7. मार्क्सीय अर्थ-व्यवस्था – 7.1 मूल्यका आधार ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

कहा जाता है, पूँजीवादी समाजके जीवन और गतिका आधार होता है खरीदना, बेचना तथा वस्तुओं एवं श्रमका विनिमय ही परस्पर सम्बन्धका सार है। मार्क्सके मतानुसार ‘पूँजीवादके अन्तर्गत जो माल तैयार होकर बाजारमें जाता है, उसके दो तरहके मूल्य होते हैं—एक उपयोग-सम्बन्धी, दूसरा विनिमयसम्बन्धी। पहलेका अभिप्राय उस वस्तुके गुणसे है, जिससे खरीदनेवालेकी शारीरिक या मानसिक आवश्यकताकी पूर्ति होती है। जिसका उपयोग-मूल्य नहीं होता, उसका विनिमय या विक्रय नहीं होता। उपयोग-मूल्यकी दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु दूसरीसे भिन्न होना चाहिये। कोई आदमी एक मन गेहूँका परिवर्तन उसी ढंगके गेहूँसे नहीं करता; उसका परिवर्तन २० गज कपड़ेसे कर सकता है। अब यह प्रश्न होता है कि एक वस्तुका विनिमय दूसरी वस्तुसे कैसे और किस नियमसे हो? इसी नियम या कायदेका नाम विनिमय मूल्य है। इसका आधार श्रमके उस परिमाण और कठोरतापर निर्भर होता है, जो किसी वस्तुके बनाने या पैदा करनेमें आवश्यक होता है। बाजारमें श्रमके समान परिणामका परस्पर बदला किया जाता है। श्रमका परिमाण इस दृष्टिसे नहीं नापा जाता कि अमुक व्यक्तिको एक वस्तु बनानेमें कितनी देर लगती है। किंतु समाजमें आमतौरसे प्रचलित प्रणालीसे जितना समय लगता है, उसी हिसाबसे श्रमका परिमाण नापा जाता है। जैसे हाथसे कपड़ा बुननेवाले जुलाहेको २० गजके थान बनानेमें २० घंटे काम करना पड़ता है, जो कि आधुनिक मशीनोंद्वारा ५ घंटे या उससे भी कम समयमें बनाया जा सकता है, पर हाथसे कपड़ा बुननेवालेको चौगुना-पाँचगुना मूल्य नहीं दिया जा सकता। अत: मार्क्सके मतानुसार वस्तुके विनिमय मूल्यका आधार वह परिमाण है, जो उस वस्तुके तैयार करनेमें लगता है, परंतु श्रमका यह परिमाण सदा एक-सा नहीं रहता। नये आविष्कारोंसे माल तैयार करनेके ढंगमें उन्नति और श्रमजीवियोंकी उत्पादनवृद्धि आदि कारणोंसे किसी वस्तुके बनानेके लिये आवश्यक श्रमका परिमाण घट सकता है। उस अवस्थामें यदि दूसरी बातें (जैसे उसकी वस्तुकी माँग सिक्‍का आदि) जैसीकी तैसी बनी रहें, तो विनिमय मूल्य भी कम हो जाता है। अत: श्रम ही विनिमय मूल्यका आधार है। विनिमय मूल्यद्वारा ही किसी समाज या देशकी सम्पत्तिका निर्णय किया जा सकता है। वस्तुओंके तैयार करनेमें जितना श्रम अपेक्षित होता है, अगर वे उससे कममें तैयार होने लगें, तो किसी देशकी सम्पत्ति आकारमें भले ही बड़ी हों, पर मूल्यकी दृष्टिसे नगण्य हो सकती हैं। उद्योग-धन्धोंकी दृष्टिसे जो देश जितना अधिक अग्रसर होता है, उसकी सभ्यताका दर्जा जितना ऊँचा होता है, उतनी उसकी सम्पत्ति भी अधिक होती है। सम्पत्तिकी उत्पत्तिपर श्रम भी कम खर्च होता है। वर्तमान व्यावहारिक राजनीतिमें यह अधिक मजदूरी और कम घंटेके कामके रूपमें दृष्टिगोचर होती है। विनिमय मूल्यका आधार उपयोग-मूल्य ही होता है। यदि कोई चीज इतनी अधिक बन जाय, जिसकी लोगोंको आवश्यकता न हो, तो शेष वस्तुका कुछ भी मूल्य नहीं रह जाता, भले ही उसके तैयार करनेमें श्रम किया गया है। इसलिये विनिमय मूल्य या समाजद्वारा किये गये श्रमका पूरा फल तभी प्राप्त हो सकता है, जब कि वस्तुओंकी पैदावार और उनकी माँगमें समानता बनी रहे। इसके लिये संघटन और समाजके मार्गदर्शनकी आवश्यकता होती है।’
कहा जाता है, ‘प्राचीन अर्थशास्त्रोंके मतानुसार पूँजीपति जो कि उत्पत्तिका नियन्त्रण करता है, अपनी पूँजीद्वारा मजदूरोंको औजार और कच्चा माल पहुँचाता है। वह तैयार मालको बिकवाता है, माल तैयार होनेके क्रमको जारी रखता है, अत: वही मूल्यका उत्पादक माना जाता है। वह श्रमजीवियोंकी भी उत्पत्तिका एक साधन गिना जाता है। पर मार्क्सके मतानुसार श्रमजीवी ही जो कच्चे मालसे वस्तुएँ तैयार करते तथा कच्चा माल उत्पन्न करके वस्तु-निर्माणके स्थानतक पहुँचाते हैं, मूल्यके एकमात्र उत्पादक हैं।’
वस्तुत: यह कोई अनहोनी बात नहीं है। व्यवहारमें सुगमता लानेके लिये मुद्रा या रुपयोंका प्रचलन ठीक ही है। मनभर गेहूँका दाम दो बकरी या एक जोड़े जूतेका दाम एक मेज है, इस व्यवहारमें झंझट अधिक है। व्यवहारमें सुविधाके लिये रुपयोंके द्वारा पदार्थोंके दाम आँके जाते हैं! कोई सौदा देकर रुपया ले लेनेपर इस बातका सन्तोष रखता है कि आवश्यक होनेसे उस रुपयेसे कोई भी चीज खरीदी जा सकती है। पदार्थोंके संग्रह करने या ले जाने, ले आनेमें अनेक कठिनाइयाँ होती हैं। रुपयोंसे ऐसी कठिनाइयाँ दूर होती हैं। रहा यह कि पूँजीपतिको उसके द्वारा मुनाफा खींचने या जमा करनेका अवसर मिलता है। पर सदुपयोग-दुरुपयोग प्रत्येक वस्तुका किया जा सकता है। मशीन चलानेवाली, प्रकाश फैलानेवाली बिजलीसे प्राणी आत्महत्या भी कर सकता है। रुपयेसे व्यवहारमें हर प्रकारकी सुविधा ही होती है। उधार या कर्जके रूपमें लेना-देना उगाहना आदि रुपयेके व्यवहारमें सुगमता होती है। किसीको रुपयेसे लाभ होता है, एतावता वह बुरा नहीं कहा जा सकता।
क्रय-विक्रयके काममें आनेवाली वस्तुओंके दामका आधार भी केवल श्रम नहीं है, किंतु उपयोगिता एवं माँग दामका आधार है और उसका भी परम आधार है उपकार्य-उपकारकभाव। विकासवादियोंके अनुसार अध्यात्मवादी नया आविष्कार नहीं मानते; किंतु वेदादिशास्त्रोंद्वारा विहित वर्णाश्रमानुसारी श्रौतस्मार्त धर्मोंद्वारा देवार्चन करना और उनके द्वारा प्रदत्त वृष्टि, अन्न, प्रजा आदि रूपमें फल प्राप्त करना—यह सब भी विनिमय ही है। परम दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्णने कहा है कि—तुम यज्ञसे देवताओंका अर्चनकर संवर्द्धन करो। देवता भी विविध फल प्रदानकर तुम्हारा संवर्द्धन करेंगे। इस तरह परस्पर एक-दूसरेका पोषण करते हुए आप सब परम श्रेयके भागी होंगे।
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
(गीता ३।११)
नि:सीम ज्ञान-शक्ति-सम्पन्न ईश्वर ही हैं। जीवकी क्रिया, शक्ति, ज्ञान सब सीमित होता है। यज्ञ, तप, दान आदि बौद्धिक, शारीरिक श्रमद्वारा जीव ईश्वरसे बहुमूल्य सम्पत्ति प्राप्त करता है। कोई भी प्राणी लाभके ही उद्देश्यसे कर्म करता है। यह व्यापक सिद्धान्त है कि मन्दमति प्राणी भी बिना किसी प्रयोजनके किसी कार्यमें प्रवृत्त नहीं होता—‘प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।’ खेती करनेवाला किसान खेत जोतता है। अपना और अपने घरवालोंका पेट काटकर मनों गेहूँ, धान खेतमें डालता है, इसी आशासे कि उसे एक-एक गेहूँके बदले हजार-हजार गेहूँ मिलेगा। लौकिक परस्पर व्यवहारमें भी परस्पर सहयोग अपेक्षित होता है। सभी सब काम करनेकी क्षमता नहीं रखते। जैसे सबको सब बातोंका ज्ञान नहीं होता, वैसे सबमें एक कार्य करनेकी क्षमता भी नहीं होती। अतएव सभी लोग अपने जन्मानुकूल स्वभावानुसार शिक्षित होकर यथायोग्य ज्ञानकर्ममें संलग्न होते हैं। किसीने ज्ञानप्रधान, किसीने बलप्रधान, किसीने धनप्रधान, किसीने सेवाप्रधान कर्म अपनाया। यहीं वर्णाश्रम धर्मकी बात आ जाती है। विविध पशु, पक्षी, वृक्षोंके जन्मजात गुणकर्म वैचित्र्य होते हैं। इसी प्रकार जन्मजात गुणकर्म वैचित्र्य वर्णोंमें भी अंगीकृत होते हैं।
अस्तु! परस्परके लौकिक व्यवहारोंमें भी गृहस्थ किसान ब्राह्मण (पुरोहित) शासक, कर्मचारी (नौकर) तथा नाई, धोबी आदिको उनके श्रमके साथ अन्न ही देता था। परस्पर सद्भावना, सहयोग एवं समझौता करके सब काम चलाते थे। श्रमोंमें भी तारतम्य रहता था। शारीरिक श्रमकी अपेक्षा बौद्धश्रमका महत्त्व अधिक होता था। शारीरिक, बौद्धिक सभी कर्मोंमें अभ्याससे योग्यता बढ़ती है। साथ ही कुछ जन्मजात, जन्मान्तरीय विशेषताएँ भी होती हैं। कभी-कभी समान पिताके पुत्रोंको समान सुविधा तथा शिक्षाका प्रबन्ध रहनेपर भी कोई किसी कार्यमें दक्ष होता है; कोई किसी दूसरे कार्यमें और कोई किसी भी कार्यमें दक्ष नहीं होता। उस दक्षताके तारतम्यसे भी श्रमके मूलका भेद हो जाता है। आधुनिक लोग भी फावड़ा चलानेवाले श्रमिककी अपेक्षा इंजीनियरके श्रमका बहुत ज्यादा मूल्य समझते हैं। यद्यपि फावड़ा चलानेवालेके श्रममें बहुत कठोरता है। इंजीनियरके श्रममें कठोरता नगण्य ही है। कभी श्रमद्वारा निर्मित उपयोगी वस्तुका श्रमनिर्मित दूसरी उपयोगी वस्तुके साथ विनिमय होता है, परंतु कभी श्रमका ही वस्तुके साथ विनिमय होता है। जैसे किसीसे अमुक परिमाणमें कोई उपयोगी वस्तु या रुपया देकर अमुक मात्रामें शारीरिक या बौद्धिक श्रम लिया जाता है। कभी-कभी श्रम-निर्मित उपयोगी वस्तु देकर गाय या बकरी आदि ऐसी वस्तु खरीदते हैं, जिसके बनानेमें श्रम कुछ भी नहीं खर्च होता है। श्रमकी बराबरीके अनुसार दामकी बराबरीकी बात सर्वथा असंगत एवं अव्यावहारिक है। सीसम एवं चन्दनके सिंहासन बनानेमें श्रम समान ही होगा; पर दोनोंके मूल्यमें पर्याप्त अन्तर होता है। लोहेकी थाली एवं सोनेकी थालीमें श्रमके विपरीत मूल्य मिलनेका व्यवहार आज भी प्रचलित है। पहाड़से निकले हुए अपरिष्कृत हीरेमें कुछ भी श्रम नहीं लगा; किंतु लाखों गज कपड़ेके बनानेमें अपेक्षित महान् श्रम भी उसके बराबरका नहीं ठहरता। अत: कहना पड़ेगा कि उपयोग तथा माँगके अनुसार ही वस्तुका मूल्य होता है। यह बात श्रम एवं श्रम-निर्मित पदार्थ दोनोंके ही सम्बन्धमें समानरूपसे लागू होती है। जल, वायु आदि अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी जहाँ पर्याप्त मात्रामें सुलभ होते हैं, वहाँ उनका कोई दाम नहीं है। पर जहाँ कमी होनेके कारण उनकी माँग होती है, वहाँ उनका भी दाम बढ़ जाता है। यदि हीरा भी पानी या बालूके तुल्य पर्याप्त होता और उसकी माँग न होती, तो इतने मूल्यका वह न होता अथवा यदि वह शौकीन धनिकोंकी मानसिक आवश्यकताका पूरक न होता तो भी उसकी कीमत नगण्य ही होती। पहाड़में उत्पन्न होनेवाली विभिन्न वस्तुओंके मूल्यमें जो कच्चे मालके रूपमें है; पर्याप्त अन्तर है। इसी प्रकार जंगलमें स्वत: उत्पन्न विभिन्न प्रकारकी औषधियों, लकड़ियों तथा हिरण, गाय, हाथी, बाघ, बकरे आदि पशुओंके, जिनमें मनुष्यका कुछ भी श्रम खर्च नहीं हुआ है, दामोंमें पर्याप्त अन्तर है, परस्पर विनिमय भी हो सकता है। यह विनिमय श्रमकी बराबरीके आधारपर नहीं; किंतु उपयोगिता एवं माँगके आधारपर ही है, ऐसा कहना पड़ेगा। वस्तुके महत्त्व, अल्पता, बहुलताके साथ, उपयोग एवं माँगका सम्बन्ध रहता है। एक ज्ञानशून्य मनुष्य और बकरेके लिये रोटी या नीमकी पत्तीका जो महत्त्व है, वह हीरेका नहीं। जो वस्तु जिसके बाह्य या आन्तरिक आवश्यकताओं, इच्छाओंकी पूरक होती है, उसके प्रति ही उसकी कीमत होती है। कभी-कभी एक गिलास पानी या एक टुकड़ा रोटी भी सैकड़ों हीरेके बराबर ठहरती है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं—‘संपति सगरे जगत की, स्वासा सम नहिं होइ।’ सारे संसारकी सम्पत्ति एक श्वासके बराबर नहीं होती। यदि कोई गुणी करोड़ों हीरा लेकर भी मरणकालमें श्वास लौटा दे, तो यह सौदा महँगा नहीं समझा जाता।
वस्तुत: मार्क्स श्रमको ही आमदनी या मूल्यका आधार मानकर, प्राकृतिक वस्तु या कच्चे मालके उत्पादनका महत्त्व घटाकर मजदूर-राज्यका औचित्य सिद्ध करना चाहता है; परंतु उपर्युक्त कथनानुसार यही कहा जा सकता है कि मूल्यमें श्रम भी कारण है। जैसे श्रम बिना कभी मशीन एवं कच्चे माल तथा भूमि-खान आदि अन्य प्राकृतिक साधन मुर्दे पड़े रहते हैं, वैसे ही श्रम भी उपयुक्त साधनोंके बिना निरर्थक ही रह जाता है। काम लेनेवाला न हो तो कामका कुछ भी फल नहीं होता। काम लेनेवाला तथा दाम देनेवाला न मिलनेसे ही बेकारीका प्रश्न उठता है। यह ऊपर कहा ही जा चुका है कि अनेकों ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनके उत्पादनमें श्रम कुछ नहीं हुआ और उनका उपयोग-मूल्य एवं विनिमय-मूल्य दोनों ही होता है। कोई भी कार्य लाभके लिये ही किया जाता है; तभी अति समान वस्तुका विनिमय नहीं होता। अर्थात् एक मन गेहूँका उसी ढंगके एक मन गेहूँके साथ विनिमय नहीं किया जाता। यातायातके द्वारा देशान्तर, कालान्तरके सम्बन्धसे क्रय-विक्रय या विनिमय लाभके लिये ही होते हैं। जैसे भारतका जूट विदेशोंमें विशेष मूल्य देता है; मार्गशीर्षका चावल श्रावणमें अधिक मूल्यवान् हो जाता है। अपनी आवश्यकतासे अधिक उत्पादन होने एवं अन्य वस्तुओंकी अपेक्षा होनेसे ही विनिमय या क्रय-विक्रयकी बात चलती है। अतएव खेती, मजदूरी और नौकरीके धन्धेके समान ही क्रय-विक्रयका एक धन्धा है। यदि उससे लाभ की सम्भावना न हो तो उसमें कोई प्रवृत्त ही क्यों हो?


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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