6.6 उत्पादन और नियम ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.6 उत्पादन और नियम

उत्पत्तिके पुराने साधनों एवं पद्धतियोंमें रद्दोबदल होनेसे उत्पादनमें विस्तार अवश्य हो जाता है, उत्पन्न वस्तुओंमें सस्तापन भी आता है तथा आमदनीमें भी वृद्धि हो जाती है। पर माल खपतके लिये बाजारोंकी आवश्यकता, माल भेजने तथा कारखानोंके लिये कोयले, पेट्रोलके खानोंकी आवश्यकता, बाजारों एवं कोयले-पेट्रोल आदिके लिये संघर्ष एवं बेकारीकी समस्या अवश्य खड़ी होती है। इसीलिये रामराज्यमें उद्योगोंका विकेन्द्रीकरण अभीष्ट है। छोटे व्यवसायोंद्वारा स्वावलम्बी ढंगसे बेकारी दूर कर व्यापकरूपसे रोजगारोंकी व्यवस्था की जाती है। कम्यूनिष्ट यद्यपि बड़ी-बड़ी पुस्तकोंमें कलकारखानोंके द्वारा गरीबोंके रोजगार छिन जानेकी चीख-पुकार मचाते हैं; परंतु उन्हीं कल-कारखानोंका ही वे समर्थन भी करते हैं। इतना ही क्यों, वे कलकारखानोंके विस्तारसे ही मजदूरोंका लाखोंकी संख्यामें एकत्रित एवं संघटित हो सकना तथा मजदूर-आन्दोलनोंके द्वारा कम्यूनिष्ट राज्य-स्थापनाका भी स्वप्न देखते हैं। अस्तु, ईश्वर एवं धर्मकी भावना दृढ़ होनेसे वैभव एवं सम्पत्तिवाले सम्पत्तिका सदुपयोग राष्ट्रके पोषणमें तथा जीवन-स्तर उन्नत करनेमें करेंगे। बेकारी दूर करनेके काममें सम्पत्ति उपयुक्त होगी। इसीलिये प्राचीनकालमें आजकी अपेक्षा कहीं अधिक सम्पत्ति, शक्तिबल, विद्या, दक्षताके रहनेपर भी असंतुलित विषमता, बेकारी, कलह आदि नहीं था। ईश्वर-धर्मकी भावना घटनेसे ही मात्स्यन्याय परस्पर भक्ष्य-भक्षकभाव, शोषक-शोषित भाव बढ़ता है। पर उसे ही मार्क्सवादी गुण मानते हैं। वर्ग-कलह, वर्ग-विद्वेष, वर्ग-विध्वंस ही जिसके सिद्धान्त एवं संस्थाका आधार हो, वही जिसके जीवन एवं उन्नतिका एकमात्र साधन हो, उससे विश्वशान्ति एवं विश्वमें समानता, स्वतन्त्रता, भ्रातृताकी आशा करना व्यर्थ है। अस्तु।
उत्पादन-विस्तारसे कुछ भौतिक परिवर्तन होनेपर भी धर्मदर्शन एवं राजनीतिक नियमोंमें स्वत्वोंके रद्दोबदलका कोई प्रसंग नहीं होता। अमेरिका आदिकोंमें बिना मौलिक रद्दोबदलके भी काम चलता ही है। आर्थिक दशा, सामाजिक, धार्मिक नियमोंकी नींव ही नहीं, जिससे आर्थिक-दशामें परिवर्तन होनेसे धार्मिक नियमरूप भवन ढह पड़ें और उनमें रद्दोबदल आवश्यक हो।
जो कहते हैं कि ‘जिन लोगोंने उत्पादन साधनोंमें रद्दोबदल कर लिया, उन्हें उत्पन्न हुई वस्तुओंके वितरणसम्बन्धी नियमोंमें भी रद्दोबदल कर लेनेका अधिकार मानना न्यायसंगत है। अत: पुत्र-पौत्रादिका पिता-पितामहादिकी सम्पत्तिमें दायरूपसे बपौती सम्पत्तिके रूपमें अधिकार माननेके नियम भी रद्दोबदल करके तथा सभी स्वत्व-सम्बन्धी पुराने नियमोंमें भी रद्दोबदल करके समाजीकरण या राष्ट्रियकरणका सिद्धान्त मानना ठीक ही है।’ पर यह पक्ष विचारणीय है कि उत्पादन साधनोंमें रद्दोबदल करनेका मुख्य श्रेय किसे है। क्या साधारण मजदूर-समुदायको? कहना पड़ेगा कि बड़े-बड़े वैज्ञानिकों, अन्वेषकोंको ही इसका श्रेय होना चाहिये। दूसरा श्रेय वैज्ञानिकोंको सहायता, प्रोत्साहन एवं सामग्री देनेवाले धनवानोंको होना चाहिये। जबतक वे पुराने स्वत्वके नियमोंमें रद्दोबदल नहीं चाहते, केवल मजदूरोंकी इच्छामात्रसे रद्दोबदल कैसे हो सकता है? बड़े-बड़े वैज्ञानिक, आविष्कारक, अन्वेषक एवं धनवान् आदि तो कम्युनिष्टोंके मतानुसार शोषित वर्गमें नहीं आ सकते, वे तो शोषक वर्गमें ही चले जायँगे। फिर वे पुरानी व्यवस्थामें रद्दोबदल क्यों चाहेंगे? केवल आविष्कारकोंके आविष्कारों, यन्त्रों एवं मजदूरोंके प्रयत्नसे ही नहीं उत्पादन होता, किंतु उसमें पूँजी भी अपेक्षित होती है। यदि पूँजी न हो तो यन्त्र ही कहाँसे खरीदे जायँ? मजदूरोंके लिये मजदूरी कहाँसे आये? वैज्ञानिकों, अन्वेषकोंको सुविधा भी कहाँसे मिले? अत: उत्पादन-साधनमें रद्दोबदलका मुख्य श्रेय पूँजीपतिको ही क्यों न दिया जाय? इसके अतिरिक्त कोयला, पेट्रोल, लोहा, ताँबा, गन्धक आदिकी खानें तथा अन्य कच्चे माल न हों तो वैज्ञानिक, पूँजीपति, मजदूर कोई भी उसका उत्पादन नहीं कर सकेगा, न यन्त्र बना सकते हैं, न उत्पादन-साधनोंमें ही रद्दोबदल कर सकते हैं। वस्तुत: ईश्वर ही वह वस्तु है, जिसके अखण्ड भण्डार प्रकृतिमें ही विभिन्न खानें हैं। जिसकी पृथ्वीसे ही लोहा, सोना, हीरा, गन्धक, पारा, कपास, अन्न, फल आदि कच्चे माल पैदा होते हैं। इनके बिना पूँजीपति, वैज्ञानिक, मजदूर सब बेकार हैं।
इतना ही क्यों, वैज्ञानिकोंके बल, दिमाग, बुद्धि भी (जिसके द्वारा वे भिन्न-भिन्न आविष्कार करते हैं) किसी लौकिक अन्वेषकका आविष्कार नहीं है; किंतु ईश्वरका ही आविष्कार है। मजदूरोंके देह-मन-बुद्धिमें कार्यक्षमता भी ईश्वरदत्त ही है। अत: ईश्वरीय शक्तियों एवं वस्तुओंके सहारे कुछ अन्वेषण या उत्पादन बढ़ानेमात्रके कारण कुछ व्यक्तियों या व्यक्तिसमूहोंको ईश्वरीय धार्मिक सामाजिक नियमोंमें रद्दोबदल करनेका अधिकार हर्गिज नहीं है। रहा यह कि ‘बहुमतके आधारपर उनका रद्दोबदल किया जाय।’ तो यह भी ठीक नहीं। कारण, मार्क्सवादी बहुमतका कोई महत्त्व नहीं मानते। जिसमें शोषक पूँजीपतिके मतका भी उपयोग किया जा सके, ऐसा बहुमत कम्युनिष्टको सर्वथा अमान्य है। शोषकों एवं शोषितोंके वोटोंका समानरूपसे महत्त्व देनेका कम्युनिष्ट मखौल उड़ाते हैं। दूसरोंके यहाँ भी बहुमत उसी हदतक आदरणीय हो सकता है, जहाँतक बहुमत विशेषज्ञोंके मतसे न टकराये। जैसे रोगीकी चिकित्साके सम्बन्धमें चिकित्साविशेषज्ञ वैद्य-डॉक्टरके मुकाबिले सामान्य जनोंके बहुमतका कोई मूल्य नहीं है। घड़ी आदि यन्त्रोंके सुधार या निर्माण आदिके सम्बन्धमें यन्त्रविशेषज्ञ एवं शिल्पीके मुकाबिले सामान्य जन-बहुमतकी कोई कीमत नहीं है। एक नेत्रवान‍्के कथनानुसार शंखकी शुक्लताका निर्णय होगा। दस या दस लाख अथवा दस करोड़ अन्धोंकी सम्मतिसे शंखकी कृष्णता अमान्य होती है। ठीक इसी तरह अपौरुषेय शास्त्र आर्ष-विज्ञानके आधारपर धर्मका स्वरूप निर्णय किया जाता है, उसमें रद्दोबदलकी बात सोची नहीं जा सकती है। सामान्यजनोंके बहुमतके आधारपर वैज्ञानिकों या मजदूरोंकी सम्मतिसे धर्ममें रद्दोबदल करनेकी बात वैसी ही मूर्खताकी होगी, जैसे गँवारोंकी सम्मतिसे हवाई जहाजका पुर्जा सुधारना और वकीलोंसे हृदयका ऑपरेशन कराना। वैद्यों-डॉक्टरोंसे वायुयानके कल-पुर्जे सुधारना शुद्ध मूर्खता है। जो वस्तु उपयोगार्ह नहीं रह जाती, वह अवश्य छूट जाती है; परंतु चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी, जल आदिके समान शास्त्रोक्त धर्म-नियम कभी अनुपयोगी नहीं होते। ईश्वर, उसकी उपासना एवं तदुपयोगी धर्म और नीति भी कभी अनुपयोगी नहीं होते। प्राचीनता-नवीनताका संघर्ष, प्राचीनताका विनाश एवं तदनुकूल तर्क, दर्शन, विवेक, वस्तुत: अविवेक ही है। पुराण पुरुष, आत्मा, परमात्मा, आकाश, वायु, चन्द्र, सूर्य, पृथ्वी आदिके समान, धार्मिक दार्शनिक राजनीतिक सत्य सिद्धान्त, न्याय, उपासना आदि प्राचीन होनेपर भी त्याज्य नहीं हैं। कालरा, प्लेग आदिके तुल्य वर्ग-कलह, वर्ग-द्वेष, अधर्मका प्रचार आदि नवीन होनेपर भी त्याज्य ही हैं। कभी चकमक पत्थर, कभी अरणीमन्थन, कभी दियासलाई तथा आधुनिक अन्य वैज्ञानिक साधनोंसे अग्नि प्रकट किया जाता है, परंतु एतावता अग्निके दाहकत्व, प्रकाशकत्व आदि धर्मोंमें परिवर्तन नहीं कहा जा सकता। इसीलिये बुद्धिमानोंने कहा है—
पुराणमित्येव न साधु सर्वं
न चापि सर्वं नवमित्यवद्यम्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते
मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
(मालविकाग्निमित्रम् १।२)
अर्थात्—सब वस्तु पुरानी होनेसे ही अच्छी नहीं एवं नयी होनेसे ही खराब नहीं। सत्पुरुष परीक्षा करके पुरानी या नयी वस्तुओंमें जो भी उचित या श्रेष्ठ हो, उसे ग्रहण करते हैं। मूढ़ लोग ही परप्रत्ययनेय बुद्धि होते हैं। यही न्याय आज नवीनतावादियोंपर भी लागू है। वे भी नवीन होनेसे ही किसीको ठीक समझते हैं तथा प्राचीन होनेसे ही धर्म, दर्शन, नीति, सबका परित्याग करनेके लिये प्रस्तुत होते हैं। उन्हें भी निष्पक्ष दृष्टिसे प्राचीन, नवीनकी परीक्षा करनी चाहिये। उचित होनेसे प्राचीन या नवीन किसी भी पक्षका ग्रहण किया जा सकता है। उपर्युक्त युक्तियोंसे दिखलाया जा चुका कि ईश्वरीय शाश्वत, धार्मिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक नियमोंमें परिवर्तन नहीं हो सकता।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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