9.3 प्रतिषेधका प्रतिषेध
इसी तरह प्रतिषेधके प्रतिषेधका उदाहरण मार्क्सवादी उपस्थित करते हैं कि ‘यदि यवका एक दाना जमीनमें डाला जाय तो गर्मी और नमीके प्रभावसे इसमें एक विशेष परिवर्तन होता है। इसमेंसे पौधा उगने लगता है। उस दानेके अस्तित्वका अन्त हो जाता है। उसका प्रतिषेध हो जाता है। उसके स्थानपर जो पौधा उगता है, वह उस दानेका प्रतिषेध है। वह पौधा बढ़ता है, उसमें फल आते हैं और फिर उसमें यवके दाने उत्पन्न होते हैं, लेकिन इन दानोंके पकनेके साथ ही उस पौधेका भी अन्त हो जाता है। अब प्रतिषेधका प्रतिषेध होकर नये यवके दाने हो गये। एक ही दाना नहीं, बल्कि मूल दानेका दस, बीस या तीस गुना।’
इसी तरह पतिंगोंके सम्बन्धमें उनका कहना है कि ‘ये अण्डेसे निकलते हैं। उसके प्रतिषेधके बाद ये पतिंगे बढ़कर पूर्ण यौन विकासको प्राप्त होते हैं और यौन सम्बन्धसे अण्डे पैदा होकर मर जाते हैं। प्रतिषेधका प्रतिषेध करके फिर अण्डे पैदा हो गये, एक नहीं अनेक।’
इस सम्बन्धमें पीछे कहा जा चुका है कि बीज-विनाश या बीज-प्रतिषेध अंकुरादि कार्यका कारण नहीं है, किंतु बीजके अवयव ही अंकुरके कारण हैं; क्योंकि उनका ही अनुवेध कार्यमें होता है। बीजके विनाशका कारण यह है कि एक उपादान कारणमें एक कार्यकी अभिव्यक्ति होनेपर कार्यान्तरोंकी निवृत्ति होती है। बीज भी एक अवयवोंकी ही कार्यावस्था है। अंकुररूप कार्यकी अभिव्यक्तिसे उसकी निवृत्ति आवश्यक है। जहाँ पूर्व कार्यकी निवृत्ति आवश्यक नहीं है, वहाँ प्रतिषेधके प्रतिषेधका कोई अर्थ नहीं है। आकाशसे वायुकी उत्पत्ति होती है, फिर भी आकाश नहीं निवृत्त होता। वायुसे तेजकी उत्पत्ति होती है, परंतु वायुकी निवृत्ति नहीं होती। मृत्तिकासे घट उत्पन्न होता है, किंतु मृत्तिकाकी निवृत्ति नहीं होती। आम्रादि वृक्षोंसे फलोंकी उत्पत्ति होती है, परंतु वृक्षोंका नाश या प्रतिषेध नहीं होता। मनुष्य-पशु आदिसे ही दूसरे मनुष्य-पशु आदि उत्पन्न होते हैं, परंतु उत्पादकोंका विनाश नहीं होता। भूतोंकी उत्पत्तिका सिद्धान्त यह है कि कारण व्यापक, सूक्ष्म तथा स्वच्छ एवं निर्गुण, निर्विशेष है। कार्य व्याप्य, स्थूल, अस्वच्छ, सगुण एवं सविशेष है, परंतु सांख्यमतानुसार कार्यकी विशेषताओंकी भी अभिव्यक्ति ही होती है, उत्पत्ति नहीं। अत्यन्त असत्की उत्पत्ति नहीं होती—यह बात सत्कार्यवादके प्रसंगमें कही जा चुकी है। वेदान्तमतानुसार जो आदिमें तथा अन्तमें नहीं होती, मध्यमें प्रतीत होती है, वह वस्तु रज्जु-सर्प आदिके तुल्य सदसद्विलक्षण अतएव अनिर्वचनीय ही होती है। वह शुक्ति-रजतादि मिथ्या पदार्थोंके समान होनेपर भी सत्य-सी प्रतीत होती है। ‘आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथा। वितथै: सदृशा: सन्तोऽवितथा इव लक्षिता:॥’ (माण्डू० कारि० २।६) परिणामवादमें कारणको कार्याकारतया परिणत होनेके लिये कारणमें आवश्यक विचार होना ही चाहिये। एतावता अन्तर्विरोध या प्रतिषेध कार्यका कारण नहीं हो जाता। यदि प्रतिषेध कारण होता तो सर्वत्र वह सुलभ ही है, फिर कार्योत्पत्तिके लिये कारणोपादान ही व्यर्थ होगा। यदि प्रतिषेध ही कार्योत्पत्तिका कारण होता तो दग्ध बीजसे भी कार्योत्पत्ति होनी चाहिये थी; क्योंकि दाहसे भी बीजका प्रतिषेध हुआ ही। हम स्पष्ट देखते हैं कि कार्यके लिये कार्यार्थी तत्कारणोंका अन्वेषण करते हैं। वेदान्तानुसार कारण ब्रह्म ही अनिर्वचनीय माया एवं तदंश विभिन्न उपाधियोंद्वारा कार्याकारेण विवर्जित होता है। अण्डे भी पतंगोंके फल हैं, प्रतिषेधरूप नहीं।
कहा जाता है कि मूल वस्तुके अन्तर्विरोध (विध्वंस)-से समन्वयद्वारा वस्त्वन्तरकी उत्पत्ति होती है—‘नानुपसृद्य प्रादुर्भावात्’ विनष्ट बीजसे ही अंकुर उत्पन्न होता है। मृत्पिण्डके उपमर्दनसे ही घटका निर्माण होता है। विनष्ट क्षीरसे ही दधिका निर्माण होता है। यदि कूटस्थ कारणसे ही कार्य उत्पन्न हो, तब तो अविशेषेण सभीसे सब कार्यकी उत्पत्ति होने लगे। अर्थात् कूटस्थ कारणका यदि कार्य-जनन स्वभाव है, तब तो तत्काल ही उससे कार्य उत्पन्न होना चाहिये, कालक्षेप न होना चाहिये। यदि कूटस्थ कारणमें कार्यजनक स्वभाव नहीं है, तब उससे कभी भी कार्य न उत्पन्न होना चाहिये। यदि कहा जाय कि समर्थ होते हुए भी क्रमेण सहकारियोंकी अपेक्षासे ही कार्य उत्पन्न होता है, परंतु सहकारी कुछ उपकार करते हैं या नहीं? यदि नहीं तो वे सहकारी ही क्यों होंगे? यदि उपकारका आधान करते हैं तो भी भिन्न या अभिन्न उपकारका आधान करेंगे। यदि उपकार अभिन्न है, तब तो वह कूटस्थ कारणका ही स्वरूप ठहरा। फिर कार्यमें विलम्ब क्यों होना चाहिये? यदि उपकार भिन्न है, तब तो उस उपकारके होनेपर ही कार्य होता है, उसके अभावमें कार्य नहीं होता। फिर तो अन्वयव्यतिरेकसे उपकार ही कार्यका कारण हुआ। कूटस्थ कारणके रहनेपर भी कार्य नहीं होता, अत: कूटस्थ उत्पादक नहीं हुआ—
वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चर्मण्यस्ति तयो: फलम्।
चर्मोपमश्चेत् सोऽनित्य: खतुल्यश्चेदसत्फल:॥
(नैष्कर्म्यसिद्धि एवं सर्वदर्शनसंग्रह)
अत: अभावग्रस्तबीज आदिसे ही कार्यकी उत्पत्ति होती है। ब्रह्मात्मवादी इसका भी खण्डन करते हैं। उनका कहना है कि अभावसे भावकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, यदि अभावसे भाव उत्पन्न हो, तब तो अभाव सर्वत्र सुलभ ही है, फिर कारण-विशेषकी कल्पना व्यर्थ ही होगी। उपमर्दित बीजोंका अभाव एवं शशविषाण दोनों ही समानरूपसे नि:स्वभाव हैं। अत: उनके अभावत्वमें भी कोई भेद नहीं है। फिर बीजसे अंकुर, क्षीरसे दधिके उत्पन्न होनेका नियम व्यर्थ ही है। यदि निर्विशेष अभाव कारण है, तब तो शशविषाण, खपुष्पादिसे भी अंकुरादिकी उत्पत्ति होनी चाहिये, परंतु ऐसा होता नहीं। यदि उत्पलमें नीलत्वके तुल्य अभावमें कुछ विशेषता स्वीकृत है तब तो विशेषवान् होनेसे अभाव भाव ही हो जायगा। विशेष्यवान् होनेसे उत्पल जैसे भाव है, वैसे ही विशेष्यवान् होनेसे अभाव भी भाव ही हो जायगा और फिर तो अभाव कार्य उत्पत्तिका हेतु भी नहीं हुआ, जैसे शशविषाणादि किसीका हेतु नहीं होता।
इसके अतिरिक्त यदि अभावसे भावकी उत्पत्ति हो तब तो हर एक कार्यमें अभावका ही अन्वय दिखायी देना चाहिये, परंतु देखा जाता है कि इसके विपरीत सभी कार्य भावरूपसे ही उपलब्ध होते हैं। जैसे मृत्तिकासे अन्वित घटादिको तन्तु आदिका विकार नहीं कहा जाता, किंतु मृत्तिकाका ही विकार कहा जाता है, वैसे ही भावान्वित कार्य भावके ही विकार हैं, अभावके नहीं।
जो कहा जाता है ‘स्वरूप-उपमर्दके बिना किसी भी कूटस्थ कारणसे कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, अत: अभावसे भावकी उत्पत्तिका सिद्धान्त ही ठीक है’—यह कहना भी ठीक नहीं। स्थिर स्वभाववाले सुवर्ण, मृत्तिका आदि स्पष्टरूपसे कार्यमें प्रत्यभिज्ञात होते हैं, अत: स्थिरभावमें ही कार्य-कारणभाव मानना युक्त है। बीज आदिका उपमर्द देखा जाता है, इससे उपमृद्यमाना पूर्वावस्था उत्तरावस्थाका कारण नहीं है, किंतु अनुपमृद्यमान बीजावयव ही अंकुरादिमें अनुगत होकर कारण होते हैं। असत् खपुष्पादिसे कार्योत्पत्ति नहीं होती, सत् सुवर्णादिसे कार्योत्पत्ति देखी जाती है, अत: भावसे भावकी उत्पत्तिका पक्ष ही ठीक है।
कूटस्थ स्थिर कारण ही क्रमवत् सहकारी कारणोंकी अपेक्षासे कार्यकारी होते हैं। ये सहकारी अनुपकारक नहीं कहे जा सकते, किंतु इनके द्वारा आहित उपकार कारणसे न भिन्न है न अभिन्न, किंतु अनिर्वचनीय है। इसलिये कार्य भी अनिर्वाच्य ही होता है। फिर स्थिरकी अकारणता नहीं कही जा सकती; क्योंकि कार्यका वही उपादान है—जैसे कल्पित अनिर्वाच्य सर्पका उपादान रज्जु होती है।
यदि अभावसे ही भावकी उत्पत्ति होती है, तब तो उदासीन, अनीहमान लोगोंकी भी समीहित सिद्धि होनी चाहिये; क्योंकि अभाव तो सभीको सुलभ है। खेतीके कार्यमें बिना संलग्न हुए भी किसीको सस्यादि प्राप्त होने चाहिये। कुलाल मृत्तिकादिमें बिना प्रवृत्त हुए भी घटोत्पादन कर सकेगा। तन्तुवाय तन्तुओंमें बिना प्रवृत्त हुए भी वस्त्रलाभ कर लेगा, परंतु यह सब होता नहीं; अत: भावसे ही भावकी उत्पत्ति होती है, अभावसे नहीं।
बीज एवं मृत्तिका-पिण्ड उपमर्द हुए बिना अंकुर, बीज आदि उत्पन्न नहीं होते, अत: अभाव या विनाश ही कार्योंके कारण होते हैं। इस कल्पनाकी इस पक्षमें अपेक्षा लाघव है। बीज एवं मृत्तिकाको ही कार्योंका कारण माननेमें बीज या मृत्पिण्डका आकारविशेष कार्यका कारण नहीं है, अतएव अन्वयी द्रव्य ही कारण होता है। पिण्ड या बीजके आकारविशेषका कार्यमें अन्वय भी नहीं है। अन्वय बीजावयव एवं मृत्तिकामात्र ही अनुभूत होता है। मृत्तिका कारण है; क्योंकि उसके अभावमें घटका अभाव होता है, परंतु पिण्डादि आकारके न रहनेपर भी घटकी उपलब्धि होती है। सभी कारण कार्यका उत्पादन करते हुए अपने पूर्व कार्यका तिरोधान करते हैं; क्योंकि एक कारणमें एक कालमें ही दो कार्य नहीं हो सकते। पूर्वकार्यके उपमर्दसे कारणका स्वरूप नहीं उपमर्दित होता।
मृत्तिकादिका पूर्व कार्य पिण्डादि हैं, घटादिकी उत्पत्तिके लिये उनका तिरोधान आवश्यक ही है। कार्यान्तरकी उत्पत्तिके लिये पूर्वकार्यका तिरोधान आवश्यक होता है, इसलिये पिण्डादिका तिरोधान होता है, इसलिये नहीं कि कारण-नाश कार्यका हेतु है। असत्कारणवादी कहता है कि पिण्डादिसे भिन्न मृत्तिकादि कुछ भी नहीं है। यद्यपि कहा जा सकता है कि पिण्डादि पूर्वकार्यके उपमर्दित होनेपर भी मृदादिकारण नहीं नष्ट हुआ; क्योंकि वह घटादि कार्यान्तरमें अन्वित है, परंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि पिण्ड घटादिसे भिन्न मृदादि कारणका उपलम्भ ही नहीं होता।
इस पर वेदान्तीका कहना है कि मृदादि कारणोंसे घटादिकी उत्पत्ति होनेपर पिण्डादिकी निवृत्ति हो जानेपर भी मिट्टी आदि कारणकी घटादिमें अनुवृत्ति रहती है। अत: पिण्डादिके विनष्ट होनेपर भी मृदादि कारणका विनाश नहीं हुआ। असद्वादी कहते हैं कि ‘यद्यपि मृत्तिकादि कारण पिण्डादिके नष्ट होनेपर नष्ट हो गया, घटादिमें मृत्तिकादि कारणका अन्वयदर्शन कारणकी अनुवृत्तिसे नहीं, अपितु सादृश्यके कारण है। पिण्डगत मृत्तिकासे घटगत मृत्तिका भिन्न है, फिर भी सादृश्यके कारण अभेद प्रतीतिसे अन्वयदर्शन-सा होता है।’ परंतु यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि पिण्डादिगत मिट्टी आदिकोंके अवयवोंका ही घटादिमें प्रत्यक्ष अनुभव होता है। अत: पिण्डगत मृत्तिकासे घटगत मृत्तिका भिन्न है—यह प्रत्यक्ष नहीं है, किंतु ‘यत् सत् तत् क्षणिकं यथा दीपं सन्तश्चेमे भावा:’ जो सत् है वह क्षणिक होता है, जैसे दीप और सभी पदार्थ सत् हैं; अत: वे क्षणिक होने चाहिये। इस अनुमानसे मृदादिकारणोंकी भी क्षणिकताका अनुमान करके ही भेद सिद्ध किया जा सकता है, परंतु ‘सैवेयं मृत्तिका’ वही यह मिट्टी है—इस प्रकारकी प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष पहचानसे विरुद्ध होनेके कारण यह अनुमान अग्निके अनुष्णत्वानुमानके समान अनुमानाभास है।
कहा जा सकता है कि ‘प्रत्यक्ष-प्रमाणसे कारणकी एकता प्रतीत होती है और अनुमान-भेद प्रतीत होता है, अत: जैसे प्रत्यक्षसे विरुद्ध होनेके कारण अनुमानको अनुमानाभास कहकर अप्रमाण घोषित किया जाता है, वैसे ही अनुमानविरुद्ध प्रत्यक्षको ही प्रत्यक्षाभास कहकर अप्रमाण क्यों न घोषित किया जाय?’ परंतु यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अनुमान प्रत्यक्षपूर्वक ही हुआ करता है, अत: अनुमानद्वारा प्रत्यक्ष न होनेसे प्रत्यभिज्ञासिद्ध प्रत्यक्षका विरोध उपजीव्यविरोध ठहरता है। इसलिये अनुमान दुर्बल है। अन्यथा यदि अनुमानसे प्रत्यक्ष बाधित होगा, तब तो सर्वत्र ही अनाश्वास होगा।
कहा जा सकता है कि प्रत्यभिज्ञा स्वार्थमें स्वत:प्रमाण नहीं हो सकती, किंतु दूसरी बुद्धियोंके संवादसे ही उसका प्रामाण्य हो सकता है; परंतु स्थायित्व-साधक दूसरी कोई बुद्धि नहीं है, अत: ‘प्रत्यभिज्ञासिद्ध: प्रत्यभिज्ञायमान:’ अर्थ भी क्षणिक ही है, परंतु यह भी कहना ठीक नहीं; क्योंकि इस तरह तो अनुमान-सिद्ध क्षणिकत्वबुद्धि भी स्वार्थमें स्वत: प्रमाण न होनेसे उसे भी तादृग् दूसरी बुद्धिकी अपेक्षा होगी। उस दूसरी बुद्धिको भी अपने प्रामाण्यके लिये तादृक् तीसरी बुद्धिकी आवश्यकता होगी—इस तरह अनवस्था प्रसंग होगा। अत: प्रत्यभिज्ञाके प्रमाण-बुद्धिका स्वत: प्रामाण्य ही अंगीकार करना ठीक है। इस दृष्टिसे प्रत्यभिज्ञान भी स्वत: प्रमाण है।
जो कहते हैं कि प्रत्यभिज्ञा भी सादृश्यके कारण भ्रमरूप है। ‘त एवेमे केशा:’—ये वही बाल हैं, इत्यादि स्थलोंमें बालोंकी भिन्नता रहनेपर भी सादृश्यके कारण अभिन्नता प्रतीत होती है, उसी तरह ‘सैवेयं मृत्तिका’ वही यह मिट्टी है, इत्यादि स्थलोंमें भी सादृश्यके कारण ही अभेदकी प्रत्यभिज्ञा होती है, उनका कथन भी ठीक नहीं; क्योंकि एक स्थायी अनुभविता न होनेसे पूर्वोत्तर कालवर्ती तत्पदार्थ एवं इदं पदार्थका ग्रहण ही नहीं होगा। उनके ग्रहण हुए बिना ‘तेनेदं सदृशम्’ यह सादृश्य-बुद्धि ही नहीं होगी। फिर सादृश्य-बुद्धिमूलक भी प्रत्यभिज्ञाको कैसे कहा जा सकता है? कोई भी क्षणिक बुद्धि या क्षणिक द्रष्टा भिन्न कालवर्ती पदार्थोंको नहीं ग्रहण कर सकता। इस सम्बन्धमें विज्ञानवादी बौद्धोंका कहना है कि बाह्यार्थके बिना ही बुद्धियाँ उत्पन्न होती हैं, अत: सादृश्य बिना ही अर्थात् असत् सादृश्यमें ही सादृश्य-बुद्धि होती है, परंतु इस तरह तो तत् पदार्थ और इदं पदार्थकी बुद्धि भी सादृश्य-बुद्धिकी तरह ही असद्विषयक ही समझी जायगी। यदि कहा जाय कि ऐसा भी अभीष्ट ही है अर्थात् विज्ञानवादी बाह्य अर्थका अस्तित्व ही नहीं अंगीकार करता। अत: सभी बुद्धियाँ बाह्य विषयके बिना ही उत्पन्न होती हैं तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि फिर तो बुद्धि, बुद्धि भी असद्विषयक ही होगी। अत: बाह्य अर्थके समान ही आन्तर अर्थ (बुद्धि)-का भी असत्त्व सिद्ध हो जायगा। यद्यपि शून्यवादी इसे भी अभीष्ट ही मानता है, तथापि यदि सर्वबुद्धि मिथ्या ही हों तो असद्बुद्धि भी मिथ्या हो जायगी। फिर तो असत् या शून्यकी सिद्धि भी असम्भव ही होगी। इसलिये सादृश्य-बुद्धिसे प्रत्यभिज्ञा होती है—यह कहना गलत है तथा च कार्योत्पत्तिके पहले कारणका सद्भाव सिद्ध होता है। संसारमें तम आदिद्वारा प्रावृत घटादि वस्तु आलोकादिके द्वारा प्रावरण तिरस्कारसे अभिव्यक्त होती है। अत: अभिव्यक्तिके पहले भी उसका अस्तित्व होता है। उसी तरह घटादि कार्य भी कारण-व्यापारद्वारा आवरण तिरस्कारसे अभिव्यक्त होता है। अत: अभिव्यक्तिके पहले भी उसका अस्तित्व मान्य होना चाहिये। जैसे अविद्यमान वस्तु सूर्योदय होनेपर भी उपलब्ध नहीं होती, उसी तरह कार्य यदि उत्पत्तिके पहले अविद्यमान होता तो कारक-व्यापारसे भी उसकी अभिव्यक्ति सर्वथा असम्भव ही होती।
कहा जा सकता है कि सत्कार्यवादीके मतानुसार यदि घटादि कार्य कभी भी अविद्यमान नहीं है, तब तो सूर्योदय होनेपर उसका सदा ही उपलम्भ होना चाहिये, किंतु यह ठीक नहीं; क्योंकि आवरण दो प्रकारके होते हैं—जैसे अभिव्यक्त घटका तम आदि आवरण है, उसी प्रकारसे अभिव्यक्तिके पहले अनभिव्यक्त घटका आवरण है मृदादि अवयवोंका पिण्डादि कार्यान्तररूपसे संस्थान। इसलिये जबतक मृदादिका अवयवोंकी पिण्डादि कार्यान्तररूपसे स्थिति रहती है, तबतक अर्थात् उत्पत्तिके पहले घटादि कार्य उसी आवरणसे आवृत होनेके कारण उपलब्ध नहीं होते। उसी आवरणके भंग होनेसे घटादि कार्योंकी उत्पत्तिका व्यवहार होता है। जैसे तम हटनेसे घटादिके व्यवहारका भाव होता है, वैसे ही पिण्डादिसे तिरोभूत रहनेपर अभावका व्यवहार होता है। कपालादिसे तिरोभूत होनेपर घटादिके नष्ट होनेका व्यवहार हुआ करता है। कहा जा सकता है कि पिण्ड-कपालादि घटादिके समान देशवाले होनेके कारण आवरण नहीं हो सकते; क्योंकि तम और कुडॺादि (दीवार) आवरण घटादिसे भिन्न देशवाले होते हैं अर्थात् आवृतके देशसे भिन्न देशवाला ही आवरण होता है, परंतु पिण्ड-कपाल आदि तो सर्वथा आवृतके ही देशवाले होते हैं। यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि क्षीर जलके समान देशमें रहकर भी जलका आवरक रहता है। समानदेशत्व आवरणका बाधक है—इसका क्या अभिप्राय है? एकाश्रयाश्रितत्व या एककारणत्व? अर्थात् जो दो वस्तु एक आश्रयमें आश्रित होते हैं, उनमें एक-दूसरेका आवरक नहीं होता अथवा जिन दो वस्तुओंका एक ही कारण होता है, उनमें एक दूसरा आवरक नहीं होता। इनमें पहला पक्ष ठीक नहीं; क्योंकि एकाश्रयाश्रित होनेपर भी क्षीरके द्वारा क्षीर-मिश्रित जलका आवरण होता ही है तथा दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं; क्योंकि कार्यभेदसे कारणका भेद होता है। अत: घटादिके कारण मृदादि अवयवोंसे कपालादिके कारण मृदादिके अवयवोंका भेद होता है। अत: एककारणत्व असिद्ध है अर्थात् यदि घट अवस्थावाली मृत्तिकामात्रमें रहनेवाले कपाल आदिको घटका अनावरण कहें तो यह अभीष्ट ही है, परंतु यदि अव्यक्त घटावस्थावाली मृत्तिकामें रहनेवाले कपालादिको अनावरणत्व कहना चाहते हैं तो यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि यहाँ घट और कपालादिके कारण मृदादि अवयवोंका भेद ही है।
कहा जा सकता है कि फिर तो आवरणाभावके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये, घटोत्पत्तिके लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है—यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि आवरण-विनाशमात्रके प्रयत्नसे ही घटकी अभिव्यक्ति होती है; क्योंकि तम आदि आवृत घटादिके प्रकाशके लिये दीपादिकी उत्पत्तिका भी प्रयत्न देखा ही जाता है, भले ही वह प्रयत्न भी तमके निराकरणार्थ ही हो। तमके हटनेपर स्वयं ही घट उपलब्ध होता है, तथापि प्रकाशवान् ही घटका उपलम्भ होता है। इस तरह तमके निराकरणसे अतिरिक्त भी प्रदीपोत्पत्तिका प्रकाशविशिष्ट घटका उपलम्भ हो, यह विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध होता है। इस तरह घट-प्रागभावका यह मतलब नहीं कि उत्पत्तिके पहले घटस्वरूप ही नहीं। अत्यन्ताभाव, प्रागभावादि यदि अपने प्रतियोगी घटादिसे अत्यन्त भिन्न हों तो घटादिकी अनाद्यनन्तता और अद्वितीयता सिद्ध होगी। यदि सद्रूप हों तो फिर अभाव ही नहीं रह जायँगे; क्योंकि भाव और अभावकी परस्पर संगति नहीं होती।
कहा जाता है कि अभाव प्रसिद्ध वस्तु है। जैसे भावका अपलाप नहीं किया जा सकता, वैसे ही अभावका भी, परंतु विचारणीय विषय यह है कि वह अभाव क्या है? घटका स्वरूप ही है या अर्थान्तर? यदि प्रथम पक्ष कहें तो ठीक नहीं; क्योंकि यदि घटस्वरूप ही हो तो घटके द्वारा उसका व्यपदेश कैसे हो? अर्थात् अभेदमें घटका प्रागभाव इस रूपसे भेदमूलक सम्बन्ध व्यवहार कैसे होगा? यदि कहा जाय कि कल्पित सम्बन्धको ही लेकर व्यवहार बनता है तो भी यही कहना पड़ेगा कि कल्पित अभावका ही ‘घटस्य प्रागभाव:’ इस रूपसे व्यवहार होता है। घटस्वरूपका घटसे व्यपदेश नहीं बन सकता। यदि कहा जाय कि घटाभाव घटसे अर्थान्तर है तो वह घटसे अर्थान्तर कारणरूप ही हुआ तथा च घटप्रागभाव घटकारणरूप ही ठहरा।
अभिव्यंजकके व्यापार होनेसे नियमेन घटकी अभिव्यक्ति होती है, अभिव्यंजक व्यापार न होनेसे नहीं। इस तरह अन्वयव्यतिरेकसे घटादि कार्योंके लिये कुलालादि-व्यापार सार्थक होते हैं। उस व्यापारसे आवरण-भंग आर्थिक रूपसे हो जाता है। कारणमें वर्तमान एक कार्य इतर कार्योंका आवरक होता है। यदि घटादिके पूर्वाभिव्यक्त पिण्डादि कार्य या घटध्वंसके पश्चात् अभिव्यक्त कपालादि कार्यके विनाशका ही प्रयत्न किया जाय तो चूर्णादि भी कार्य उत्पन्न होंगे, उन कार्योंसे भी घट आवृत ही रहेगा। अतएव घटाभिव्यक्तिके लिये नियत कारण व्यापार अपेक्षित होता है। ‘अतीतो घट:, अनागतो घट:’ ये दोनों बुद्धियाँ भी वर्तमान घटबुद्धिके समान ही विद्यमान वस्तुका ही आलम्बन करती हैं। इसीलिये अनागत वस्तुके लिये अर्थियोंकी प्रवृत्ति होती है। यदि खपुष्पवत् अनागतादि वस्तु अत्यन्त असत् हों तो उनमें अर्थियोंकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
‘इह कपालेषु घटो भविष्यति’ इन कपालोंमें घट होगा। यह प्रतीति प्रागभावकी प्रतीति कही जाती है। इस मिट्टीसे घट होगा, इस विश्वाससे ही कुलालादि प्रवृत्त होते हैं। घटनिर्माणार्थ प्रवृत्त कुलालादिके व्यापार-कालमें ‘घट: असत्’ इस वाक्यका यदि इतना ही अर्थ है कि जैसे कुलालादि वर्तमान है, उस प्रकारसे घट वर्तमान नहीं है। तब तो ऐसे असत्का कोई विरोध नहीं; क्योंकि घट तो भविष्यद्रूपसे ही वर्तमान है। पिण्ड या कुलालादिकी जैसी वर्तमानता है, वैसी वर्तमानता घटकी नहीं है; क्योंकि पिण्डकी वर्तमानता और घटकी वर्तमान दशामें घटोत्पत्तिके पहले घट असत् अर्थात् कुलालादिकी तरह वर्तमान नहीं है, इस कथनका कोई विरोध नहीं, परंतु घटकी जो भविष्यत्ता विशिष्ट कार्यरूप घट असत् इस व्यवहारसे उसका प्रतिषेध नहीं हो सकता। चतुर्विध अभावोंमें जैसे घटान्योन्याभाव घटसे भिन्न पटादिरूप ही है, घटस्वरूप ही नहीं; पट घटाभाव स्वरूप होनेपर भी अभावात्मक नहीं होता, किंतु भावरूप ही रहता है। इसीलिये कहा गया है कि ‘स्वरूपपररूपाभ्यां सर्वं सदसदात्मकम्।’ इसी प्रकार घटके प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभावकी भी घटसे भिन्नता और भावरूपता ही कहनी चाहिये।
इस तरह विकसित बीजमें अन्तर्विरोध, वर्गभेद, वर्गसंघर्ष एवं वर्ग-विध्वंसरूपी वाद-प्रतिवादके अंकुरका फलपर्यन्त विकास होना और उससे पुन: उसी प्रकार अंकुरान्तररूपी विकासान्तरकी उत्पत्ति यद्यपि किसी अंशमें इष्ट है, तथापि भूतोंकी उत्पत्तिमें यह नियम व्यभिचरित है। आकाशमें वायुकी उत्पत्ति होती है, फिर भी आकाश बना रहता है। वायुसे तेजकी उत्पत्ति होनेपर भी वायु नष्ट नहीं हो जाता, इसी प्रकार तेजसे जल एवं जलसे भूमि उत्पन्न होनेपर भी कारण बने ही रहते हैं। कार्यके विकासान्तर होनेपर प्रथम विकास समाप्त हो जानेका नियम सर्वथा अदृष्ट है। वृक्षसे फलोंके विकसित होनेपर भी वृक्षोंके नष्ट होनेका नियम नहीं है। मनुष्य, पशु आदिसे मनुष्य, पशु आदिकी उत्पत्ति होनेपर भी कारणका विनाश नहीं होता। भूत भी सावयव होनेसे कार्य है। जो-जो भी सावयव होता है, घटादिके समान कार्य ही होता है। साथ ही जो भी कार्य है, उसे सकर्तृक एवं सोपादान भी होना चाहिये। कर्ता चेतन होता है, इस दृष्टिसे ईश्वरसिद्धि होती है एवं कार्यकी अपेक्षा उपादान व्यापक, शुद्ध एवं नित्य होता है, इस दृष्टिसे कार्यकी अपेक्षा कारणकी अनश्वरता, स्वच्छता एवं व्यापकताका ही निर्णय होता है। इस तरह पृथ्वी जलसे, जल तेजसे, तेज वायुसे एवं वायु आकाशसे उत्पन्न होता है, यह श्रुतियों एवं युक्तियोंसे सिद्ध है। यहाँ वाद-प्रतिवाद, समन्वय आदिका सिद्धान्त व्यभिचरित एवं अत्यल्पदेशीय ही सिद्ध होता है।
पाश्चात्य वैज्ञानिक कहते हैं ‘कि गणितशास्त्रके किसी अंक चिह्नको लीजिये ‘+क’। इसका प्रतिषेध है ‘-क’। यदि ‘-क’ से गुणाकर हम इसका प्रतिषेध करते तो इसका फल होता है ‘क२’। प्रतिषेधके प्रतिषेधसे मूल अंक फिर लौट आया, लेकिन और ऊँचे स्तरपर अपने वर्गफलके रूपमें। इसमें कोई हानिकी बात नहीं है। यही नतीजा क और क के गुणासे भी प्राप्त होता है; क्योंकि ‘क२’ के वर्गमूलमें सदा दोनों अंक रहते हैं ‘क’ और ‘क’। संख्याणुगणितके द्वारा किसी गणितकी समस्याका हल तो इसका और भी अच्छा उदाहरण है। दो अंक चिह्न ‘क’ और ‘ख’ ले लीजिये। जिनके परिवर्तनका आपसी सम्बन्ध निर्धारित है। यानी किसी एकमें परिवर्तन हो तो दूसरेमें परिवर्तनका स्थिरीकरण उस उक्त सम्बन्धसे हम कर सकते हैं। यदि हम दोनोंका प्रतिषेध करें तो घटते-घटते ये दोनों अंक नहींके बराबर हो जाते हैं। लेकिन उनका पूर्व सम्बन्ध ज्यों-का-त्यों बना रहता है। इसको अंकमें हम यों रख सकते हैं। लेकिन यह सम्बन्ध बराबर है के, अब इस प्रतिषेधके द्वारा जब हम उस समस्याको हल कर लेते हैं, तो हम फिर मूल अंकपर उपनीत होते हैं। पूर्व प्रतिषेधका प्रतिषेध और समस्याका हल हो गया।’
उपर्युक्त उदाहरण भी वस्तुत: प्रतिषेधके प्रतिषेधका नहीं। धन-ऋणका बढ़ाव-घटावके रूपमें विरोध होनेसे यद्यपि धनका प्रतिषेध ऋणको कहा जा सकता है, ऋणके गुणनसे निकलनेवाले फलभूत वर्गफल संख्याको भी प्रतिषेधका प्रतिषेध कहा जा सकता है, परंतु केवल वह धनके रूपमें ही मूल संख्याके रूपमें है, वस्तुत: उसका रूप पृथक्-पृथक् है। जैसे अंकुर-कारणभूत यवका दाना और अंकुरका फलभूत यवके दाने पृथक्-पृथक् हैं।
संख्याणुगणितका भी उदाहरण, इस सम्बन्धमें अनुकूल नहीं है। मूलका प्रतिषेध शून्यवत् ‘क’ अवश्य प्रतिषेधका प्रतिषेध है। उनके निर्धारित परस्पर सम्बन्धके आधारपर उसके प्रतिषेधसे मूलपर पहुँचते हैं, परंतु यह अपेक्षा-बुद्धिकी ही कलाबाजी है। इसके प्रतिषेधके प्रतिषेधसे प्रतियोगी सत्त्व-व्यवस्थापन-जैसी कोई चीज नहीं निकलती। एक अपेक्षा-बुद्धिसे वही वस्तु पहली या दूसरी, छोटी या बड़ी हो सकती है, परंतु वस्तुत: वह विरोधात्मक नहीं हो सकती।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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