6.16 वितरण
अतिरिक्त आयका पंचधा विभाजन करके भारतीय शास्त्रोंमें यद्यपि राष्ट्रहितार्थ उसका विनियोग बतलाया है, फिर भी अतिरिक्त आयको अवैध या अनुचित नहीं कहा जा सकता। कोई भी उद्योग यदि लागत खर्च, सरकारी टैक्सभरके लिये भी आमदनी पैदा करता है तो उससे उद्योगपतिका जीवन भी चलाना कठिन होगा और बड़ी-बड़ी मशीनोंके खरीदने आदिका काम भी न चल सकेगा। इसी तरह यदि उद्योगपति अतिरिक्त आयका भागी होता है, तभी उसपर मशीनोंको खरीदने, अन्वेषकोंको सहायता देने आदिका उत्तरदायित्व रहता है। यदि लाभके बदले नुकसान भी हुआ तो उसका भार उसीपर होता है। मजदूर न नुकसानका ही जिम्मेदार होता है और न मशीन खरीदने आदिका ही। लौकिक, पारलौकिक सभी कर्म अतिरिक्त लाभके लिये ही होते हैं। गेहूँ, यव, आम आदिके एक-एक बीजसे लाखों गेहूँ, यव, आम आदि मिलते हैं, तभी प्राणी खेती-बारीमें प्रवृत्त होता है। धार्मिक यज्ञ, दान आदिमें ही लागत खर्चसे लाखों गुना अधिक फल पाना सम्मत है। जैसे साधारण मजदूर अपने श्रमका साधारण मजदूरी पाता है; पर बुद्धिजीवी, इंजीनियर आदि अपनी विशेषताके कारण उनसे लाखों गुना ज्यादा मजदूरी पाते हैं, उसी तरह भूमि, सम्पत्तिवाले अपनी भूमि-सम्पत्तिका फल सबकी अपेक्षा ज्यादा पाते हैं। सबमें सब विशेषता नहीं रहती। इसमें भी प्राक्तन, सुकृत, दुष्कृत आदि हेतु हैं। घोड़ा, गदहा, ऊँट आदिसे काम लिया जाता है, पर उत्पन्न मालमें उन्हें हिस्सा नहीं दिया जाता। केवल भोजनका प्रबन्ध किया जाता है। कम्युनिष्ट सरकारें भी ऐसा ही करती हैं। फिर तो सबसे अधिक शोषक वे ही हुईं। यदि मनुष्यकी विशेषताके कारण उसे मालिक बनना उचित है तो भी यह सोचना चाहिये कि यह विशेषता सहेतुक है या निर्हेतुक। निर्हेतुक कार्यका होना सम्भव नहीं। अत: सहेतुक ही कहना पड़ेगा। इस जन्मके कोई हेतु विशेष उपलब्ध नहीं होते, अत: जन्मान्तरी सुकृत-दुष्कृतके कारण ही मनुष्य और गर्दभमें भेद होता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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