9. मार्क्स-दर्शन
मार्क्स प्रयोग तथा अनुभवद्वारा प्राप्त ज्ञानको ही वास्तविक ज्ञान मानता है। ‘डाइलेक्टिस’ (द्वन्द्वमान)-की चर्चा हम पहले कर आये हैं। यह एक यूनानी शब्द है, जिसका अर्थ है दो मनुष्योंका वार्तालाप। इसमें एक तर्ककी स्थापना की जाती है, फिर उसका खण्डन होता है, जिससे नये तर्ककी उत्थापना होती है। इस प्रकार एक नीचे दर्जेके सत्यसे ऊँचे दर्जेके सत्यपर पहुँचते हैं। यह एक क्रमोन्नतिकी प्रक्रिया है, इसमें स्थिरता नहीं है, वेग है। यही प्रक्रिया सारी प्रकृतिमें वर्तमान है। मानव-समाज और प्रकृतिके इतिहाससे ही द्वन्द्वमानके नियम निकाले गये हैं। ये नियम व्यापकरूपसे सब प्रकारकी गतिके नियम हैं। इनमें तीन मुख्य हैं, १-परिमाणका गुणमें तथा गुणका परिमाणमें परिवर्तन करनेका नियम, २-विरोधियोंके अन्त:प्रवेशका नियम तथा स्वयं विपरीतानुवर्तनका नियम और ३-प्रतिषेधके प्रतिषेधका नियम। इन तीनों नियमका विस्तार हीगेलने विचारके नियमोंके रूपमें किया है। पहला नियम उसके तर्कशास्त्रके पहले खण्डमें है, जिसका नाम है अस्तित्वका सिद्धान्त (डाक्ट्रिन ऑफ बीइंग्स)। दूसरा नियम दूसरे खण्डमें है, जिसका नाम है सत्ताका सिद्धान्त (डाक्ट्रिन ऑफ एसेन्स)। तीसरा नियम है, उसकी सारी प्रथाका बुनियादी नियम। मार्क्स इन नियमोंको प्राकृतिक नियमोंके रूपमें देखता है।
‘पहला नियम जिसे हम यों कह सकते हैं कि प्रकृतिमें गुणात्मक परिवर्तन भूत या गतिके परिमाणमें कमी या बेशीके कारण होता है। प्रकृतिमें गुणोंका प्रभेद निर्भर है रासायनिक संघटनके प्रभेद नियमपर या गति या शक्तिके परिमाण या रूपपर। इसलिये भूत या गति घटाये-बढ़ाये बिना किसी वस्तुके गुणोंमें परिवर्तन करना सम्भव नहीं। दूसरे नियमकी पूर्ति हम यों भी कर सकते हैं कि हर एक वस्तु दो विरोधी भावोंका संयोग है; अर्थात् हर वस्तुमें और वस्तु-चिन्तन क्रियाके लिये भी यही लागू है। दोनों पहलू हैं, भावात्मक और अभावात्मक; धनात्मक और ऋणात्मक। दूसरे शब्दोंमें सत्य विरोधात्मक है। अतिभौतिकवादी इस सहज सत्यकी उपलब्धि नहीं कर सकता, इसलिये कि वह हर वस्तुको स्थिररूपमें देखता है। लेकिन यह जगत् और इसके पदार्थ सदा चंचल हैं।’
‘पीछे हमने देखा है कि गतिमात्र इस प्रकारके विरोधात्मक सत्यका उदाहरण है। किसी वस्तुके स्थानपरिवर्तनको हम यों ही समझ सकते हैं कि वह वस्तु एक ही समयपर एकाधिक स्थानपर है तथा एक ही स्थानपर है भी और नहीं भी है। इस विरोधाभासका हल है गति।’
अध्यात्मवादीका इस सम्बन्धमें कहना है कि द्वन्द्वमान कोई व्यापक या स्थिर सिद्धान्त नहीं है; क्योंकि विचार करनेपर वह वाद-विवाद, तर्क-प्रतितर्कमें भी सही नहीं उतरता। तर्कके सम्बन्धमें यही कहा जा सकता है कि वह प्रमाणान्तरोंके समान प्रतिष्ठित नहीं होता। कोई तार्किक अपने तर्कसे एक वस्तुको प्रतिष्ठित करता है, दूसरा कोई उससे भी बड़ा तार्किक और उत्कृष्ट तर्कसे पहले तर्कको तर्काभास सिद्ध करके प्रथमतर्कसिद्ध व्यवस्थाका खण्डनकर अन्य उत्कृष्ट व्यवस्थाको प्रतिष्ठित करता है। इसी प्रकार उत्तरोत्तर खण्डन-मण्डन चलता रहता है—‘यत्नेनानुमितोऽप्यर्थ: कुशलैरनुमातृभि:। अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते॥’ परंतु इस तरह तो तर्क ही अप्रतिष्ठित ठहरते हैं, फिर उनके द्वारा किसी भी अर्थकी सिद्धि नहीं हो सकती। फिर तो तर्कद्वारा किसी भी सत्यपर पहुँचना सम्भव नहीं है, परम सत्यतक पहुँचनेकी बात तो दूर रही। अनवस्थित तर्कके आधारपर ही द्वन्द्वमान सिद्धान्त बनानेका प्रयत्न किया जाता है, किंतु अनवस्थित तर्क किसी भी सत्यका बोधक नहीं हो सकता। अत: ऐसे आधारपर आधारित द्वन्द्वमानके आधारपर किसी सिद्धान्तपर पहुँचना कैसे सम्भव है?
यद्यपि रामराज्यवादी तर्कको सर्वथा अप्रतिष्ठित नहीं मानते। वे कहते हैं कि कतिपय तर्कोंका अप्रतिष्ठितत्व देखकर ही तर्कजातीय होनेसे विमत तर्कका भी अप्रतिष्ठितत्व अनुमित किया जाता है, परंतु यदि सभी तर्क अप्रतिष्ठित हैं तो तर्कोंका अप्रतिष्ठितत्व सिद्ध करनेवाला तर्क भी अप्रतिष्ठित ही होगा। फिर स्वत: अप्रतिष्ठित तर्कके बलपर तर्कोंका अप्रतिष्ठितत्व कैसे सिद्ध होगा? इस तरह कहना होगा कि सत्यबोधक तर्क या प्रमाणान्तरसंवादी तर्क अप्रतिष्ठित नहीं होता। जो तर्क प्रतिष्ठित होता है, वह तो निश्चितरूपसे वस्तु-तत्त्वका बोधक होता है। फिर उसका तर्कान्तरसे खण्डन भी नहीं हो सकता और न उसके द्वारा सिद्ध विषयका ही खण्डन हो सकता है। न उससे उत्कृष्ट तर्कका उत्थान होता है और न उसके द्वारा उत्कृष्ट सत्यके सिद्धकी ही आशा रहती है। सुतरां प्रत्यक्ष एवं आगममें इस न्यायका संचार नहीं हो सकता; क्योंकि किसी भी तर्कान्तर या प्रमाणान्तरसे निर्दोष प्रत्यक्षागमका बोध नहीं होता। इस तरह जब विचार या तर्कके स्वजातीय, विजातीय प्रमाणोंमें ही खण्डन-मण्डन, साधन-बाधनकी परम्परा नहीं चलती, तब भौतिक विषयोंमें द्वन्द्वमान सिद्धान्तरूपसे कैसे लागू होगा?
परिमाणका गुणमें परिवर्तन तथा गुणका परिमाणमें परिवर्तनका नियम अवश्य कहीं उपलब्ध हो सकता है, परंतु यह नियम अव्यभिचरित नहीं है। मृत्तिकासे घट, तन्तुसे पट बनता है; प्रकृतिमें जलानयन, अंगप्रावरण, शीतापनयनका सामर्थ्य नहीं होता, परंतु कार्योंमें यह सब होता है। यहाँ मूलकारणसे भिन्न किसी भी वस्तु-अन्तरका प्रवेश नहीं है, फिर भी कारणसे कार्यकी भिन्नता नहीं होती। जैसे शिविकावाहक प्रत्येक रूपसे मार्गदर्शनादि कार्य करते हैं, किंतु मिलकर शिविकावहन कार्य करते हैं। इसी तरह तन्तु आदि जो कार्य नहीं कर पाते, वह कार्य तन्तुनिर्मित पटादि कर सकते हैं। इसी तरह वेदान्तरीतिसे शब्दगुणवाले आकाशसे उत्पन्न वायुमें शब्द, स्पर्श दो गुण हो जाते हैं। फिर वायुसे उत्पन्न तेजमें शब्द, स्पर्श, रूप तीन गुण हो जाते हैं। तेजसे उत्पन्न जलमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस चार गुण हो जाते हैं। जलसे उत्पन्न पृथ्वीमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध पाँच गुण होते हैं। पृथ्वी जलमें, जल तेजमें जब लीन हो जाता है, तब गुणोंकी कमी होती जाती है। परमकारण स्वप्रकाश ब्रह्म चेतन सर्वथा निर्गुण एवं निर्विशेष माना जाता है। कार्यकी ओर चलनेसे गुणों और विशेषणोंमें वृद्धि होती है। कारणकी ओर जानेसे निर्गुणता, निर्विशेषताकी वृद्धि होती जाती है; फिर भी कारणसे भिन्न कार्य स्वतन्त्र सत्तावाला नहीं होता। संकुचित एवं प्रसारित पटमें एवं संकुचितांग, विकसितांग, कूर्ममें भेद प्रतीत होने, कारण-कार्यमें विलक्षणता प्रतीत होनेपर भी वास्तवमें भेद नहीं है। कार्यान्तरका भेद भी शिविकावाहकोंके मार्गदर्शन एवं शिविकावाहनके दृष्टान्तसे दिखाया जा चुका है। शब्द-स्पर्शादि गुण तथा समवाय-सामान्यविशेष आदि भी मूल द्रव्यकी अवस्थाविशेष ही हैं, वस्तुत: उनसे भिन्न नहीं हैं।
तापगुणकी वृद्धि होते-होते जलका द्रवत्व समाप्त हो जाता है और तापका ह्रास होते-होते जल बर्फ बन जाता है। तापवृद्धिसे जलके परिमाणमें कमी आती है। वेदान्त-रीतिसे तेजसे ही जलकी उत्पत्ति होती है; अत: तेजमें उसका विलय होना कोई अनहोनी बात नहीं है।
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘संख्यानुगुणित डिफरेन्शियल कैल्कुलस यह मानकर चलता है कि एक ही रेखा ऋजु और वक्र दोनों है और इस बुनियादपर जो नतीजे निकलते हैं, उनका हम व्यावहारिक उपयोग करते हैं। एक असीम व्यासके वृत्तके परिधिका एक छोटा अंश ऋजु रेखा है, लेकिन एक वृत्तके अंशके नाते यह रेखा वक्र भी है। इसी प्रकारका एक दूसरा उदाहरण भी है—दो ऋजु रेखाएँ यदि किसी बिन्दुपर मिलती हैं, तो यह सिद्ध किया जा सकता है कि उस बिन्दुसे थोड़ी ही दूरपर ये दोनों रेखाएँ असमानान्तर हैं। गणितहीमें और यह एक विरोधाभास है कि किसी संख्याके वर्गमूलको उसके वर्गफलके रूपमें प्रकाशित किया जाय, जैसे—क १/२= २ इससे भी अधिककी कोई ऋणात्मक संख्या किसी संख्याका वर्ग हो सकती है; क्योंकि वर्गीकरणका यह साधारण नियम है कि ऋणात्मक संख्याका वर्ग धनात्मक होता है। लेकिन -१ गणितका एक आवश्यक अंग है; खण्डीकरण; (फैक्टराइजेशन)-का उदाहरण—क२-ख२=(क+ख) (क-ख) सूत्रसे (९-१)=(३२-१२)=(३+१) (३-१)।’
‘भौतिक विज्ञानमें विरोधियोंके ऐक्यका उदाहरण है अणु, स्वयं तड़ितकी अणुमें क्रिया-प्रतिक्रिया नहीं है। लेकिन यह जिन अंशोंसे बनता है, उसमें एक धनतड़ितात्मक है, ‘प्रोटान’ और दूसरा ऋणतड़ितात्मक है, ‘इलेक्ट्रान’, जीवन तो सर्वथा विरोधमय है। वह हर समय कुछ है और कुछ अन्य भी है। ज्यों ही इस विरोधका अन्त होता है, जीवनका भी अन्त हो जाता है। विचारक्षेत्रमें यह विरोध विद्यमान है। मनुष्यकी ज्ञानशक्ति अपरिसीम है, लेकिन उसका वास्तविक ज्ञान सीमाबद्ध है।’
अब परिमाणके गुणात्मक परिवर्तनके कुछ उदाहरण ले लीजिये।
भौतिक विज्ञानके क्षेत्रमें सबको विदित है कि आलोक-तरंग एक प्रकारके ‘इलेक्ट्रो मैगनेटिक’ तरंग हैं। इन तरंगोंकी लम्बाइयोंके घटने-बढ़नेके कारण विभिन्न प्रकारकी रश्मियोंकी उत्पत्ति होती है। जो आलोक मनुष्यकी आँखोंमें दिखायी पड़ता है, वह इन तरंगोंका एक छोटा हिस्सा है। जिन रश्मियोंको हम देखते हैं, वे मुख्य सात रंगकी हैं, जो आरम्भ होती हैं लालसे और जिनका अन्त होता है बैगनीसे। लालके उधर इन तरंगोंकी लम्बाई बढ़ती जाती है और बैगनीके उधर यह लम्बाई घटती जाती है। एक साधारण उदाहरण है—‘वस्तुकण’ ‘मोलेकुल’ के अन्तिम विभाजनपर परमाणु ‘ऐटम’ की उत्पत्ति; परमाणु और वस्तुकणके गुणोंमें बहुत प्रभेद है।
वस्तुत: जिन उदाहरणोंको विरोधियोंकी सह-अवस्थितिके सम्बन्धमें उपस्थापित किया गया है, वे विरोधी कहे ही नहीं जा सकते, अपेक्षाबुद्धिसे ही ये विरोध भासित होते हैं, परंतु वस्तुविरोध पुरुषबुद्धिपरतन्त्र नहीं होता। वास्तविक विरोध है भाव-अभावका, तेज-तिमिरका, सत्-असत्का; इनमें परस्पर तादात्म्य या संयोगादि सम्बन्ध नहीं हो सकता। यों तो जैसे एक ही पुरुष विभिन्न अपेक्षाबुद्धियोंसे पिता, पति, पुत्र आदि रूपमें व्यवहृत होता है, फिर भी उसमें वस्तुत: भेद नहीं है, वैसे ही रेखामें ऋजुत्व, वक्रत्व आदि अपेक्षाबुद्धिकृत भेद है। वस्तुत: वह एक साधारण रेखा है, यह स्थिति है।
मार्क्सके विरोधियोंका सहअस्तित्व एक प्रकारसे अनेकान्तवादसे मिलता-जुलता है। इसे भी एक प्रकारसे अनेकान्तवाद ही कहा जा सकता है। इसका विचार हमारे यहाँके दर्शनोंमें विस्तारसे है। ‘स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादवक्तव्य: स्यादस्ति चावक्तव्यश्च स्यान्नास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च।’ अर्थात् हर वस्तुमें यह सप्तभंग न्याय जोड़ा जाता है। यह वस्तु किसी तरह है, किसी तरह नहीं है। किसी तरह है भी, नहीं भी है। किसी तरह अवक्तव्य है, किसी तरह है भी और अवक्तव्य भी है, किसी तरह नहीं भी है और अवक्तव्य भी है, किसी तरह है भी नहीं भी है, अवक्तव्य भी है, किसी पदार्थकी नित्यताका एकता आदिके सम्बन्धमें भी ये सप्तभंग जोड़े जाते हैं।
इसपर विचारणीय बात यह है कि एक वस्तुमें युगपत् सत्त्व तथा असत्त्व-विरुद्ध धर्मका होना असम्भव है। जैसे एक ही वस्तु समानरूपसे शीत और उष्ण नहीं कही जा सकती। वस्तुत: जो वस्तु सत्य है, वह सर्वथा, सर्वदा, सर्वरूपसे है ही-जैसे परमात्मा। जो कहीं, कभी, किसी रूपसे है, किसी रूपसे नहीं है, वह वस्तुत: असत् ही है। ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’ (गीता २।१६) असत्का सत्त्व एवं सत्त्वका कभी अभाव नहीं हो सकता। प्रत्यय (बोध) मात्र वस्तुतत्त्वका व्यवस्थापक नहीं होता। शुक्ति, रजत, मरीचिमें जल आदिका प्रत्यय भी प्रत्यय ही है, परंतु मिथ्या वस्तुका ही व्यवस्थापन करता है। यदि कहा जाय कि जिस प्रत्ययमें लौकिक दृष्टिसे बाध न हो उसे सत्य मानें, तो यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि लौकिक दृष्टिसे देह ही आत्मा है, इस प्रत्ययका बाध नहीं होता। फिर भी देहभिन्न आत्मा प्रमाणसिद्ध है ही। वस्तुमें विकल्प नहीं हो सकता, अत: एक वस्तुमें ही सत्त्व, असत्त्व दोनों धर्म नहीं हो सकते।
यदि यह अनेकान्तवाद सब वस्तुमें मान लिया जाय तो प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय एवं अनेकान्तवाद आदिके सम्बन्धमें भी यही अनेकान्तवाद जोड़ा जा सकता है। अर्थात्, ‘यह अनेकान्तवादका पक्ष ‘कथंचित् सत्य है, कथंचित् असत्य है,’ इत्यादि। तब तो अनिर्धारित ज्ञान संशय-ज्ञानके तुल्य अप्रमाण ही माना जायगा। यदि कहा जाय कि नहीं, अनेकान्तवाद सिद्धान्त निर्धारित स्वरूप ही है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि जब सभी वस्तु अनेकान्तिक है, तब तो वस्तु होनेसे अनेकान्तवादमें भी अनेकान्तिकता अनिवार्य ही है। अत: अनिर्धारित प्रमाता, अनिर्धारित प्रमाण, अनिर्धारित प्रमेय, अनिर्धारित साधन, अनिर्धारित साध्यके आधारपर व्यवहार भी कैसे सम्पन्न होगा?’
विकासवाद परिणामवादमें आ जाता है। मूल वस्तुमें भेद, अन्तर्विरोध एवं कार्यमें वस्तुत: भेद होता है या नहीं, इसपर विचारणीय यह है कि वस्तु सर्वरूपसे परिणत होती है या एक देशसे? सर्वरूपसे परिणत होती है, तब तो पूर्णरूपका सर्वथा त्याग होनेसे उसे तत्त्वान्तर ही कहना चाहिये, परंतु ऐसा व्यवहार नहीं होता। यदि वस्तुके एकदेशका परिणाम होता है, तो प्रश्न होगा कि वह एकदेश वस्तुसे भिन्न है या अभिन्न? भिन्न है तो उस वस्तुका परिणाम कैसे हुआ? अभिन्न है तब तो एक देश भी वस्तुसे अभिन्न होनेसे उसका परिणाम वस्तुका ही सर्वरूपसे परिणाम हुआ। फिर भी पूर्वोक्त दोष ही होगा। कुछ लोगोंके मतानुसार एक देशको वस्तुसे भिन्नाभिन्न कहा जाता है, अर्थात् कारणरूपसे अभिन्न एवं कार्यरूपसे भिन्न। जैसे सुवर्णरूप कटक-कुण्डलादि अभिन्न हैं, परंतु कटक-कुण्डलादिरूपसे भिन्न ही हैं। भेदाभेदका एकत्र होना विरुद्ध है, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि प्रमाण-विपरीत प्रतीति ही विरोध है। जो वस्तु प्रमाणसे जैसी प्रतीत होती है, उसे तो वैसे उसी रूपमें मानना चाहिये। ‘कुण्डलमिदं सुवर्णम्’ यह कुण्डल सुवर्ण है, इस प्रकारके समानाधिकरणके प्रत्ययमें भेद, अभेद-दोनों ही प्रतीत होते हैं। यदि यहाँ सुवर्ण-कुण्डलका अत्यन्त अभेद हो, तब तो दोनोंमेंसे किसी एककी ही दो बार प्रतीति होनी चाहिये। यदि दोनोंका अत्यन्त भेद हो, तब तो समानाधिकरण-प्रत्यय नहीं होना चाहिये। अश्व-गोका अत्यन्त भेद है। उनका समानाधिकरण प्रत्यय नहीं होता। आधाराधेयभावमें ‘कुण्डे बदरम्’ ‘कुण्डमें बेर है’, ऐसा प्रत्यय होता है। ‘कुण्ड बेर है’, ऐसा प्रत्यय नहीं होता। एकाश्रयाश्रितोंमें भी समानाधिकरण प्रत्यय नहीं होता अर्थात् एक आसनपर स्थित चैत्र-मैत्रमें चैत्र और मैत्र ऐसा प्रत्यय होता है। चैत्र मैत्र है, ऐसा प्रत्यय नहीं होता। अत: कार्यका कारणरूपसे अभेद होता है। इस तरहके असंदिग्ध अबाधित सार्वजनिक अनुभवसे सद्रूपकारण सर्वत्र अनुगत है। इसलिये सद्रूपसे सबका अभेद है। गो, घट आदिमें कार्यरूपसे भेद है। ‘कार्यरूपेण नानात्वमभेद: कारणात्मना। हैमात्मना यथाभेद: कुण्डलाद्यात्मना भिदा।’
परंतु विचार करनेसे यह पक्ष अनुचित प्रतीत होता है। भेद क्या वस्तु है, जो अभेदके साथ रहता है? यदि अन्योन्याभावको ही भेद कहा जाय, तो भी यह देखना है कि क्या कार्य-कारण कुण्डल और सुवर्णमें यह अन्योन्याभावरूप भेद है? यदि नहीं है, तब तो कार्य-कारणका अभेद ही हुआ, भेद नहीं हुआ। यदि है, तब तो कार्य-कारणका भेद ही रहेगा, अभेद नहीं हो सकेगा। यदि कहा जाय कि भाव एवं अभावका विरोध ही नहीं, तो यह कथन भी ठीक नहीं; क्योंकि भाव-अभावका एकत्र अवस्थान नहीं होता। यदि दोनोंकी सहावस्थिति मानी जाय, तब तो कटक-कुण्डलका भी तात्त्विक ही अभेद होना चाहिये; क्योंकि आप भेद-अभेदकी एक साथ अवस्थिति मानते ही हैं, किं च यदि कटक हाटकसे अभिन्न है तो जैसे हाटकरूपसे कटक-मुकुटादि अभिन्न हैं, वैसे ही कटकरूपसे भी कटकमुकुटादिको अभिन्न होना चाहिये; क्योंकि कटक हाटकसे भिन्न है, इस तरह हाटक ही वस्तु ठहरती है, कटकादि नहीं।
यदि कहा जाय कि हाटकरूपसे अभेद है, कटक आदिरूपसे तो भेद है ही। परंतु जब कटक हाटकसे अभिन्न है, तब कुण्डलादिमें हाटकके समान ही कटककी अनुवृत्ति क्यों नहीं है। यदि अनुवृत्त नहीं होता तो कटक सुवर्णसे अभिन्न कैसे समझा जाता है? जिसके अनुवर्तमान होनेपर जो व्यावृत होते हैं, वह उससे भिन्न होते हैं, जैसे मालामें सूत्र अनुवृत्त होता है, पुष्प व्यावृत्त होते हैं, अत: सूत्रसे पुष्प भिन्न हैं। हाटकके अनुवर्तमान होनेपर भी कुण्डलादिमें कटकादि अनुवृत्त नहीं हैं, अत: हाटकसे कटकादि भिन्न ही ठहरते हैं।
सत्तामात्रकी अनुवृत्तिसे कटककी अनुवृत्ति मानें, तब तो सभी वस्तु सर्वत्र अनुगत हो सकती है। फिर तो ‘इदमिदं नेदम्, इदमस्मान्नेदम्, इदमिदानीं नेदम्’—यहाँ यह है, यहाँ यह नहीं है; इससे यह उत्पन्न होता है, यह नहीं होता है; इत्यादि विभाग ही नहीं बन सकेगा। फिर तो किसीका किसीसे विवेकका कोई हेतु ही न रहेगा। किं च दूरसे सुवर्णमात्रका ज्ञान हो जानेपर भी कुण्डल मुकुटादि विशेषकी जिज्ञासा होती है, परंतु यदि कुण्डलादि सुवर्णसे अभिन्न ही हैं, तो सुवर्णका ज्ञान हो गया, फिर जिज्ञासा क्यों होनी चाहिये? हाँ, यदि कनकसे कुण्डलादिका भेद है, तब तो कनकके विज्ञात होनेपर भी वे अज्ञात तथा जिज्ञास्य हो सकते हैं। अगर भेद-अभेद दोनों ही हैं तो जैसे भेदके कारण कुण्डलादि अज्ञात हैं, वैसे ही अभेदके कारण ज्ञात क्यों न होने चाहिये? कारणके अभावमें कार्यका अभाव स्वाभाविक है। जब ज्ञानका कारण अभेद है तो सुवर्णके ज्ञानसे सुवर्णाभिन्न कुण्डलादिका ज्ञान होना ही चाहिये। फिर तो कुण्डलादिकी जिज्ञासा और ज्ञान आदि होना व्यर्थ ही है। जिसके गृहीत होनेपर जो नहीं गृहीत होते, वे उससे भिन्न ही होते हैं। जैसे हाथीके गृहीत होनेपर गर्दभ नहीं गृहीत होता; अत: हाथी गर्दभसे भिन्न है। उसी तरह हेमके ग्रहण होनेपर भी कटक, मुकुट, कुण्डलादि नहीं गृहीत होते; अत: सुवर्णसे कटकादि भिन्न हैं, तथापि ‘सुवर्ण कुण्डल, कुण्डल सुवर्ण है’, इस प्रकारका समानाधिकरण-व्यवहार भी होता है। यह अत्यन्त भिन्न अश्व-महिषमें नहीं होता। आधाराधेय या समानाश्रयमें भी समानाधिकरण नहीं होता। यह ऊपर कहा जा चुका है कि अनुवृत्ति, व्यावृत्ति एवं सुवर्णज्ञान होनेपर भी कुण्डलादिकी जिज्ञासा कैसे बन सकेगी? वास्तविक भेद एवं अभेद दोनोंकी एकत्र उपपत्ति हो नहीं सकती। अत: भेद या अभेद किसीका त्याग करना ही होगा। अत: अभेदको तत्त्वभूत अधिष्ठान मानकर उसीमें कल्पित भेद मानकर सब व्यवस्था हो सकती है। भेदोपादानाभेद कल्पना कहनेके लिये भेदको स्वतन्त्र सिद्ध होना चाहिये, परंतु भेद भिन्न वस्तुओंके परतन्त्र होता है। वस्तुएँ प्रत्येक रूपसे एक ही हैं। अत: एक नहीं होगा, तो तदाश्रितभेद सिद्ध ही नहीं होगा, परंतु एक भिन्नके अधीन नहीं होता। ‘नायमयम्’ अमुक नहीं है। इसी तरह भेदज्ञान प्रतियोगिज्ञान-सापेक्ष होता है, किंतु एकत्वग्रहणमें किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं होती।
मार्क्सवादी चैतन्यको भूतोंका गुणात्मक परिणाम मानते हैं। यहाँ भी यह प्रश्न होगा कि ‘चैतन्य भूतोंमें प्रथमसे विद्यमान था, केवल उसकी अभिव्यक्ति हुई है अथवा भूतोंमें अविद्यमान था, अत: अविद्यमानकी उत्पत्ति हुई है?’ अविद्यमानकी उत्पत्ति असत्कार्यवादी वैशेषिकोंकी ही दृष्टिसे मान्य होती है, परंतु वह सर्वथा असंगत ही है। इस सम्बन्धमें सांख्यवादियोंका यह कहना है कि उस शक्त कारणकी शक्ति शक्य कार्यमें ही रहती है या सर्वत्र रहती है? यदि सर्वत्र रहती है तो वही अवस्था सर्वत्र बनी रहेगी। यदि शक्यमें ही रहती है तो यदि शक्य घटादिकार्य असत् है, तो उसमें शक्ति कैसे कही जा सकती है; क्योंकि असत्का कोई सम्बन्ध ही नहीं बनता।
यह भी नहीं कहा जा सकता कि शक्तिभेद ही इस प्रकारका होता है, जो किसी कार्यको उत्पन्न करता है, सब कार्यको नहीं; क्योंकि यहाँ भी वही प्रश्न होगा कि शक्तिविशेष कार्यसे सम्बद्ध रहता है या असम्बद्ध? यदि सम्बद्ध कहा जायगा तो असत्के साथ सम्बन्ध हो नहीं सकता; अत: कार्यको सत् ही कहना पड़ेगा, असम्बद्ध कहेंगे तो वही अव्यवस्था आयेगी। जैसे मिट्टी, तन्तु आदिके रहनेपर ही घट-पट आदिकी उपलब्धि होती है, तद्वत् कारणके भावमें ही कार्यकी उपलब्धि होती है, अतएव कार्य कारणसे अनन्य अभिन्न है। जहाँ अश्व, गो आदिका भेद होता है, वहाँ दूसरेके भानमें ही दूसरेकी उपलब्धिका नियम नहीं होता। अत: यदि कार्य कारणसे भिन्न होता तो कारणकी उपलब्धिमें कार्योपलब्धिका नियम न होता, किंतु यहाँ ऐसा नियम है, अत: कारणसे भिन्न कार्य नहीं होता। अत: जब कारण सत् तब कार्य सत् होना चाहिये। कुलालादिका घटसे भेद है; अत: वहाँ कुलालादि होनेमें घट होनेका नियम नहीं है; क्योंकि निमित्त-नैमित्तिक भाव रहनेपर भी भिन्नता निश्चित है।
कहा जा सकता है कि ‘अग्निके भावमें ही धूमकी उपलब्धि होती है, तब भी वह्नि-धूमका भेद होता है। वैसे ही मृत्तिकादि कारणके रहनेपर घटादि कार्यकी उपलब्धि होनेपर भी उनका परस्पर भेद नहीं रहेगा’ परंतु यह ठीक नहीं है; क्योंकि अग्नि बुझ जानेपर भी वातायनशून्य गोपाल-कुटीर आदिमें धूमका उपालम्भ होता है। यदि अविच्छिन्नमूल दीर्घरेखावस्थ धूमके साथ वह्निके साहचर्यका नियम बनायें तो दोष नहीं है; क्योंकि ‘तद्भावे तद्भावात् तदुपलब्धौ तदुपलब्धेस्तदनन्यता’ उपादान कारणके भावमें कार्यका भाव तथा उसकी उपलब्धिमें उपलब्धि होनेसे उसकी अनन्यता होनेका नियम है, अत: अभेद है। इसके अतिरिक्त प्रत्यक्षसे ही तन्तु आदि कारण ही पट आदि कार्य निश्चित होते हैं। तन्तुसे भिन्न पट नामकी वस्तु कुछ नहीं है, अर्थात् ‘तद्भावनीयतद्भावत्वे सति तद्बुद्धॺानुरक्तबुद्धविषयता’ ही अभेदका कारण है। अर्थात् तद्भावमें तद्भाववाला होकर तदनुरक्त बुद्धिका विषय होना ही अभेदका कारण है, जैसे मृत्तिकादिक कारणके रहनेपर ही घटादि कार्य रहता है और मृत्तिकाबुद्धिके साथ ही घटबुद्धि होती है। अत: मृत्तिका और घटका अभेद ही समझना चाहिये। वह्नि-धूममें ‘तद्भावे तद्भाव:’ होनेपर भी ‘उपलब्धावुपलब्धे:’ का नियम नहीं है। प्रभा और रूपमें सहोपलब्धिका निमय होनेपर भी सहभावका नियम नहीं है। कारण और कार्यमें ‘तद्भावे तद्भाव:’ ‘उपलब्धावुपलब्धे:’ दोनों ही नियम रहते हैं; अत: कार्यकारणका अभेद रहता है। पट तन्तुका धर्म है, अत: तन्तुसे पट भिन्न नहीं है। जो जिससे भिन्न होता है, वह उसका धर्म नहीं होता—जैसे गो अश्वका धर्म नहीं होता। पट तन्तुका धर्म है, अत: तन्तुसे अर्थान्तर नहीं है। उपादानोपादेयभाव होनेसे भी तन्तुसे पटका अभेद ही सिद्ध होता है। जिनमें भिन्नता होती है, उसमें उपादानोपादेयभाव नहीं होता। जैसे घट-पट—दोनों भिन्न हैं, उनमें उपादानोपादेयभाव नहीं होता। तन्तु-पटका उपादानोपादेयभाव है, अत: दोनोंमें अभिन्नता ही है। दोनोंकी जिनमें भिन्नता होती है, उनमें या तो कुण्ड-बेरके तुल्य संयोग होता है, या हिम-विन्ध्यके तुल्य अप्राप्ति रहती है। तन्तु-पटमें संयोग, अप्राप्ति—दोनों ही नहीं रहते, अत: अभिन्नता ही माननी चाहिये।
तन्तुके गुरुत्व कार्यसे भिन्न तन्तुनिर्मित पटका दूसरा गुरुत्व कार्य नहीं होता, इसलिये भी तन्तु-पटका अभेद ही मानना युक्त है। इन हेतुओंसे सिद्ध होता है कि आतान-वितानात्मक तन्तु ही पट है। फिर भी ‘पट उत्पद्यते, पटो विनश्यति’ इस प्रकार पटकी उत्पत्ति तथा विनाशकी बुद्धि तथा तन्तु एवं पटका व्यवहार और अर्थक्रिया शीतापनयन, अंगप्रावरणादि कार्यक्षमता-भेदसे भी तन्तु-पटका भेद नहीं सिद्ध होता है; क्योंकि ये सभी बातें अभेदमें भी उपपन्न हो सकती है। जैसे कूर्मके विद्यमान अंगोंका ही आविर्भाव-तिरोभाव होता है, वैसे ही विद्यमान घटादि कार्योंका ही मृत्तिकादि कारणोंसे ही आविर्भाव एवं कारणमें ही तिरोभाव होता है। इसी आविर्भाव-तिरोभावमें उत्पत्ति-विनाशकी बुद्धि होती है। अत्यन्त असत्की उत्पत्ति तथा सत्का विनाश नहीं होता। ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।’ जैसे कूर्ममें संकोच-विकासशाली अपने अवयवोंकी भिन्नता नहीं, वैसे ही कारणसे कार्य भी भिन्न नहीं है। ‘तन्तुषु पट:’ तन्तुओंमें पट है—यह व्यवहार भी उसी ढंगका है, जैसे वनमें वृक्ष हैं। वस्तुत: वृक्षोंसे भिन्न वन नहीं है, वैसे ही तन्तुओंसे भिन्न पट नहीं है।
जैसे एक अग्निमें दाहकत्व, प्रकाशकत्व, पाचकत्व आदि कार्यभेद होनेसे भी अग्निमें भेद नहीं होता, उसी तरह कारण मृत्तिका एवं तत्कार्य घटादिसे अनेक कार्योंमें भेद होनेपर भी उनमें भेद नहीं सिद्ध होता। अंगप्रावरण पटसे होता है, तन्तु-पटसे नहीं; पट तन्तुसे ही बनता है, पटसे नहीं; इत्यादि कार्यक्षमताकी व्यवस्था अभेदमें भी समस्त-व्यस्त भेदसे बन जाती है। जैसे व्यस्त पृथक्-पृथक् शिविकावाहक भृत्य मार्ग-दर्शन किया करते हैं और समस्त मिलकर शिविकावहन करते हैं, वैसे ही प्रत्येक तन्तु अंगप्रावरण कार्य नहीं कर सकते, मिलकर वह कार्य कर देते हैं। इस सम्बन्धमें यह भी शंका होती है कि कारण-व्यापारके पहले पटका आविर्भाव सत् था या असत्? असत् था, तब तो उसका उत्पादन कहना पड़ेगा, अगर आविर्भाव भी सत् ही है, तो कारण-व्यापार व्यर्थ होगा; क्योंकि यदि कार्य विद्यमान है तो कारण-व्यापारको कौन आवश्यक समझेगा। आविर्भावका भी आविर्भाव माना जायगा, तब तो अनवस्था-प्रसंग होगा, परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि असत्-कार्यवादमें भी तो इसी ढंगके दोष आते हैं। असत्की उत्पत्ति माननेपर भी यही प्रश्न होगा कि असत्की उत्पत्ति सती है या असती? सती है तो फिर कारण-व्यापार व्यर्थ है। असती है तो फिर असती उत्पत्तिकी उत्पत्ति माननी पड़ेगी और अनवस्था-दोष होगा। यदि उत्पत्ति पटसे भिन्न नहीं है, पटस्वरूप ही है, तब तो पट एवं उत्पत्ति दोनोंका एक ही अर्थ होगा। फिर तो पट उत्पन्न हुआ, यह कहनेसे पुनरुक्ति समझी जानी चाहिये और फिर पट नष्ट होता है, यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योंकि उत्पत्ति और विनाश दोनों ही एक कालमें एकत्रित नहीं रह सकते। इसलिये पटोत्पत्तिको स्वकारणसमवायरूप माना जाय या स्वसत्तासमवायरूप माना जाय? यदि पट असत् है तो दोनों ही नहीं हो सकते; क्योंकि असत्के साथ कारण-सम्बन्ध या सत्ता-सम्बन्ध नहीं बन सकता। सत्का ही कार्य-कारणके व्यापारसे प्रादुर्भाव होता है—यही पक्ष ठीक है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि पटरूपके साथ ही कारण-सम्बन्ध है; क्योंकि पटरूप कोई क्रिया नहीं है। कारकोंका सम्बन्ध क्रियाके ही साथ होता है, क्रिया-सम्बन्ध बिना कारणता ही नहीं हो सकती। अव्यापी सक्रिय अनेक एवं आश्रितपरतन्त्र होता है। जो भी सावयव होता है, वह कार्य होता है, कार्य होनेसे ही सकारण भी होना अनिवार्य है।
इस सम्बन्धमें अनेक पक्ष हैं। अनेकवादी असत्से ही सत्की उत्पत्ति कहते हैं, परंतु निरुपाख्य असत्से शब्दाद्यात्मक प्रपंचोंकी उत्पत्ति कैसे बन सकती है? क्योंकि सत् तथा असत्का कोई भी तादात्म्यादि सम्बन्ध नहीं बन सकता। सांख्य आदि उत्पत्तिसे पहले भी कार्यको सत् ही कहते हैं। अवश्य ही बीज तथा मृत्तिका-पिण्डादि कारणोंके प्रध्वंसके पश्चात् ही अंकुर, घटादिकी उत्पत्ति होती है, तथापि प्रध्वंस कार्यके प्रति कारण नहीं है, किंतु बीज आदिके अवयव ही कारण हैं, अतएव उनकी ही कार्योंमें अनुवृत्ति देखी जाती है। यदि अभावसे भाव उत्पन्न हो, तब तो अभाव सभीको सर्वत्र सुलभ ही है। फिर कार्योत्पत्तिमें बाधा न होनेसे सदा ही कार्योत्पत्ति होती रहनी चाहिये।
यदि कारण-व्यापारसे पूर्व कार्य असत् हो तो वह किसी तरहसे सत् नहीं बनाया जा सकता। सैकड़ों शिल्पियोंके प्रयत्नसे भी नीलरूप पीत नहीं बनाया जा सकता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि सत्त्व-असत्त्व—दोनों ही घटके धर्म हैं; क्योंकि यदि घटधर्मी सत् हो तभी उसके धर्म हो सकते हैं, असत् धर्मीके धर्म कैसे हो सकेंगे? सत्त्व असत्त्व धर्मका आधार माननेपर भी घटादि कार्यको सत् ही कहना पड़ेगा। यदि असत्त्व धर्मका घटकी आत्मा या घटसे सम्बन्ध नहीं है, तो घटको असत् कैसे कहा जा सकता है? तत्सम्बन्धितया तत्स्वरूप होनेसे ही किसी वस्तुमें तद्रूपताकी प्रतीति होती है। अत: कारण-व्यापारके ऊर्ध्व और पहले भी कार्य सत् ही होता है। उसी सत् कार्यकी कारणसे अभिव्यक्ति होती है, जैसे निपीडनद्वारा तिलसे तैल व्यक्त होता है, अवघातद्वारा धान्यसे तण्डुलकी व्यक्ति होती है, दोहनसे गोदुग्ध, उसके मन्थनसे नवनीत अभिव्यक्त होता है, उसी तरह अंकुरादि कार्य भी सत् ही रहते हैं। कारण-व्यापारसे उनकी अभिव्यक्ति सम्भव है, परंतु असत्की उत्पत्तिका कोई भी दृष्टान्त नहीं है। अभिव्यक्त होती वस्तु कहीं भी असत् नहीं देखी जाती।
कार्यके लिये प्रतिनियत उपादान कारणोंका ग्रहण किया जाता है। पटार्थी तन्तु, घटार्थी मृत्तिका, कुण्डलार्थी सुवर्ण ढूँढ़ता है। इससे मालूम पड़ता है कि वे कार्य उन-उन कारणोंसे विशेषरूपसे सम्बद्ध रहते हैं। तभी प्रतिनियत कारण ढूँढ़ना संगत हो सकता है। असत् कार्य होगा तो वह किसीसे कैसे सम्बद्ध होगा? यदि कारणसे असम्बद्ध ही कार्य हो तो असम्बद्धता समान होनेसे सब कार्य सभी कारणोंसे उत्पन्न होने चाहिये। फिर अमुक कार्य अमुक कारणसे उत्पन्न होनेका नियम न होना चाहिये। साथ ही कार्य-कारणकी स्पष्ट ही अव्यवस्था होगी।
कुछ लोग कहते हैं, ‘असम्बद्ध होनेपर भी जो कारण जिस कार्यके उत्पादनमें शक्त होता है, उस कारणसे वही कार्य उत्पन्न होता है। शक्ति फल-बलसे कल्प्य होती है। अर्थात् जिस कारणसे जिस कार्यकी उत्पत्ति होती दिखती है, उस कार्यकी उत्पत्तिकी शक्ति उसी कारणमें है; यह मालूम पड़ता है। अत: अव्यवस्था नहीं होगी।’
सांख्यवादी सत्कार्यवादी होते हुए भी अचेतन प्रकृतिको ही कारण कहते हैं, परंतु वेदान्ती चेतन ब्रह्मको कारण कहते हैं। जो उत्पत्तिके पहले जिस रूपमें होता है, वह उसीसे उत्पन्न होता है। घट मृत्तिका-रूपमें उत्पत्तिसे पहले रहता है; अत: मृत्तिकासे उत्पन्न होता है। तैल उत्पत्तिसे पहले तिल-रूपसे रहता है; अत: तिलसे उत्पन्न होता है। वह सिकता-रूपसे नहीं रहता, अत: सिकतासे नहीं उत्पन्न होता। अत: उत्पत्तिके पहलेका कार्य कारणरूप ही रहता है। उत्पत्तिके पश्चात् भी कार्य कारणसे अभिन्न ही रहता है। इसीलिये श्रुतिने भी इदं पदार्थ कार्य प्रपंचको उत्पत्तिके प्रथम सद्रूप ही बतलाया है—‘सदेव सोम्य इदमग्र आसीत्। असद् वा इदमग्र आसीत्॥’ यहाँ अव्याकृत या अव्यक्त ही असत्-पदसे कहा गया है, कारण असत् किसी कालसे सम्बद्ध नहीं हो सकता। असत्का आसीत्के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता है; क्योंकि आसीत्से सत्ता बोधित होती है तथा च सत्ता एवं असत्का परस्पर विरोध होनेसे असत्का आसीत्के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। संसारमें घट, कुण्डल और दधि चाहनेवाले क्रमेण मृत्तिका, सुवर्ण तथा क्षीर ग्रहण करते हैं। दधि चाहनेवाला मिट्टी या घट चाहनेवाला क्षीर नहीं ढूँढ़ता। यह बात सत्कार्यवादमें ही बनती है। यदि उत्पत्तिके पहले कार्य अत्यन्त असत् हो तो असत् तो सर्वत्र ही अविशिष्ट-रूपसे है, फिर क्षीरसे दधि क्यों उत्पन्न होता है, मृत्तिकासे क्यों उत्पन्न नहीं होता? यदि यह माना जाय कि क्षीरमें ही दधिकी कुछ विशेषता है, मृत्तिकामें ही कुछ घटकी विशेषता है, अन्यत्र नहीं है; अत: क्षीरसे दधि तथा मृत्तिकासे घट उत्पन्न होता है, तब तो उत्पत्तिसे पहले कार्यकी कोई विशेषता मान्य हो ही गयी, फिर असत् कार्यवाद कहाँ रहा?
कारणमें कार्यानुकूल शक्ति माननेपर भी यह विकल्प होगा कि वह शक्ति कारण एवं कार्यसे भिन्न है या अभिन्न? भिन्न है तो भी सती ही है या असती? दोनों ही पक्ष ठीक नहीं हैं; क्योंकि अन्य एवं असत् शश-शृंगादि अन्यके नियामक नहीं होते। कार्य-कारण दोनोंसे जैसे असम्बद्ध अन्य है, वैसे ही शक्ति भी, तथापि शशशृंगवत् असत् हो, तब ऐसी शक्तिके आधारपर क्षीरसे ही दधि उत्पन्न हो, मृत्तिकादिसे घट उत्पन्न हो, यह नियम कैसे बनेगा? अत: शक्तिको कारणकी आत्मभूता एवं कार्यको शक्तिका आत्मभूत मानना चाहिये। इस तरह सत्कार्यवाद तथा कारण-कार्यका अभेद भी सिद्ध हो जाता है। कार्य-कारण एवं द्रव्य-गुणादिमें अश्व-महिषवत् भेदबुद्धि नहीं होती; अत: उनका अभेद मानना चाहिये। इसी प्रकार कार्य-कारणका समवाय सम्बन्ध माना जाय, तब भी प्रश्न होगा कि समवाय एवं समवादियोंका सम्बन्ध है या नहीं? यदि सम्बन्ध मान्य है, तब तो अनवस्था-प्रसंग होगा। सम्बन्ध नहीं है, तो असम्बद्ध समवाय कार्य-कारणका नियामक ही कैसे होगा? यदि समवाय स्वयं सम्बन्धरूप होनेसे सम्बन्धान्तरकी अपेक्षा न करे, वह स्वत: सम्बद्ध होकर नियामक होता है, तो संयोगके सम्बन्धमें भी ऐसा ही क्यों न हो? परंतु नैयायिक आदि संयोगको संयोगियोंसे सम्बद्ध करनेके लिये समवाय-सम्बन्ध मानते हैं। यदि संयोग कार्य है और कार्य समवायिकारणजन्य होता है, अत: वहाँ समवाय आवश्यक है तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि तब तो आत्मा, कालादि नित्य संयोगमें समवाय नहीं अपेक्षित होना चाहिये। किं च सम्बन्धियोंके अधीन ही समवायका निरूपण होता है। फिर भी वह सम्बन्धियोंके भेदसे भिन्न नहीं होता। उनकी उत्पत्ति-विनाशमें उत्पन्न तथा नष्ट नहीं होता, किंतु नित्य एवं एक ही समवाय रहता है, वैसे ही संयोग भी क्यों न हो? किं च कार्य द्रव्य अवयवी है, कारणरूप द्रव्यमें रहता है। यहाँ यह प्रश्न होता है कि सम्पूर्ण अवयवोंमें अवयवी रहता है अथवा व्यस्त पृथक्-पृथक् अवयवोंमें? यदि कहें सम्पूर्णमें, तो अवयवी द्रव्यका प्रत्यक्ष ही नहीं हो सकेगा; क्योंकि समस्त अवयवोंके साथ संनिकर्ष ही अशक्य है। समस्त आश्रयोंमें वर्तमान बहुत्व व्यस्त आश्रयोंके ग्रहणमें नहीं गृहीत होता। यह भी नहीं कहा जा सकता कि अवयवश: समस्त अवयवोंमें कार्य (अवयवी) रहता है; क्योंकि इस तरह तो आरम्भक अवयवोंसे भिन्न अवयवीके अवयव मानने पड़ेंगे, जिनके द्वारा आरम्भक अवयवोंमें अवयवी रहता है। जैसे म्यानके अवयवोंसे भिन्न अपने अवयवोंद्वारा तलवार म्यानमें व्याप्त होती है।
किंतु इस तरह अनवस्था-दोष होगा; क्योंकि उन अवयवोंमें भी रहनेके लिये कार्यके अन्य अवयव मानने पड़ेंगे। यदि प्रत्येक अवयवमें अवयवीको मानें, तब तो एक अवयवमें जब अवयवी रहेगा, उस समय अन्य अवयवोंमें नहीं रहेगा; क्योंकि देखते ही हैं, जब देवदत्त काश्मीरमें रहता है, उसी समय काशीमें नहीं रहता। यदि एक कालमें अनेकों स्थलोंमें अस्तित्व कहा जायगा तो अवश्य ही अवयवीका नानात्व हो जायगा। जैसे काशी, काश्मीरमें रहनेवाले चैत्र, मैत्र अनेक ही होते हैं। फिर भी कहा जाता है कि जैसे गोत्व जाति प्रत्येक व्यक्तिमें होनेपर भी प्रत्येकमें गृहीत होती है, फिर भी एक ही है। उसी तरह अवयवी प्रत्येक अवयवमें रहते हुए उपलब्ध होगा और एक ही रहेगा, परंतु यह सब कथन भी ठीक नहीं; क्योंकि यदि प्रत्येक अवयवमें अवयवी पूर्णरूपसे उपलब्ध होगा, तब तो गोके शृंगसे भी स्तनका कार्य एवं पुच्छसे पृष्ठका कार्य होना चाहिये, किंतु ऐसा होता नहीं, अत: कारणसे अभिन्न ही कार्य है।
यदि कार्य उत्पत्तिके पहले असत् है, तब तो वह उत्पत्ति क्रियाका कर्ता भी नहीं बनेगा। उत्पत्ति भी एक क्रिया है। क्रिया कभी अकर्तृका नहीं होती। घटकी उत्पत्तिका कर्ता घट ही होता है। ‘घट उत्पद्यते’ घट उत्पन्न होता है, ऐसा ही व्यवहार सर्वसम्मत है। यदि घटोत्पत्तिके कर्ता कुलालादि हों, तब तो ‘कुलालादय उत्पद्यन्ते’ कुलालादि उत्पन्न हो रहे हैं, ऐसा व्यवहार होना चाहिये। स्पष्टरूपसे कुलालादिकी उत्पद्यमानता नहीं प्रतीत होती। घटकी उत्पद्यमानता प्रतीत होती है। कुछ लोग कहते हैं स्वकारण एवं सत्ताके साथ सम्बन्ध ही कार्यकी उत्पत्ति है, परंतु यदि कार्य स्वयं असत् है, निरात्मक है, तब उसका किसीके साथ सम्बन्ध भी क्या होगा? क्योंकि दो सत्का ही सम्बन्ध होता है, सत् तथा असत्का एवं दो असत्का भी सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त अभाव या असत् निरुपाख्य असत् ही होता है, तब उत्पत्तिके प्रथम कार्य असत् था—यह मर्यादाकरण भी नहीं बन सकता। यह व्यवहार नहीं होता कि अमुक राजाके पहले वन्ध्यापुत्र राजा था। यदि कारकव्यापारसे वन्ध्यापुत्र, खपुष्प भी उत्पन्न हो सके तभी यह कहा जा सकता है कि उत्पत्तिके पहले असत् कार्य कारकव्यापारसे उत्पन्न हुआ है।
कहा जा सकता है कि जैसे प्रथमसे ही सिद्ध होनेसे कारणकी स्वरूपसिद्धिके लिये कोई व्यापृत नहीं होता तो उसी तरह यदि कारकव्यापारके पहले भी कार्य स्वरूपसिद्ध ही हो तो उसके लिये कौन व्यापृत होगा? कारणसे यदि कार्य अनन्य ही है, तब कारणके समान ही कार्यके लिये भी कारकव्यापार नहीं होना चाहिये, परंतु व्यापार देखा जाता है, अत: कारकव्यापारकी सार्थकताके लिये उत्पत्तिके पहले कार्यका अभाव मानना उचित ही है। किंतु यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि कारणको कार्याकारसे व्यवस्थापन करनेके लिये ही कारकव्यापार अपेक्षित होता है। वह कार्याकार कारणका आत्मभूत ही है; विशेष दर्शनमात्रसे वस्तुभेद नहीं होता। देवदत्त हाथ-पाँव फैलाने या संकुचित करनेसे भिन्न नहीं हो जाता है; क्योंकि ‘स एवायम्’ वही यह है, ऐसी प्रत्यभिज्ञा (पहचान) होती है। प्रतिदिन ही पिता, माता, भ्राता आदिमें ह्रास-विकास आदि होते रहते हैं। फिर भी वस्तुभेद नहीं प्रतीत होता; क्योंकि पिता-माता, भ्राताकी एक रूपसे प्रत्यभिज्ञा होती रहती है। यदि कहा जाय कि वहाँ जन्मका व्यवधान न होनेसे ही अभेद प्रतीत होना ठीक है, परंतु कार्य-कारणमें ऐसा नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि यहाँ तो कारण बीज, मृत्पिण्डादिका नाश एवं अंकुर, घटादिकी उत्पत्ति होती है, अत: प्रत्यभिज्ञा नहीं होती। किंतु यह भी ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ भी कारण नाश आदि नहीं अनुभूत होता। क्षीरादिका दधि आदि रूपसे संस्थान प्रत्यक्ष दिखायी देता है। वट-बीजादिसे समान जातीय अवयवोंके उपचयद्वारा अंकुर वृक्षादिकी उत्पत्ति एवं अवयवोंके अपचयसे विनाशका व्यवहार होता है। वस्तुत: कारणका विनाश और कार्यकी उत्पत्ति यहाँ भी नहीं है। जैसे मृत्पिण्डके अवयव घटमें अन्वित हैं, वैसे ही वटबीजके अवयव वटबीज भी अन्वित हैं। इस तरहके अवयवोपचय तथा अवयवापचयसे यदि वस्तुमें भिन्नता हो और इसीसे सत्की उत्पत्ति तथा सत्का विनाश हो तो गर्भस्थ तथा पर्यंकस्थ शिशुमें भी भेद कहना पड़ेगा और बाल्ययौवनादि शरीरमें भी भेद कहना पड़ेगा; क्योंकि अवयवोंका उपचय-अपचय वहाँ भी देखा ही जाता है। फिर तो पित्रादि व्यवहार भी बाधित होगा। इस तरह सत्कार्यवादमें तो कारणको कार्याकाररूपसे व्यवस्थापन करनेमें कारकव्यापार सार्थक है, परंतु असत्-कार्यवादमें तो कारकव्यापार सर्वथा निर्विषय हो जायँगे। जैसे आकाशके हननके लिये खड्ग आदिका प्रयोग व्यर्थ है, वैसे ही कार्याभाव या असत्में भी कारकव्यापार व्यर्थ होंगे। कहा जाता है कि समवायी कारणमें अर्थात् तन्तु-मृत्तिका आदिमें कारकव्यापार होगा, परंतु यह भी ठीक नहीं, क्योंकि अन्यविषयक व्यापारसे अन्यकी निष्पत्ति असम्भव है। अन्यता यदि समान ही है तो फिर सिकता-विषयक व्यापारसे भी पट क्यों नहीं उत्पन्न होता? जो कहते हैं कि समवायी कारणका ही आत्मातिशय कार्य है, उन्हें तो सत्कार्यवाद मानना ही पड़ेगा। अत: क्षीर आदि द्रव्य ही दध्याद्याकारसे अवस्थित होकर कार्य—द्रव्यके रूपमें व्यवहृत होते हैं, वेदान्तमतानुसार तो मूल कारण परब्रह्म ही घटादि अन्तिम कार्यपर्यन्त उस-उस कार्यके आकारसे नटवत् सर्वव्यवहारका आस्पद होकर प्रतीत होता है। जैसे लपेटा हुआ वस्त्र स्पष्ट नहीं दीखता, फैला हुआ स्पष्ट दीखता है, उसी तरह कारणावस्थित कार्य स्पष्ट नहीं उपलब्ध होता, कार्यावस्थित होकर स्पष्ट दीखता है।
यह भी शंका होती है कि लोकमें कुलाल घट आदि कार्योंके लिये मृत्तिका, दण्ड-चक्रादिका संग्रह करते हैं, परंतु ब्रह्म बिना सामग्री-संग्रहके किस तरह विश्वनिर्माण कर सकेगा? परंतु जैसे क्षीर स्वभावसे दधिनिर्माणक्षम होता है, जल हिमरूपसे परिणत हो जाता है, वैसे ही ब्रह्म भी प्रपंचात्मक व्यक्त हो जाता है। यद्यपि औष्ण्य, शैत्य आदिकी अपेक्षा करके ही क्षीर, नीर आदि दधि, हिम आदि रूपमें परिणत होते हैं, तथापि इन साधनोंसे केवल शीघ्रता-सम्पादन की जाती है। यदि स्वयं दधि आदि बननेकी शक्ति न होती तो बाह्य साधनोंसे भी क्षीर आदि दधि आदि नहीं बन सकते। इसीलिये वायु, आकाश आदिसे दधि नहीं बनता; क्योंकि उनमें दधि बननेका स्वभाव नहीं है।
जैसे ऋषि, मुनि, देवादि बाह्य साधनोंके बिना ही विविध शरीरों एवं प्रासाद आदिका निर्माण कर सकते हैं, तन्तुनाभ (मकड़ी) बिना बाह्य साधनके तन्तु-निर्माण करती है, बलाका (बगुली) बिना शुक्रके ही घन-गर्जन-श्रवणसे गर्भ धारण करती है, कमलिनी बिना किसी गमन-साधनके ही दूसरे सरोवरमें पहुँच जाती है, उसी तरह बाह्य साधन बिना चेतनब्रह्म भी विश्वकी रचना करता है। यद्यपि कहा जा सकता है कि देवादिका अचेतन शरीर ही अन्य शरीरका कारण है। यहाँ अचेतन ही कारण है, मकड़ीका मुखलालादि ही कठोर होकर तन्तु बन जाता है, बलाका भी गर्जन-श्रवणसे गर्भ धारण करती है, यहाँ भी बाह्य निमित्त है ही। इसी तरह पद्मिनी चेतनप्रयुक्त अचेतन शरीरसे ही दूसरे सरोवरमें जाती है, जैसे लता वृक्षपर आरूढ़ होती है, तथापि कुलालादिसे विलक्षणता तो इन कारणोंमें स्पष्ट ही है।
वस्तुत: लक्षण एवं प्रमाणसे ही वस्तुकी सिद्धि होती है। जो-जो पदार्थ प्रमाण-सिद्ध होते हैं, उन्हींका अस्तित्व माना जाता है। विज्ञान आदिके प्रयोगद्वारा भी ज्ञान ही सम्पादन किया जाता है। विश्व, राष्ट्र या देहादि प्रपंच तथा भूतप्रकृति आदि भी प्रतीत होते हैं, प्रमाण-सिद्ध हैं, तभी उनका अस्तित्व माना जाता है। तथा च जैसे नील, पीत, हरितरूपका प्रकाशक प्रकाशरूपसे प्राक् सिद्ध है, वैसे ही भूतादि प्रपंच, प्रमेय, प्रमाण तथा प्रमाता—इन सबका भी भासक अखण्ड बोधरूप साक्षी उन सबसे प्रथम सिद्ध है। जड़भूतकी सिद्धि तो चेतन साक्षीके परतन्त्र है, परंतु प्रमाण, प्रमाता या साक्षीको उनकी सिद्धिके लिये किसी जड़की अपेक्षा नहीं होती। जैसे घटादिके प्रकाशके लिये भले ही सूर्यकी अपेक्षा हो, परंतु सूर्यके प्रकाशके लिये घटादिकी अपेक्षा नहीं, उसी तरह भूत आदि सिद्धिके लिये प्रमाण, साक्षी आदिकी अपेक्षा है; परंतु प्रमाण आदिकी सिद्धिके लिये जडभूतादिकी अपेक्षा नहीं।
संसारमें प्रकाशके सम्पर्कसे या प्रकाशरूप होनेसे ‘प्रकाशित होता है,’ ऐसा व्यवहार होता है। ‘प्रकाश: प्रकाशते, घट: प्रकाशते’—ये ही दोनोंके उदाहरण हैं, इसी तरह स्वप्रकाश चेतनमें सूर्यादिके समान प्रकाश स्वरूप होनेसे ‘प्रकाशते’ का व्यवहार होता है। ‘प्रपञ्च: प्रकाशते’ में ‘घट: प्रकाशते’ के समान चेतन सम्पर्कसे ‘प्रकाशते’ का व्यवहार होता है। इस तरह परतन्त्र एवं अस्वत:सिद्ध जडभूतसे चेतनकी उत्पत्ति माननेकी अपेक्षा स्वतन्त्र स्वत:सिद्ध चेतनसे जडभूतकी सिद्धि कहीं श्रेष्ठ तथा बुद्धिगम्य है।
भौतिकवादी तथा प्रकृतिवादियोंका कहना है कि ‘अचेतन प्रपंचका अचेतन प्रकृति या भूतादि ही कारण हैं, चेतन ब्रह्म या ईश्वर कारण नहीं हो सकता। जैसे घट आदि कार्योंमें मृत्तिका अन्वित होती है, वैसे ही प्रपंचमें जड़ता या सुख, दु:ख, मोहकी अन्विति प्रतीति होती है।’ परंतु यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि यदि दृष्टान्तबलसे ही यह सिद्ध करना है, तब तो यह भी कहा जा सकता है कि संसारमें कहीं भी चेतनसे अधिष्ठित हुए बिना स्वतन्त्ररूपसे अचेतन कोई पुरुषार्थ सम्पादन नहीं कर सकता। प्रज्ञावान् शिल्पीलोग ही गृह, प्रासाद, वायुयान आदिका निर्माण करते हुए देखे जाते हैं। उसी तरह कहा जा सकता है कि नानाकर्म-फलोपभोग योग्य बाह्य आध्यात्मिक विविध वैचित्र्ययुक्त संसार बड़े-बड़े शिल्पी जिसे मनसे भी कल्पना नहीं कर सकते, उसे अचेतन प्रकृति या भूत किस तरह रच सकते हैं? जड लोष्ट-पाषाण जैसे स्वतन्त्ररूपसे कुछ नहीं कर सकते, वैसे ही प्रकृति भूतादि भी स्वतन्त्ररूपसे विश्व-निर्माणमें असमर्थ हैं। कुम्भकारादिसे अधिष्ठित ही मृत्तिकादिसे घटादि बनते हैं, उसी तरह भूत या प्रकृति भी चेतनसे अधिष्ठित होकर ही कोई कार्य कर सकते हैं। फिर यह भी तो नहीं कहा जा सकता कि जड घटका कारण जड मृत्तिका है। अत: जड विश्वका भी जड ही कारण होना चाहिये; क्योंकि उसके विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि ‘चेतन कुलाल जैसे मृत्तिकासे घट बनाता है, वैसे ही चेतन ब्रह्म ही जड प्रकृति, परमाणु आदिसे जगत् बनाता है।’
सुख, दु:ख आदि आन्तर हैं, बाह्य शब्दादि उनके निमित्त हो सकते हैं, परंतु सुखादिरूप नहीं हो सकते। विशिष्टकार्य किसी प्रेक्षावान्द्वारा ही निर्मित देखा जाता है, अत: अवश्य ही प्रपंच भी वैसे ही होना चाहिये। प्रकृतिकी साम्यावस्थासे प्रच्युति भी बिना चेतनके होना असम्भव है। यह भी कहा जा सकता है कि ‘केवल चेतनकी भी प्रवृत्ति नहीं दृष्ट है, परंतु चेतनयुक्त रथादि अचेतनकी प्रवृत्ति तो देखी ही गयी है। अचेतनयुक्त चेतनकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। अत: विचारणीय विषय यह है कि जिसमें प्रवृत्ति दृष्ट है, उसकी प्रवृत्ति मानी जाय या जिसके सम्बन्धसे प्रवृत्ति हो रही है, उसकी प्रवृत्ति मानी जाय? यदि कहा जाय कि जिसमें प्रवृत्ति दृष्ट है, उसीकी मानी जाय; क्योंकि दोनों ही प्रत्यक्ष हैं, जैसे रथादि प्रवृत्तिके आश्रयरूपसे प्रत्यक्ष हैं, वैसे ही केवल चेतन प्रवृत्तिके आश्रयरूपसे प्रत्यक्ष नहीं है। किंतु प्रवृत्तिके आश्रयभूत देहादि संयुक्त ही चेतनके सद्भावकी सिद्धि होती है; क्योंकि केवल अचेतन रथादिकी अपेक्षा जीवित देहमें विलक्षणता दृष्ट है, परंतु सद्भावमात्रसे प्रवृत्तिके प्रति चेतनकी हेतुता नहीं सिद्ध होती, जैसे सद्भावमात्रसे घटादिके प्रति आकाशकी निमित्तता नहीं सिद्ध होती। अत: प्रवृत्तिमें चेतन हेतु नहीं है। इसीलिये प्रत्यक्ष देहके रहनेपर ही प्रवृत्ति एवं चैतन्यका उपलम्भ होता है। देह न रहनेपर चैतन्यका भी उपलम्भ नहीं होता। अत: देहका ही धर्म प्रवृत्ति एवं चैतन्य है, यह चार्वाक कहते हैं। इस दृष्टिसे अचेतनकी ही प्रवृत्ति सिद्ध होती है।’
इसपर अध्यात्मवादीका कहना है कि भले ही जिस देहमें प्रवृत्ति दिखायी देती है, उसीकी प्रवृत्ति मानी जाय; परंतु वह चेतनसे ही होती है; क्योंकि चेतनके रहनेपर ही प्रवृत्ति होती है, चेतनके न रहनेसे प्रवृत्ति नहीं होती। यद्यपि काष्ठादिके आश्रय ही दहन, प्रकाशन आदिरूप क्रियाएँ देखी जाती हैं, केवल अग्निमें दहन, प्रकाशनादि नहीं उपलब्ध होते। चन्द्र, सूर्य, विद्युत्—सभी प्रकाश जलीय एवं पार्थिव-काष्ठ, लोहादिके ही आश्रित हैं, तथापि अग्निसे दाह-प्रकाश आदि होते हैं; क्योंकि अग्निसंयोग होनेसे ही काष्ठादिमें दाहकत्वादि होते हैं, अग्निवियोग होनेपर काष्ठादिमें दाह-प्रकाशादि उपलब्ध नहीं होते। चार्वाक भी चेतन देहके सम्पर्कसे ही अचेतन रथ आदिकी प्रवृत्ति मानते हैं। अत: चेतनकी प्रवर्तकतामें विवाद नहीं है। कहा जा सकता है कि कर-चरणादियुक्त प्राणी अपने व्यापारसे ही अचेतनका प्रवर्तक होता है। इधर ब्रह्मरूप चेतन तो प्रवृत्तिशून्य, कूटस्थ, नित्य है, वह कैसे प्रवर्तक होगा? परंतु इसका समाधान यह है कि जैसे अयस्कान्त मणि एवं सुन्दररूप आदि स्वत: प्रवृत्तिरहित होनेपर ही लोह तथा चक्षु आदि इन्द्रियोंके प्रवर्तक होते हैं। वैसे ही प्रवृत्तिरहित ब्रह्म भी अचेतनका प्रवर्तक होगा।
कुछ लोग कहते हैं कि ‘जैसे अचेतन क्षीरकी वत्सवृद्धिके लिये स्वत: प्रवृत्ति होती है, उसी प्रकार अचेतन जलवायु आदिमें भी स्वत: लोकोपकारके लिये प्रवृत्ति होती है।’ परंतु यह भी ठीक नहीं। यदि उभयवादिसम्मत रथ आदिमें चेतनाधिष्ठित प्रवृत्ति दृष्ट है, तब तो उसी दृष्टान्तसे क्षीर-जल आदिकी प्रवृत्तिमें भी चेतनाधिष्ठित होनेका अनुमान किया जा सकता है—‘जलादीनां प्रवृत्तिश्चेतनाधीना अचेतनप्रवृत्तित्वाद् रथादिप्रवृत्तिवत्।’ रथादिके समान अचेतनकी प्रवृत्ति होनेसे जलादिकी प्रवृत्ति चेतनाधीन है। क्षीरका प्रवर्तक तो चेतन धेनु ही है। ‘योऽप्सु तिष्ठन्नद्भ्योऽन्तर:, योऽपोऽन्तर: यमयति’ (बृहदा० उप० ३।७।४) ‘एतस्य….वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि प्राच्योऽन्या नद्य: स्यन्दन्ते’ (बृ० उ० ३।८।९) यह श्रुति कहती है कि अन्तर्यामी चेतन जलके भीतर रहकर उसका नियमन करता है, उसीके शासनसे नदियाँ बहती हैं। वत्सके चोषणसे भी दुग्धकी प्रवृत्ति होती है, जलके प्रवाहणके लिये निम्नभूमि प्रदेश आवश्यक होता है, चेतनापेक्षा तो सर्वत्र है ही। आधुनिक महायन्त्रोंमें भी मूल-प्रवर्तक चेतन रहता ही है।
कुछ लोग कहते हैं, तृण-पल्लवादि दूसरे निमित्तोंकी अपेक्षा बिना ही स्वभावसे ही क्षीरादिके रूपमें परिणत होते हैं, उसी तरह प्रकृति या भूत भी स्वभावसे ही विविध प्रपंचाकारसे परिणत होता है; क्योंकि क्षीर आदि बननेमें दूसरा कोई निमित्त उपलब्ध नहीं होता। यदि कोई निमित्त होता, तब तो उन-उन निमित्तोंको लेकर यथेष्ट क्षीर बनाया जा सकता था। परंतु यह भी कथन ठीक नहीं है, तृणादिका क्षीर आदि परिणाम निष्कारण नहीं है। धेनुसे खाये हुए तृणादिसे ही क्षीर बनता है। यदि धेनु दुग्ध बननेका असाधारण निमित्त न होती तो धेनुसे अनुपभुक्त या वृषभ आदिसे उपभुक्त तृणसे भी क्षीर बनना चाहिये था। अतएव धेनु आदि निमित्तोंको लेकर दुग्ध यथेष्ट बनाया ही जा सकता है। धेनु एवं उसकी उदर-वह्नि आदि ही तृणादिको क्षीर बनाती हैं। अधिक दुग्ध चाहनेवाले धेनुको पर्याप्त दाना-घास देकर उसे प्राप्त करते हैं। संसारमें कई वस्तुएँ मानुष-सम्पाद्य वस्तुएँ होती हैं और कई देवसम्पाद्य होती हैं। जो लोग प्रकृति-भूतों या परमाणुओंमें भी चेतन-शक्तिकी कल्पना करते हैं, वे तो फिर जडवादी नहीं रह जाते। साथ ही अनेक चेतन परमाणुभूत या परमाणु विद्युत्को कारण माननेकी अपेक्षा लाघवार्थ एक व्यापक सर्वशक्ति चेतन ईश्वरको ही कारण मानना कहीं श्रेष्ठ है। जड परमाणुओंसे संयुक्त होकर कार्यारम्भके लिये कर्म अपेक्षित होगा। देखा जाता है कि तन्तुओंमें कर्म (हलचल) होता है। तभी संयोग आदिद्वारा पटादिकी उत्पत्ति होती है। कर्म भी कार्य है, अत: उसका भी कोई निमित्त चाहिये। यदि कोई निमित्त न होगा, तो परमाणुमें आद्यकर्म ही नहीं होगा। यदि लोकानुसार प्रयत्न या अभिघातादि परमाणु कर्मका निमित्त मान्य है, तब तो तदर्थ चेतन ईश्वर मानना ही युक्त है।
कहा जाता है कि ‘ज्ञानस्वरूप ब्रह्मसे प्रपंचकी उत्पत्ति इसीलिये नहीं हो सकती कि प्रपंच ब्रह्मसे विलक्षण है। सुवर्णसे उत्पन्न मुकुट-कुण्डलादिमें, मृत्तिकासे उत्पन्न घटादिमें समानता होती है। मृत्तिकासे मुकुट-कुण्डलादि नहीं बनते। जगत् अचेतन है, अत: इसका कारण भी अचेतन होना ठीक है। इसी तरह ज्ञानसे विलक्षण होनेसे प्रपंच ज्ञानका कार्य नहीं। प्रीति, परिताप, विषादका हेतुभूत प्रपंच चेतनका कार्य नहीं हो सकता, किंतु प्रकृतिका ही कार्य होना चाहिये। विपरीत दृष्टान्त भी मिलते ही हैं। लोकमें चेतनत्वेन प्रसिद्ध पुरुष, पशु आदिसे विलक्षण केश, नख आदिकी उत्पत्ति होती है तथा अचेतनत्वेन प्रसिद्ध गोमय, केश, काष्ठ आदिसे वृश्चिक, यूका, दीमकादिकी उत्पत्ति होती है।’ इसपर भी कहा जा सकता है कि वस्तुत: अचेतन शरीरोंसे ही अचेतन केश आदिकी उत्पत्ति होती है। इसी तरह गोमयादिसे वृश्चिकादिके अचेतन शरीरकी उत्पत्ति होती है। तो भी उक्त दृष्टान्तोंसे कारण-कार्योंकी विलक्षणता तो सिद्ध ही हो जाती है। गोमयकी अपेक्षा वृश्चिक शरीरमें शरीरकी अपेक्षा केश आदिकी विलक्षणता भोगायतन और भोगानायतनरूपसे स्पष्ट ही है। कारण-कार्यमें अति समानता होनेसे तो कार्य-कारणभाव ही नहीं होता। कुछ समानता तो इधर भी है ही। ब्रह्मगत सत्ता स्फूर्ति जगत्में भी अनुगत है ही।
मार्क्सवादी तो स्वयं ही अचेतनभूतसे चेतनाकी उत्पत्ति मानते हैं। वे भी गोमयादिसे वृश्चिकादिकी उत्पत्तिका दृष्टान्त उपस्थापित करते हैं। इस दृष्टिसे भी चेतन ब्रह्मसे तद्विलक्षण अचेतन प्रपंचकी उत्पत्तिमें कोई आपत्ति नहीं हो सकती। किं च जैसे पृथ्वीत्व जातियुक्त पाषाणोंमें ही हीरक, पद्मराग आदि बहुमूल्य रत्न होते हैं, कोई मध्य वीर्यके सूर्यकान्त आदि मणि होते हैं, कोई कुत्ता, बगुला, कौवाके हटानेके लायक सामान्य पाषाण होते हैं, बीजोंसे ही बहुविध पत्ते, पुष्प, फल, गन्ध, रसादि विचित्र वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, वैसे सभी बीज पार्थिव ही हैं। फिर पृथक् बीजोंसे पृथक् ढंगके पत्र, पुष्प, फल, रसादि उत्पन्न होते हैं। एक ही अन्नरसके लोहितादि, रस, केश, नख आदि विचित्र कार्य होते हैं। उसी तरह एक ही ब्रह्मसे विविधवैचित्र्योपेत प्रपंचका निर्माण होता है।
बौद्धलोग सम्पूर्ण प्रपंचको उत्पत्तिके पहले असत् कहते हैं, अर्थात् सत्के अभावको ही विश्वका मूल कारण कहते हैं। इस कथनमें यह असंगति है कि असत् है या असत् था। इस प्रकार असत् या अभावके साथ अस्तित्वका सम्बन्ध कैसे होगा? क्योंकि सत्के साथ ही सत्का सम्बन्ध हो सकता है। खपुष्पके तुल्य असत् या अभावके साथ सत्ताका सम्बन्ध सम्भव नहीं। इसी तरह प्रमाण या प्रमाता होनेपर ही भाव या अभावका बोध हो सकता है। यदि प्रमाता एवं प्रमाणका अस्तित्व था, तब तो असत् या अभाव कैसे कहा जा सकेगा? क्योंकि प्रमाता और प्रमाणका ही अस्तित्व था। यदि प्रमाता-प्रमाण नहीं थे, तब तो फिर अभाव या असत्का प्रबोध भी कैसे हो सकता था? बीजके उपमर्दन होनेसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है, यह देखकर बौद्धलोग अभावसे ही अंकुरादि कार्योंकी उत्पत्ति कहते हैं, परंतु यदि ऐसी बात होती, तब तो बीजके दाहसे भी अंकुरकी उत्पत्ति होनी चाहिये; क्योंकि बीज-दाहमें भी तो बीजका उपमर्दन या अभाव हुआ ही। अत: बीजके अवयव ही अंकुरके कारण हैं। बीज अंकुरोत्पत्तिके पूर्वकी अवस्था है। जैसे घटोत्पत्तिके पहले मृत्तिकाकी पिण्डावस्था होती है। पिण्डमें घटमें, कपालमें जो व्यापक है, वह मृत्तिका ही सबका कारण है। पिण्डादि सब मृत्तिकाके कार्य ही हैं। उसी तरह बीजावयव ही बीज एवं अंकुरादिमें व्यापक होनेसे वही कारण है। पिण्ड या बीज, घट-अंकुरादिमें व्यापक नहीं हैं, अत: वे कारण नहीं हैं। एक कारणमें युगपत् विरुद्ध अनेक कार्य नहीं हो सकते, अत: एक कारणसे होनेवाले कार्योंमें क्रमभाविता है। पिण्ड, घट, कपाल, बीज, अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखोपशाखादि कार्य क्रमसे ही होते हैं।
जो कहते हैं कि पिण्ड, कपालादि कार्योंसे भिन्न होकर कारण मृत्तिका कुछ भी नहीं है, उन्हें अन्वय-व्यतिरेकादि प्रमाणोंपर अवश्य ध्यान देना चाहिये। जैसे पुष्पोंके परस्पर व्यावृत्त होनेपर भी उनमें अनुवृत्त सूत्र उनसे भिन्न होता है, वैसे ही पिण्ड, घट, कपालादिके परस्पर व्यावृत्त होनेपर भी सबमें अनुवृत्त मृत्तिका स्पष्ट ही उन कार्योंसे पृथक् है। अत: इस कारणको असत् नहीं कहा जा सकता। इसी तरह उत्पत्तिके पहले कार्य भी सत् ही रहता है। जैसे अविज्ञात ही घट विज्ञात होता है, वही ज्ञायमान होता है और वही विस्मृत होता है और फिर उसीका स्मरण भी होता है। इसी तरह सामग्रीके अभावसे या कुडॺादि दीवाल आदि आवरणसे वर्तमान रहता हुआ भी घट प्रतीत नहीं होता है। पिण्डमें घट रहता हुआ भी आवृत्त होनेसे उपलब्ध नहीं होता। जैसे एक ही आकाशमें चान्द्र प्रकाश सौर्य प्रकाशसे आवृत्त होता है, एक ही घटमें नीर क्षीरसे आवृत्त होता है, वैसे ही एकदेशस्थ ही घट पिण्डसे आवृत्त रहता है। एक ही मिट्टीमें पिण्ड आदि सहस्रों कार्य हैं, जिसकी अभिव्यक्तिकी सामग्री उपस्थित होती है, वही अभिव्यक्त होता है, अन्य आवृत्त रहते हैं। इस तरह पिण्डसे घट, घटसे कपाल, कपालसे घट आदि आवृत्त होते हैं।
लोकमें अनेक ढंगसे अभिव्यक्ति होती है, दीपसे रूपकी अभिव्यक्ति होती है। दण्ड, चक्र, कुलालादिसे घट अभिव्यक्त होता है। जैसे दीपसे आवरण-नाशके अतिरिक्त घट सप्रकाश बनाया जाता है, वैसे ही कुलालादिद्वारा आवरणभंगके साथ घटाभिव्यक्ति हो जाती है। इसीलिये शिलाघातसे पिण्ड-भंग होनेपर भी कुलालादि बिना घटकी अभिव्यक्ति नहीं होती।
जैसे अज्ञातताकी निवृत्तिके लिये प्रमातालोग प्रमाणका उपादान करते हैं, प्रमाणके सम्बन्धसे प्रमेयकी अज्ञातता नष्ट होती है, प्रमातासे प्रमाणकी अभिव्यक्ति होती है। निष्पन्न प्रमाण प्रमेयसे संगत होकर उसी तरह प्रमेयाकार हो जाता है, जैसे कुल्या (नहर)-का जल नालियोंद्वारा क्षेत्रमें जाकर क्षेत्राकार हो जाता है, प्रमाणके प्रमेयाकार होनेसे अज्ञातताके नष्ट होनेसे प्रमेयकी अभिव्यक्ति होती है। इसी तरह दीपप्रकाशसे घट सप्रकाश होता है। वही घटनिष्ठ प्रकाश घटनिष्ठ तमका अपनोदन करता है। इसी तरह मृत्तिकामें स्थित घटाकार दण्ड-चक्रादिसे स्फुट होता है। शिलादिसे पिण्डभंग होनेपर दूसरे चूर्णादि कार्य सम्पन्न हो जाते हैं, वे भी घटके आवरण ही हैं, अत: घटकी अभिव्यक्ति नहीं होती। इसीलिये भिन्न-भिन्न घटादि कार्योंकी अभिव्यक्तिके साधन नियत हैं। प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव आदि भी अन्योन्याभावके तुल्य ही भावरूप हैं। जैसे घटान्योन्याभाव घटरूप ही है, वैसे ही प्रागभाव पिण्डरूप है। प्रध्वंसाभाव कपालादिरूप है। भावान्तर ही किसी दृष्टिसे अभाव कहा जाता है—‘भावान्तरमभावो हि कयाचित्तु व्यपेक्षया।’
जो प्रागभाव, प्रध्वंसाभावको शून्य ही कहता है, उससे यह भी प्रश्न होगा कि उन दोनोंमें भेद है या नहीं? यदि कहा जाय कि भेद नहीं है, तो भेद-व्यवहार क्यों है? अगर भेद है तो उन दोनोंका भेदक क्या है? अगर विलक्षण स्वरूपको ही भेदक कहें तो भी ठीक नहीं; क्योंकि शून्यमात्रमें विलक्षणस्वरूपता क्या हो सकती है? विलक्षणस्वरूपता हो तो शून्यता भी कैसी होगी? शून्यके साथ उपाधि सम्बन्ध भी नहीं बन सकता, अत: औपाधिक भेद भी नहीं कहा जा सकता। ‘घट-प्रभावकी पिण्ड ही उपाधि है’ ऐसा कहें तो उसमें प्रमाण बतलाना पड़ेगा। यदि प्रत्यक्ष-प्रमाण कहें, तो भी ठीक नहीं, कारणरूप तथा स्पर्शहीन प्रागभावके साथ चक्षु आदिका सम्बन्ध सम्भव नहीं है। अत: प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता। यदि पिण्डके दर्शनसे ही प्रागभावका दर्शन मानें, तब तो प्रागभावके भाव रूप माननेसे ही सब काम चल ही सकता है। ‘स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मकम्’ इस दृष्टिसे अभाव या असत्से जगत् या कार्यकी उत्पत्ति असंगत है, किंतु स्वप्रकाश चेतन ब्रह्मसे ही पूर्वोक्त युक्तियोंसे जगत्की उत्पत्ति संगत है।
इसी तरह अचेतन अदृष्ट आदि भी चेतनके बिना कर्मके कारण नहीं हो सकते। परमाणु यदि सावयव हैं, तब तो वे भी कार्य एवं अनित्य ही होंगे। उनकी उत्पत्तिमें कारणान्तर ढूँढ़ना पड़ेगा। यदि निरवयव हैं, तब तो उनका दूसरे परमाणुओंसे संयोग होनेपर परिमाणवृद्धि न होगी; क्योंकि एक देशसे संयोग होनेपर तो संयोगसे अव्याप्त देशोंद्वारा प्रथिमा (विस्तार) हो सकता है, परंतु इस दशामें सावयवत्व, अनित्यत्वादि दोष होते हैं। निरवयवका तो सम्पूर्णरूपसे ही अव्यवधानेन संयोग मानना होगा तथा च एक-दूसरेहीमें समा जायँगे, वृद्धिकी कोई आशा नहीं होती। इसके अतिरिक्त संसारमें प्रदेशवाले पदार्थोंका ही संयोग होता है, फिर निष्प्रदेश निरवयव परमाणुओंका संयोग भी कैसे होगा? इसी तरह परमाणुओंको प्रवृत्तिस्वभाव, निवृत्तिस्वभाव, उभयस्वभाव या अनुभय-स्वभाव मानना पड़ेगा, परंतु इनमें कोई पक्ष ठीक नहीं है। प्रवृत्तिस्वभाव है, तब तो नित्य ही प्रवृत्ति होनेसे वस्तुनाशरूप प्रलय नहीं होगा। निवृत्तिस्वभाव होनेसे कभी सृष्टि न होगी। विरोधात् उभयस्वभाव भी नहीं कहा जा सकता। अनुभयस्वभाव कहेंगे, तब तो दूसरे किसी निमित्तसे उनकी प्रवृत्ति माननी पड़ेगी, फिर वही सर्वज्ञ चेतन अपेक्षित होगा।
इसके अतिरिक्त लोकमें रूपादिमान् वस्तु अपने कारणकी अपेक्षा स्थूल एवं अनित्य होती है। जैसे पट तन्तुओंकी अपेक्षा स्थूल एवं अनित्य होते हैं। अंशुओंकी अपेक्षा तन्तु स्थूल तथा अनित्य होते हैं। परमाणु भी यदि रूपादिमान् हैं, तो उनका भी कारण होना चाहिये और उसकी अपेक्षा उनमें स्थूलता एवं अनित्यता भी होनी चाहिये।
इसके अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि गन्ध, रस, रूप, स्पर्श गुणसंयुक्त पृथ्वी स्थूल है। तदपेक्षया रूप, रस, स्पर्श गुणसंयुक्त जल सूक्ष्म है। इसी प्रकार रूप, स्पर्श गुणवाला तेज एवं स्पर्श गुणवाला वायु और भी सूक्ष्म है। तद्वत् पृथिव्यादि परमाणुओंमें सूक्ष्मता, स्थूलताका तारतम्य होना चाहिये। यदि गुणोंकी अधिकतासे पृथ्वी, जल परमाणुमें मूर्तिवृद्धि होगी, तब फिर वे परमाणु ही क्या रहेंगे? जब कार्योंमें गुणोंके उपचयसे मूर्तिवृद्धि होती है तो परमाणुमें भी गुणोपचयसे मूर्तिवृद्धि क्यों न होगी? यदि परमाणुओंमें गन्धादिगुण न मानें तो उनके कार्योंमें ही गन्धादि कहाँसे आयेंगे? क्योंकि कारण गुण ही कार्यगुणोंके आरम्भक माने जाते हैं। यदि सबमें एक ही गुण माने जायँ, तब तो पृथ्वीमें रस, जलमें रूप, तेजमें स्पर्श नहीं उपलब्ध होने चाहिये। यदि समताके लिये सभीको गन्धादि चारों गुणोंसे युक्त मानेंगे, तब तो जलमें भी गन्ध एवं तेजमें भी गन्ध, रस उपलब्ध होने चाहिये। वायुमें भी रस-गन्धका उपलम्भ होना चाहिये, परंतु ऐसा होता नहीं। द्रव्य एवं गुण यदि अत्यन्त भिन्न हों, तो जैसे पुष्प-पलाशादि भिन्न हैं, स्वतन्त्र हैं, वैसे ही गुण भी द्रव्यसे पृथक् स्वतन्त्र होने चाहिये, परंतु यहाँ तो गुण द्रव्य-परतन्त्र ही होता है। द्रव्यके साथ-साथ सहभाव होनेसे द्रव्यमात्र ही गुण है, यह मानना ठीक है। धूम, अग्निके समान-द्रव्य-गुणमें भेद नहीं प्रतीत होता—इसी प्रकार कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय भी द्रव्य ही है।
जैसे एक ही देवदत्त विभिन्न सम्बन्धिरूपोंकी अपेक्षासे मनुष्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, बाल, युवा, वृद्ध, पिता, पुत्र, पौत्र, भ्राता या जामाता आदि रूपसे कहा जाता है, जैसे एक ही अंक स्थानविशेषके योगसे दस, शत, सहस्र आदि शब्दोंसे व्यवहृत होता है।
विचार करनेपर कारणसे भिन्न होकर कुछ नहीं होता। मिट्टीसे भिन्न होकर घटादि पदार्थ उपलब्ध नहीं होते। जन्मके पहले प्रध्वंसके पश्चात् कार्यकी उपलब्धि नहीं होती, अन्त:करणसे भिन्न उनकी सत्ता नहीं होती। सद्बुद्धि तथा असद्बुद्धि—दोनों ही सर्वत्र उपलब्ध होती हैं। जिस विषयकी बुद्धि कभी भी व्यभिचरित नहीं होती, वही सद्बुद्धि और जिस विषयकी बुद्धि व्यभिचरित होती है, वह असद्बुद्धि होती है। ‘नीलम् उत्पलम्’ के तुल्य ‘सन् घट:, सन् पट:, सन् हस्ती’, इसी तरह सन्-सन् सर्वत्र घटादिमें सद्बुद्धि बनी रहती है। घटादि बुद्धि व्यभिचरित होती है, अतएव घटादि बुद्धिके विषय घटादि असत् हैं; क्योंकि उसका व्यभिचार होता है। सद्बुद्धिका विषय सत् है; क्योंकि उसका व्यभिचार नहीं होता।
कहा जा सकता है कि घट नष्ट होनेपर तो घटबुद्धि व्यभिचरित (बाधित) हो ही जाती है, परंतु यह कहना ठीक नहीं, कारण पटादिमें सद्बुद्धि रहती ही है। ‘सन् घट:’, ‘सन् पट:’ इस रूपसे घट, पट विशेष्यरूपसे, सन् विशेषण रूपसे प्रतीत होता है। घटके नष्ट हो जानेपर विशेष्य न रहनेपर विशेषणबुद्धि नहीं होती। जैसे गो व्यक्ति न रहनेपर अभिव्यंजक न रहनेसे गोत्वकी प्रतीति नहीं होती, यह नहीं कि गोत्व नहीं रह गया। वैसे ही गोत्वके समान सत्के विद्यमान होते हुए भी अभिव्यंजकविशेष्य घटादि न रहनेपर सत् प्रतीत नहीं होता। इसीलिये यह भी नहीं कहा जा सकता कि जैसे घट नष्ट होनेपर पट आदिमें सद्बुद्धि बनी रहती है, वैसे ही घटबुद्धि भी घटान्तरमें बनी रहती है; क्योंकि भले घटान्तरमें घटबुद्धि बनी रहे, परंतु फिर भी पटादिमें तो घटबुद्धिका व्यभिचार है ही, परंतु सद्बुद्धिका तो कहीं भी व्यभिचार नहीं होता।
कहा जा सकता है कि घट नष्ट हो जानेपर उसमें सद्बुद्धि भी नहीं रहती, परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि विशेष्य न रहनेसे सद्बुद्धि नहीं होती। सद्बुद्धि विशेषणविषया होती है, विशेष्य नहीं होनेसे विशेषणता नहीं बनती। फिर भी सद्बुद्धि कैसे हो सकती है? यह नहीं कहा जा सकता कि सद्बुद्धिका विषय सत् रहा ही नहीं, इसलिये सद्बुद्धि नहीं रहती।
यहाँ यह शंका होती है कि घटादि विशेष्य असत् हैं, तो उसके साथ सत्का सामानाधिकरण्य नहीं होना चाहिये? परंतु इसका समाधान यह है कि जैसे रज्जु-सर्पके सम्बन्धमें सर्पके बाधित होनेपर भी इदमंशके साथ ‘अयं सर्प:’ सामानाधिकरण्य-व्यवहार होता है। इसी तरह घटादिके असत् होनेपर भी ‘घट: सन्, पट: सन्’ इस रूपसे अबाधित सत्के साथ असद् घटादिका सामानाधिकरण्य-व्यवहार बन जाता है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें