4.13 विकासवाद और जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.13 विकासवाद और जाति

जल, वायु एवं देशोंके प्रभावसे रंगमें परिवर्तन होना प्रत्यक्ष अनुमान एवं शास्त्रसे भी सिद्ध है। कफ, वात, पित्तकी प्रधानता-अप्रधानतासे भी रंग, रूप, स्वभावमें भेद होना शास्त्रसिद्ध है। जैसे संकल्पों, विचारों एवं वातावरणोंसे रजस्वला स्त्री प्रभावित हो, स्त्री-पुरुष जैसे देश, काल, वातावरणसे प्रभावित होकर गर्भाधान करते हैं, वैसे ही संतानका प्रादुर्भाव होता है। वात, पित्त, कफका प्रभाव भी संतानपर पड़ता है। ‘बृहदारण्यक’ में स्पष्ट मिलता है कि जो चाहे कि मेरा पुत्र शुक्लवर्ण और एक वेदका विद्वान् हो, वह विधानसहित क्षीरोदन पकाकर घृतके साथ प्राशन करे। जो चाहे कि कपिल एवं पिंगलवर्णका पुत्र हो और दो वेदका पण्डित हो, वह विधिपूर्वक घृतयुक्त दध्योदनका प्राशन करे। ऐसे ही श्याम, लोहिताक्ष और तीन वेदका पण्डित होनेके लिये भी प्रकारान्तरका उल्लेख है। पुष्पों, फलों, पौधोंका भी रूप-रंग, स्वाद बाह्य उपचारोंसे बदला जा सकता है, यह स्पष्ट ही है। तात्कालिक या प्राचीन लौकिक एवं शास्त्रीय कर्मोंसे रूप-रंगमें प्रमाणानुसार परिवर्तन माननेमें विकासवादके प्रसंगकी उपस्थितिका कोई भी अवसर नहीं रहता। इतना ही क्यों, देवताओं, ऋषियोंके वर या शाप अथवा तीव्र पुण्य या पापसे तत्क्षण जातिका परिवर्तन हो जाता है। विश्वामित्रके शापसे रम्भा पहाड़ी हो गयी, सप्तर्षियोंके वचनसे नहुष अजगर हो गया और देवताके वरसे नन्दी देवता हो गये, परंतु इतनेसे ही विकासवादियोंके बन्दरोंसे मनुष्यकी उत्पत्ति हुई, इस मतकी पुष्टि नहीं होती। वैदिकोंके मतमें किसी भी विलक्षण कार्यका आविर्भाव-तिरोभाव किसी हेतुसे किसी बुद्धिमान‍्द्वारा होता है, यह पक्ष तो सर्वसम्मत है। इस दृष्टिसे कर्मोंके वैचित्र्यसे सर्वज्ञ ईश्वरद्वारा विलक्षण कार्योंका आविर्भाव-तिरोभाव होना ठीक है, परंतु कर्मनिरपेक्ष जड (प्रकृति या अन्यान्य जड) परमाणु या विद्युत्कणसे विलक्षण कार्य बन जाने या बन्दरसे मनुष्य आदिकोंकी उत्पत्तिका कोई आधार नहीं है।
जब कर्म, वर, शाप, भावना, संकल्प आदि अन्यान्य हेतु परिवर्तनके विद्यमान हैं, तब खामखाह व्यभिचारकी ही कल्पना करना, सबको झूठा समझकर केवल अपने अटकलपर ही डटे रहना कहाँतक ठीक है? भले ही किसीको कोई रोग परस्त्री-सम्भोगसे ही हुआ हो, परंतु अन्यान्य प्रकारके सम्पर्कसे वह रोग हो ही नहीं सकता, ऐसा नहीं कहा जा सकता। श्रीदशरथके राम, भरत ये दो श्यामल पुत्र और लक्ष्मण, शत्रुघ्न गौरवर्णके हुए। वसुदेवसे भी बलराम गौर, कृष्ण श्यामल हुए। प्रद्युम्न, अनिरुद्ध श्यामल हुए, व्यास, शुक आदि श्यामल थे, अत: यह तो कहा ही नहीं जा सकता कि आर्य सब गोरे ही होते थे। भारतमें छहों ऋतुओंका पूर्ण विकास होता है, अत: देशकालभेदसे तथा अन्यान्य हेतुओंसे भी रूप-रंगमें भेद हो ही सकता है। मैथिल, बंगाली, पंजाबी, युक्तप्रान्तीय, महाराष्ट्रिय, द्रविड़ आदिकोंके रूप-रंग, स्वरूपमें स्पष्ट भेद पड़ जाते हैं। वे सभी आर्य हैं; सभीके समान गोत्र होते हैं। शंकर गौरवर्ण, ब्रह्मा रक्तवर्ण, विष्णु श्यामल वर्णके हैं। यही स्थिति महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वतीकी भी है। सत्त्व शुक्ल, रज रक्त, तम कृष्ण होता है। भगवान‍्के अवतारोंमें भी शुक्ल, रक्त, पीत, कृष्ण—ये चार भेद आये हैं—
‘शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गत:॥४७’
(श्रीमद्भा० १०।८।१३)
पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश—इन पाँच तत्त्वोंमेंसे जिस तत्त्वकी प्रधानता जिन प्राणियोंमें रहती है, उस प्रकारके रंग उन प्राणियोंमें होते हैं। पृथ्वीका पीतवर्ण, जलका शुक्ल, अग्निका रक्त, वायुका कृष्ण, आकाशका धूम्रवर्ण है (योगतत्त्वोपनिषद्)। सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि—इन ग्रहोंका रंग क्रमश: ताम्र, श्वेत, रक्त, हरा, पीला, भास्वर, शुक्ल और कृष्ण है। जन्मकालीन लग्नके नवांशका स्वामी ग्रह यदि बलवान् हो तो उसके वर्णानुसार उस पुरुषका रंग होता है। लग्ननवांशाधिपति निर्बल हो और यदि लग्नमें स्थित या लग्नको देखनेवाला ग्रह बलवान् हो तो उसके वर्णानुसार उस पुरुषका रंग होता है। लग्ननवांशाधिपति निर्बल हो और यदि लग्नमें स्थित या लग्नको देखनेवाला ग्रह बलवान् हो तो उस ग्रहके वर्णानुसार रंग होता है अथवा चन्द्रमा जिस राशिके नवांशमें हो, उसके स्वामी ग्रहके वर्णानुसार रंग होता है। ‘लग्ननवांशपतुल्यतनु: स्याद्वीर्ययुतग्रहतुल्यवपुर्वा। चन्द्रसमेतनवांशपवर्ण:।’ (बृहज्जा० ५।२३) हाँ, इसमें भी देश, जाति, कुल आदिके अनुसार वर्णमें तारतम्य होना स्वाभाविक है—(परं विधार्या: कुलजातिदेशा:।)
‘विकासवाद युक्तिसंगत हो तो उसे माननेमें कोई आपत्ति नहीं, परंतु जिस विकासवादकी अबतक कोई निश्चित व्यवस्था ही नहीं, उसके बारेमें कहाँतक क्या कहा जाय? विकास-ह्रास ये संस्कृत शब्द हैं। किसी विद्यमान वस्तुका ही ह्रास और विकास होता है। इस दृष्टिसे हर एक वस्तुका ‘जायते, अस्ति, वर्द्धते’ तक विकास कहा जा सकता है। ‘परिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति’ यहाँतक ह्रास होता है। इस तरह हर एक तत्त्वमें ह्रास-विकासका चक्र चलता रहता है। यह विकास-ह्रास भी बिना किसी नियन्ताके नहीं बनता। सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् परमेश्वरके नियन्त्रणमें तो यह सब सम्भव है, परंतु जिस विकासवादमें सर्वज्ञ ईश्वर नहीं, जिसमें पूर्व-पूर्वके लोग अज्ञ, उत्तरोत्तरके लोग विज्ञ होते हैं, जिसमें अभीतक सर्वज्ञ कोई हुआ ही नहीं, अतएव जिसका शास्त्र भी अभीतक ठीक-ठीक नहीं बन पाया, ऐसा विकास सचमुच किसी आस्तिकको मान्य नहीं हो सकता। इसके सिवा सबसे बड़ा दोष इस विकासवादमें यह है कि इसमें कर्मवादका सम्बन्ध नहीं रहता। यदि अनन्त प्राणियोंके उत्कर्ष, अपकर्ष, सुख-दु:ख उनके धर्माधर्मरूप कर्मोंसे माने जायँ और कर्मों तथा फलोंका ज्ञाता, नियन्ता परमेश्वर माना जाय, तब कर्मोंके अनुसार ही विकास और उसके अनुसार ही ह्रास भी मानना पड़ेगा। तब तो ह्रास-विकासका चक्र ही समझमें आ सकता है।’
किसी पीढ़ीमें अकस्मात् परिवर्तन विकासवादमें परिगणित हो सकते हैं, परंतु संकल्प, धर्माधर्म, वर-शापादिसे परिवर्तन इस विकासवादमें नहीं आ सकता। विकासवादियोंका यह कहना भी युक्तिविहीन है कि ‘किसी जातिके किसी पीढ़ीमें अकस्मात् आविर्भूत होनेवाले गुण-दोष दोनों ही प्रबल होते हैं। खतरनाक अवस्था आनेपर दोषवाली जातिके लोग नष्ट हो जायँगे, परंतु गुणवाली जातिके लोग और जातियोंके नष्ट होनेपर भी बचे रहेंगे।’ तब ये विशेषताएँ बिना कारणके कैसे होंगी? फिर जब अकस्मात् ही सब कुछ होना है, तब आकस्मिक दोषवाली जातिके नष्ट हो जाने, गुणवाली जातिके जीवित रहनेका ही नियम कैसे रहेगा? शास्त्रीय विचारधाराके लोगोंका तो कहना है कि किसी भी परिवर्तनमें हेतु अवश्य है और जो विशेषताएँ आगन्तुक हैं, उनको मिटाना भी अनिवार्य है। उत्तम दृढ़ हेतुसे व्यक्त विशेषताएँ कुछ दीर्घकालतक ठहरती हैं। निम्नश्रेणीके हेतुसे उत्पन्न विशेषताएँ शीघ्र ही नष्ट होती हैं। कुष्ठ, प्रमेह, मृगी आदि ऐसे कितने ही रोग हैं, जो प्रारब्ध एवं अन्यान्य बाह्य हेतुओंसे उत्पन्न होते हैं और फिर उनकी परम्परा चल पड़ती है। कितने रोग ऐसे भी होते हैं कि जिनकी परम्परा नहीं चलती। वैसे दोषोंका भी ज्ञान फल-बलसे ही जानना चाहिये।
रूप-रंग एवं मनपर बाह्य परिस्थितियोंका प्रभाव भी अवश्य पड़ता है। मैथिलों, पंजाबियों, द्राविड़ोंपर देश, जल, वायुका प्रभाव अवश्य है। पवित्र, अपवित्र वस्तुओंका सेवन, वैसे वातावरणका सेवन अवश्य मनपर प्रभाव डालता है। भाँग, मद्य आदिके सेवनसे मनपर विकृति आती ही है। केवल ‘आधुनिक विकासवादियोंको मान्य नहीं है’ इतनेसे ही कोई बात अयुक्त नहीं हो सकती। फिर जो आकस्मिक परिवर्तन माननेवाला है, उसकी दृष्टिमें किसी भी हेतुका सम्मान कैसे हो सकता है? इसके अतिरिक्त तीव्र पुण्य-पाप, ऋषियों, देवताओंके वर-शापसे भी विचित्र परिवर्तन शास्त्रसिद्ध है। रचनामें अलौकिक ईश्वरीय शक्तिका हाथ होते हुए भी चित्रकारके समान परमेश्वरमें अल्पज्ञता एवं अभ्याससापेक्ष कुशलताकी आपत्ति नहीं होगी। मनुष्यजातिकी धीरे-धीरे उन्नति करनेपर ही उसकी न्यूनता नहीं; क्योंकि सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् भी परमेश्वर जीवोंकी उन्नति अवनतिके सम्बन्धमें उनके कर्मोंपर अवलम्बित है। जीवोंके अंगोंके सौन्दर्य, माधुर्य आदि गुणगणोंके होनेमें जीवोंके कर्म भी हेतु होते हैं, कर्मानुसार ही जीवोंको रूप, रंग, सौन्दर्य, बुद्धि आदि मिलेगी। इतनेसे ही सृष्टिकी पूर्णता-अपूर्णताका निर्णय करना निरर्थक है। जब जीवोंके पुण्य विशेष होते हैं, तब उनका उत्तम विकास होता है, पुण्योंकी कमीमें विकासकी कमी होती है। रंगों, रूपों, बुद्धियोंमें खराबी पापोंकी विशेषतासे भी होती है। वैसे ही हर एक जीवमें सब तरहके गुण और शक्तियाँ विद्यमान होती हैं। तपस्या और धर्मकी महिमासे उनका आविर्भाव, अधर्मसे उनका ह्रास हो जाता है। प्रकृतिके विरुद्ध परमेश्वरका जातिपर हाथ लगानेका तो कोई प्रसंग ही नहीं; प्रेम, भक्ति आदिसे भी अनेक परिवर्तन होनेपर भी उस देहके रहते-रहते जाति नहीं बदल सकती, दूसरे जन्ममें तो अभीष्ट जाति-परिवर्तन तीव्र कर्मोंसे हो सकता है। यह भी योगादि शास्त्रोंको सम्मत है। भगवान् भक्तपर अनुग्रह करें, यह भी पक्षपात नहीं है; क्योंकि जैसे अन्यान्य कर्म हैं, वैसे ही भक्ति भी मानस कर्मविशेष ही है। अग्निके समीप जो ही जायगा, उसकी शीत-निवृत्ति होगी। वह सभीके लिये समान है। विशेष कर्मों, उपासनादि हेतुओंसे उसी जन्ममें जातिपरिवर्तन होना अपवाद और उस देहमें जातिका न बदलना उत्सर्ग है। फिर किसी पीढ़ीके रूप, रंग, मनके परिवर्तनसे जाति बदलनेका कोई प्रसंग ही नहीं है। जो कहा गया है कि ‘परमेश्वर किसी भक्त जातिको ब्राह्मणत्व दे सकता है’ यह कहना अनभिज्ञता है; क्योंकि ब्राह्मणत्व भी जाति ही है। फिर एक जातिको दूसरी जाति कैसे मिल सकती है? यह ध्यान देनेकी बात है कि व्यक्तिको जाति प्राप्त होती है। जातिको जाति कभी भी नहीं मिल सकती, ‘जातौ जातेरनङ्गीकारात्’ किसी अन्य जातिके व्यक्तिसे अन्य जाति मिल सकती है, परंतु वह अपवाद है।
जो तपस्या और योगकी शक्तिसे प्रकृतिपर अधिकार पा चुके हैं, जो प्राकृतिक तत्त्वोंमें संकल्पमात्रसे परिवर्तन कर सकते हैं, वे शूद्रादि जात्यारम्भक कर्मविशिष्ट भूत, तन्मात्राओं या परमाणुओंको हटाकर ब्राह्मणजात्यारम्भक कर्मविशिष्ट भूतों या परमाणुओंसे ब्राह्मणजातिको व्यक्त कर सकते हैं, परंतु यह सामर्थ्य उन्हीं लोगोंमें सम्भव है, जो अपने सामर्थ्यसे नहुषको अजगर और रम्भाको पहाड़ी बना सकते हैं। उन महर्षियोंके वचनोंमें वह सामर्थ्य रहती है कि जिससे उनके वचनोंका अनुगमन अर्थ करते हैं। वचनोंको अर्थके अनुगमनकी आवश्यकता नहीं होती। वे यदि घटको पट कहें, तो घटको पट होना पड़ता है—‘ऋषीणां पुनराद्यानां वाचमर्थोऽनुधावति’ आद्य महर्षियोंके वचनोंका अनुधावन अर्थ करते हैं। अतएव परमेश्वरद्वारा किसी जातिके अनियमित परिवर्तनका प्रसंग ही नहीं आता। जो यह कहा गया है कि मिश्रणसे भी रंग-रूपमें भेद होता है, जैसे काली मुर्गी और श्वेत मुर्गेसे उत्पन्न चार बच्चोंमें एक काला और एक श्वेत होता है, बाकी दो मिश्रित होते हैं। दूसरी पीढ़ीमें सोलह बच्चोंमें एक श्वेत, एक काला और चौदह मिश्र रंगके तथा तीसरी पीढ़ीमें चौंसठमें एक काला, एक श्वेत, बाकी सब मिश्र रंगके होते हैं। इस तरह मिश्र जातिमें भी शुद्ध विशेषताएँ आ जाती हैं। वैसे ही मनुष्योंमें भी पश्चिमी श्वेत और पीत मंगोलका मिश्रण होनेपर उनसे कुछ पश्चिमीय रूप-रंगके और कुछ मंगोल रूप-रंगके होते हैं, परंतु अधिकांश पारसी, ईरानी ढंगके होते हैं। इसी दृष्टिसे निश्चित किया जा सकता है कि पारसी जाति इन्हीं दोनोंका मिश्रण है। यही स्थिति उत्तर भारतकी उच्च जातियोंमें भी है। वहाँ मिश्रण स्पष्ट है, परंतु ऐसा कहना ठीक नहीं है। जैसे मुर्गीमें यह देखा जाता है, वैसे ही अन्य जातियोंमें इसका व्यभिचार भी देखा जाता है। ‘कलमी आमोंमें कभी भी मूल आमके समान फल नहीं होते। व्यक्तियोंके रूप, रंग, ऊँचाईमें एकता, शरीरके हर एक अंगमें स्पष्टता शुद्ध जातिके चिह्न हैं,’ यह कथन भी असंगत है। शुद्ध जातिका अर्थ क्या है? क्या सृष्टिकालसे प्रकट होनेवाली कोई आदिम जातिको शुद्ध जाति कहा जाता है? यदि हाँ, तो उपर्युक्त चिह्न उसीके हैं, इसमें क्या आधार है? वानर आदि जातियोंके अंगोंकी अस्पष्टताके कारण क्या उन्हें अशुद्ध माना जाय? फिर शुद्ध बन्दर कौन? कोई जाति ही स्पष्ट अंगवालोंकी होती है, कोई अस्पष्ट अंगवाली होती है।
‘पाँचवीं, छठी, सातवीं पीढ़ीमें अशुद्ध संतानोंमें फिर शुद्धता आ जाती है,’ इसका ठीक अर्थ न समझकर विद्वान् लेखकने व्यर्थ ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रके रक्तका हिसाब-किताब लगा डाला है। ‘पाँचवीं पीढ़ीमें अशुद्ध संतान शुद्ध हो जाती है,’ इसका अभिप्राय यह नहीं है कि किसी तरहसे भी अशुद्ध संतानसे पाँचवीं पीढ़ीकी संतान शुद्ध हो जाती है। उसका अभिप्राय है कि शूद्रकन्याका ब्राह्मणके साथ विवाह हो और फिर उससे कन्या ही हो, उसका विवाह फिर ब्राह्मणसे ही हो, उससे फिर कन्या हो और उसका फिर ब्राह्मणसे ही विवाह हो। इस परम्परासे सातवीं पीढ़ीमें उत्पन्न कन्या ब्राह्मणी होगी। शूद्रकन्यामें ब्राह्मणसे उत्पन्न कन्या-परम्परासे ही सातवीं पीढ़ीमें जातिका उत्कर्ष होगा; परंतु शूद्रपुत्रकी परम्परामें उत्कर्ष नहीं हो सकेगा, बल्कि शूद्र यदि उत्कृष्ट वर्णकी कन्यासे उद्वाह करे तो उसका पतन हो सकता है। ‘अत: हर तरहसे निकृष्ट संतान भी उत्कृष्ट जातिको प्राप्त हो जाती है,’ ऐसा नहीं कहा जा सकता। ‘रक्तमिश्रणसे भी जातिमें भेद नहीं होता,’ यह बात नहीं है। प्राचीन कालमें स्त्रियाँ बिलकुल शुद्ध थीं, यह तो कोई भी नहीं कहता, किंतु जो अशुद्ध थीं, उनसे उत्पन्न संतान अनुलोम, प्रतिलोम संकर कोटिमें गिनी गयीं, जो आज भी अनेक उपजातियोंके रूपमें प्रत्यक्ष हैं। शुद्ध जातियोंमें वे मिलायी नहीं गयीं, यही वैदिकोंका कहना है। स्त्रियोंकी शुद्धिपर विश्वास न होनेका कारण भिन्न-भिन्न देशोंका वर्तमान वातावरण ही है। अब भी देखा जाता है कि माता, पिता, भ्राताके पूर्ण नियन्त्रणमें कन्या रहती है। वह नौ-दस वर्षकी अवस्थामें ब्याही जाती है। श्वशुरकुलमें जाते ही पर्देमें रहती है। ज्येष्ठ, श्वशुरतकसे भी नहीं बोलती, घरके भीतर सदा घूँघटकी ओटमें रहती है। जहाँ घूँघटकी प्रथा नहीं है, वहाँ भी दृष्टिसंवरणरूप पर्दा है ही। बिना कुटुम्बियोंके अकेले उसका कहीं जाना-आना सम्भव ही नहीं, किसी बाहरी व्यक्तिसे बोलनातक जब असम्भव है, तब स्वतन्त्र मिलनेकी तो बात ही क्या? ऐसी दशामें कुटुम्बमें कहीं व्यभिचार भले ही हो जाय, परंतु परजातिके साथ सम्बन्ध तो असम्भव ही है। रजस्वला होनेपर स्त्रीके मनमें विकार आनेपर किसीपर मन जा सकता है। इसीलिये रजस्वला होनेके पहले ही विवाह करनेका नियम है। पातिव्रतधर्म, वैधव्य-पालन, सतीधर्म आदिके प्रचारपर जिनकी दृष्टि है, जो आज भी एक-एक गाँवमें सैकड़ों निर्दोष कुलोंको देख रहे हैं; उन्हें स्त्रियों, विशेषत: प्राचीन कुलांगनाओंकी शुद्धिपर अविश्वासका कोई कारण नहीं। जहाँ कहीं कुछ भी गड़बड़ीका सन्देह हो, वहाँ उनकी संतानोंको पृथक् करनेका आशय यही था कि जातिकी शुद्धता बनी रहे। सारांश यह है कि रूप, रंग, रक्त, वीर्य आदि सभीका परिवर्तन देश, काल, जल, वायु, प्रारब्ध एवं अन्यान्य आगन्तुक दोषों और गुणोंसे हो जाता है। इतनेसे ही जाति-भेद निराधार और निरर्थक नहीं सिद्ध होता। जैसे काली, श्वेत मुर्गीमें भी जाति वही रहती है। नील, श्वेत, लाल, सब रंगकी गायोंमें ‘गोत्व’ और पूज्यत्व रहता ही है, वैसे ही पंजाबी, मैथिल, बंगाली, द्रविड़ ब्राह्मणोंके रूप-रंगमें भेद होनेपर भी ब्राह्मणत्व समान ही रहता है। ‘इनमें कौन शुद्ध है, कौन नहीं,’ इसका निर्णायक प्रमाण लेखकके साथ क्या है? पंजाबियों, बंगालियों, युक्तप्रान्तियों, मैथिलों सभीके आकारमें स्पष्टता है। फिर भी कुछ भेद केवल देश, जल, वायुका ही है। अतएव उन-उन देशोंके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रतकके आकार-प्रकार, भाषामें एक खास समानता होते हुए भी जातिमें भेद है। बंगाली, मैथिल, दक्षिणी ब्राह्मणके गोत्र, शाखा, सूत्र समान हैं। एक ही देशके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यके रूप, रंग बोल-चालमें समानता होनेपर भी गोत्र आदिमें भेद है।
कौन चीज बदल सकती है, कौन नहीं, इसका ज्ञान अनुमान और शास्त्रसे सुगम है; पर शास्त्र-अनुमानशून्य केवल कल्पनाकी उड़ान करनेवालेको वह अवश्य दुर्गम है। जब यह स्पष्ट है कि रूप-रंग, मोटापन दुबलापनकी तरह परिवर्तनशील है, मनमें भी सत्त्व, रज, तमकी प्रबलता-निर्बलता घट-बढ़ सकती है, तब स्पष्ट ही है कि इनके बदलनेसे ब्राह्मणता आदिमें परिवर्तन नहीं होता।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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