रमाता आवश्यक होगा। इस तरह अनवस्था-प्रसक्ति होगी। एक ही प्रमाता स्वयं प्रमाता और स्वयं प्रमेय नहीं हो सकता; क्योंकि एकमें कर्मकर्तृभाव नहीं बन सकता। किसी भी वस्तुका प्रागभाव या प्रध्वंसाभाव सिद्ध करनेके लिये प्रमाता प्रमाण या साक्षी अपेक्षित है। साक्षीविहीन भाव या अभाव कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता। सुषुप्तिमें प्रमाता प्रमाणका भी अनुपलम्भ सिद्ध है, परंतु सर्वभासक बोध या संवित‍्का प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव या अत्यन्ताभाव कुछ भी नहीं सिद्ध होता। बोधाभावका बोध नहीं तो बोधाभाव सिद्ध नहीं हो सकता। बोधाभावका बोध है तो बोधाभाव भी कैसे कहा जा सकता है? इस तरह यह अतीत अनागत अहोरात्र, पक्ष, मास, वर्ष, युग, कल्प, सब देशकालका भासक है, स्वयं अनाद्यनन्त है। बीजसे पहले अंकुर, अंकुरसे पहले बीज होता है। जागरणसे पहले सुषुप्ति (निद्रा) एवं उससे पहले जागरण होता है। प्राणी जागनेके बाद सोता है और सोनेके बाद जागता है। इसी प्रकार जन्म-मरण, सृष्टि-संहार तथा जन्मों और कर्मोंकी परम्परा अनादि है। संसारमें देखा ही जाता है कि कारणमें विलक्षणता हुए बिना कार्यमें विलक्षणता नहीं होती। रेल, तार, रेडियो आदि विलक्षण कार्योंके लिये विलक्षण हेतु अपेक्षित होते ही हैं। इसी तरह देव, मनुष्य, पशु आदि उच्चावच योनियोंमें जन्म बिना धर्माधर्मरूपी कर्मोंकी विलक्षणता सम्भव नहीं है। लोकमें भी भले कर्मोंका भला फल और बुरे कर्मोंका बुरा फल होता है। ठीक इसी तरह धर्म-अधर्मके वैचित्र्यसे ही जन्मोंसे वैचित्र्य होता है।
कोई भी शासक शासनके लिये शासन-विधान आवश्यक समझता है। सुतरां सनातन परमेश्वर भी सनातन जीवोंपर शासन करनेके लिये सनातन विधान आवश्यक समझते हैं। सनातन जीवात्माओंको सनातन परमपद प्राप्त करानेके लिये सनातन परमात्माने अपने सनातन नि:श्वासभूत सनातन वेदादि शास्त्रोंद्वारा जिन सनातन नियमोंको निर्धारित कर रखा है, वे ही सनातनधर्म या सनातन नियम संसारके कल्याणकारी हैं। यह अनुभवसिद्ध बात है कि संसारमें छोटे-बड़े किसी कार्यके करनेके पहले प्राणीको उसका संकल्प या ज्ञान होता है। इस तरह ज्ञानपूर्वक ही प्रत्येक कार्य होते हैं। साथ ही हरेक ज्ञान या संकल्पमें शब्दोंका अनुवेध अवश्य रहता है। ऐसा कोई भी प्रत्यय (बोध) नहीं होता, जिसमें सूक्ष्मरूपसे शब्दका अनुगम न हो—
‘न सोऽस्ति प्रत्ययो लोके य: शब्दानुगमादृते।’
(वाक्यपदीय)
यद्यपि चार्वाक एवं उसके अनुयायी मार्क्स आदि भौतिकवादी प्रत्यक्ष प्रमाणके अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं मानते तथापि दूसरोंके अज्ञान, संशय, भ्रान्ति या जिज्ञासा-प्रशमनके लिये वाक्य-प्रयोग वे भी करते हैं, परंतु केवल प्रत्यक्षवादी दूसरोंके अज्ञान, संशय, भ्रान्ति, जिज्ञासा आदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे कैसे जान सकेंगे? श्रोत्र, त्वक्, चक्षु, रसना, घ्राणसे शब्द-स्पर्शादिरहित अन्यनिष्ठ संशयादि सर्वथापि नहीं जाने जा सकते। बिना संशयादि जाने जिस किसीके प्रति अजिज्ञासित अर्थका प्रतिपादक वक्ता उन्मत्त ही कहा जा सकता है। अत: स्वीकार करना पड़ेगा कि मुखाकृति या वाग्व्यवहार आदिसे दूसरोंके संशयादिकोंका अनुमान करके ही कोई भी वक्ता वाक्यप्रयोग कर सकता है। अत: प्रत्यक्षातिरिक्त प्रमाण नहीं है, इसे कहनेके लिये भी अनुमान प्रमाण मानना आवश्यक है। अतएव पशु-पक्षीतकका व्यवहार भी अनुमानमूलक होता है। भोजन आदि लेकर आते मनुष्यकी ओर प्रवृत्त होना, दण्डोद्यतकर मनुष्यसे पलायन करना आदि भी अनुमानसे ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार व्यवहारमें कोई भी व्यक्ति पिता-पितामहादिकी सम्पत्तिका उत्तराधिकारी तभी होता है, जब वह अपनेको पिता-पितामहका पुत्र-पौत्र सिद्ध कर सके। प्रत्यक्ष प्रमाणसे कोई प्राणी अपने माताकी सिद्धि नहीं कर सकता, पिता-पितामहकी सिद्धि तो दूरकी बात है। अत: पार्श्ववर्तियों तथा माता आदिकी बातोंपर विश्वास करनेसे ही पिता आदिकी सिद्धि होती है। पशु आदिको पिता आदिकी सम्पत्तिमें अधिकारी नहीं होना होता है, अतएव उन्हें वचनप्रमाणसे पिता आदिकी सिद्धिकी अपेक्षा नहीं होती। पशु आदि वचनप्रमाणरहित होते हैं, अत: उनकी दृष्टिसे माता, भगिनी, पुत्री आदिका भेद भी मान्य नहीं होता। वे पत्नी, भगिनी, किसीसे भी संतान उत्पन्न कर सकते हैं। पर मनुष्य वचनप्रमाण मानता है, इसीलिये यह माता, भगिनी आदिका भेद मानकर यथायोग्य व्यवहार करता है। अत: आप्त पुरुषोंका कहना है—
मतयो यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति वानरा:।
शास्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नरा:॥
प्रत्यक्षानुमानादिमूलक मति जहाँतक जाती है, वहाँतक जानेवाले वानरादि पशु होते हैं, परंतु प्रत्यक्षानुमान एवं शास्त्र जहाँतक चलते हैं, वहाँतक चलनेवाला प्राणी ही नर होता है। हाँ, पौरुषेय वचन प्रत्यक्षानुमानादिमूलक होते हैं। पर अपौरुषेय वचन स्वतन्त्ररूपसे प्रमाण होते हैं। जैसे रूपग्रहणमें नेत्र स्वतन्त्र प्रमाण होता है, वैसे ही धर्म-ब्रह्मादिग्रहणमें वेदादि शास्त्र स्वतन्त्र प्रमाण होते हैं। इस तरह प्रत्यक्ष, अनुमान तथा वेदादि आगमोंद्वारा यही सिद्ध होता है कि शुभाशुभ कर्मोंके अनुसार ईश्वरसे ही विश्वकी सृष्टि एवं उसकी व्यवस्था होती है। विचित्र सूर्यमण्डल अपने आप कैसे बन गया? उससे चन्द्रमण्डल, भूमण्डलके टुकड़े कैसे टूटे? अब ऐसे टुकड़े क्यों नहीं टूट रहे हैं? अब वानरसे मनुष्य क्यों नहीं उत्पन्न होते, इन अतीत इतिवृत्तोंमें क्या प्रमाण है? केवल कुछ मनुष्योंकी दिमागी कल्पनाको छोड़कर इन तत्त्वोंका क्या आधार है? आर्ष विज्ञान अपौरुषेय शास्त्रोंके सामने इन कल्पनाओंका क्या मूल्य है?
इन कल्पनाओंकी निस्सारता इसीसे स्पष्ट है कि अग्नि, सूर्य, इन्द्रादि देवता उपयोगिताके आधारपर माने गये हैं, परंतु यह कोई भी नहीं कह सकता कि ‘जिसका उपयोग करना हो, उसकी पूजा भी करनी चाहिये।’ पूजा तो उसी दशामें होती है, जब दृश्य जडवस्तुसे भिन्न कोई चेतन वस्तु मान्य होती है। आस्तिक लोग उपयोगी अग्नि आदिमें एवं अनुपयोगी पाषाण आदिमें भी चेतन अधिष्ठान देवता मानकर उनकी पूजा करते हैं। इसी तरह इन्द्र या ईश्वर आदिकी कल्पना भी भीरु प्राणीकी भीरुताका परिचायक नहीं; किंतु भय, शोक, मोह, सुख-दु:ख आदि प्रापंचिक भावोंसे ऊपर उठे हुए महापुरुषोंद्वारा परम तथ्यका ऋतम्भरा प्रज्ञाद्वारा साक्षात्कार है। निर्विकल्पसमाधिदशामें ईश्वरतत्त्वका साक्षात्कार होता है एवं दार्शनिक दिव्य तर्कोंद्वारा अशृंखल भौतिकवादी कुतार्किकोंके अखर्व गर्वोंको चूर करके अध्यात्मवादी आत्म-परमात्मवाद सिद्ध करते हैं। वशिष्ठ, व्यास, कण्व, गौतम, श्रीहर्ष, उदयन, कुमारिल आदिकोंके महान् तर्क आज भी नास्तिकोंके लिये दुर्भेद्य हैं।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Exit mobile version