9.4 ऐतिहासिक द्वन्द्ववाद
कहा जाता है कि ‘इतिहासके लिये भी यही बात लागू है। सब सभ्य जातियोंका, जो एक निर्दिष्ट अवस्थाको पार कर चुकी हैं, आरम्भ भूमिके सामृद्धिक स्वामित्वसे होता है। कृषिके विकासके लिये एक स्तरपर भूमिका सामूहिक स्वामित्व उत्पादन-क्रियाके लिये बाधकस्वरूप बन जाता है। इसका अन्त किया जाता है, इसका प्रतिषेध होता है और कुछ बीचके स्तरोंको पारकर व्यक्तिगत सम्पत्तिमें रूपान्तरित हो जाता है, व्यक्तिगत सम्पत्तिसे ही कृषिका ऊँचे स्तरपर विकास होता है, लेकिन व्यक्तिगत सम्पत्ति ही आगे चलकर कृषि-उत्पादनकी क्रियाके लिये बाधकस्वरूप हो जाती है। अब इसके प्रतिषेधकी और भूमिपर सामूहिक स्वामित्वकी माँग होने लगती है, लेकिन यह मूलरूपसे बहुत भिन्न होगा, जिसमें आधुनिक आविष्कारोंका पूरा उपयोग किया जा सकेगा।’
पर यह कहना भी संगत नहीं है। भूमिपर सामूहिक स्वामित्व ऐतिहासिक नहीं है। ईश्वर-निर्मित भूमि ईश्वरकी थी। बलिकी पत्नी विन्ध्यावलिने भगवान् वामनसे कहा था कि आपने क्रीड़ाके लिये ही जगत्की रचना की है, परंतु दुर्बुद्धि-लोग उसे अपना समझने लगते हैं। आप सर्वकर्ता हैं, आपहीद्वारा जीवोंमें भी कर्तृत्व सफल होता है, फिर बलि आदि आपको क्या दे सकते हैं—
क्रीडार्थमात्मन इदं त्रिजगत् कृतं ते
स्वाम्यं तु तत्र कुधियोऽपर ईश कुर्यु:।
कर्तु: प्रभोस्तव किमस्यत आवहन्ति
त्यक्तह्रियस्त्वदवरोपितकर्तृवादा:॥
(श्रीमद्भा० ८।२२।२०)
ईश्वरके उत्तराधिकारी ब्रह्मा, इन्द्र, मनु आदि हुए। धर्म-नियन्त्रणकी स्थिति कमजोर पड़नेपर मात्स्यन्याय-निराकरणके लिये जनताने मनुको शासक बनाया। तदनन्तर विभिन्न व्यक्ति भी व्यष्टिभूमिके ही स्वामी हुए। प्राणियोंका कर्मद्वारा सृष्टिमें हाथ होता है, कर्मोंके अनुसार ही और भोग-साधन प्राप्त होते हैं। हिरण्यगर्भ, मन आदिको कर्मानुसार समष्टि-भोग-साधन मिलते हैं, सामान्य जीवोंको भी व्यष्टि-भोगसाधन कर्मोंके अनुरूप ही मिलते हैं। कोई वस्तु ईश्वर या प्रकृतिद्वारा निर्मित है, एतावता वह सबकी है—ऐसा नहीं कहा जा सकता। एक स्त्री भी प्रकृतिद्वारा निर्मित होती है, तो भी उसपर माता-पिताका ही स्वत्व होता है। पश्चात् उनके द्वारा दिया हुआ स्वत्व पति आदिको मिलता है या स्वयं वह जिसे स्वत्व समर्पण करती है, उसे मिलता है।
जिस रूपमें भूमि, आकाशादिपर कभी सामूहिक स्वामित्व था, उस रूपमें आज भी है ही। भूमिपर सभी प्राणियोंको जीवित रहने, चलने-बैठने, श्वास लेने, अवकाश ग्रहण करनेका अधिकार सदा मिला, आज भी है, परंतु विशिष्टरूपसे भूमिका स्वामित्व भूमिपतिका ही है। भूमिपतिद्वारा दिया हुआ सीमित भूमिपतित्व अन्यलोगोंको भी प्राप्त हुआ। इसीलिये भूमिकर देनेकी प्रथा है। यह कोई भी व्यवस्था सर्वथा आगन्तुक एवं नवीन नहीं है। व्यक्तिगत सम्पत्तिसे ही कृषिका जैसे ऊँचे स्तरपर विकास हुआ, इसी प्रकार आगे भी व्यक्तिगत भूमिका अपहरण किये बिना उसका उच्चतम विकास हो सकता है। अमेरिका आदिमें भी वैसा ही विकास हो रहा है। बड़े कामोंके लिये सहकारिताके आधारपर सम्भूयोत्थान (सम्मिलित कृषि, व्यापारादि) पहले भी होता था, यह अन्यत्र दिखाया गया है, वैसे ही अब भी हो रहा है, आगे भी हो सकेगा। अत: भूमि, सम्पत्ति आदिका अपहरण प्रतिषेधके प्रतिषेधका उदाहरण नहीं हो सकता है।
उन्नत साधनोंसे फलमें उन्नति होती है। इस दृष्टिसे जब भी पहले या पीछे उन्नत साधन होते हैं, तब कृषि उन्नत होती है। आज भी जहाँ उन्नत साधन नहीं मिलते, वहाँ खेतीका वह निम्नरूप है। अनेक स्थानोंमें आज भी सामूहिक खेतियोंसे व्यक्तिगत खेतियाँ उच्चकोटिकी होती हैं। दूसरी दृष्टिसे अन्न, फल आदिकी उत्पत्ति और अच्छाई तथा मात्रा पहले बहुत अच्छी थी, अब कम अच्छी है। जिन खेतोंमें पहले बीस मन अन्न पैदा होता था, उनमें आज पाँच मन भी उत्पन्न नहीं होता। पशुओं, मनुष्योंकी भी जैसी बुद्धि, शक्ति, आकार, बल-पराक्रम हजारों वर्ष पहले था, उससे आज ह्रास ही है। मनुष्योंके पुराने अस्थिपंजर तथा प्राचीन तलवारों और भालोंके बृहत् आकार इसके साक्षी हैं।
समाजवादी कहते हैं कि ‘यह बात इतिहाससे सिद्ध है कि पारिवारिक और वैयक्तिक सम्पत्ति एकत्रित करनेके नियम चलनेसे पहले मनुष्य हजारों वर्षतक श्रेणी-भेदके बिना आदिम समष्टिवादकी अवस्थामें रहा है’, पर यह ऐतिहासिक तत्त्व आधुनिक लोगोंका स्वगोष्ठीनिष्ठ सिद्धान्तमात्र है। संसारके सबसे प्राचीन इतिहास महाभारत और रामायण हैं, जिनकी बहुत कुछ सत्यता मोहन-जो-दड़ो तथा हड़प्पाके भूगर्भसे मिली हुई वस्तुओंसे सिद्ध होती है। उन आर्ष इतिहासों एवं अपौरुषेय वेदादि शास्त्रोंसे सिद्ध है कि न केवल मनुष्योंमें ही, किंतु देवताओं, पशुओं, वृक्षोंमें भी ब्राह्मण आदि भेद सृष्टिकालसे ही है। अवश्य यह श्रेणी-भेद शोषक तथा शोषितके आधारपर नहीं हुआ, किंतु धर्मके आधारपर ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि श्रेणी-भेद और उसके अनुसार ही श्रौत-स्मार्त धर्म एवं जीविकाओंके विधान हुए, ‘न वै राज्यं न राजासीन्न च दण्डो न दाण्डिक:’ (महा० शा० ५९।१४) आदि पूर्वोक्त सर्वोत्कृष्ट धर्म-नियन्त्रणके युगमें भी धर्म तथा ब्राह्म आदि श्रेणियोंकी सत्ता थी ही।
‘पुराकालमें सब ब्राह्मण ही थे, क्षत्रिय आदि न थे। स्त्रियाँ भी विवाहित न होती थीं, सम्पत्ति सामूहिक होती थी।’ आदि बातें भी अत्यन्त असंगत हैं। अनादि सृष्टि-संहारकी परम्परामें मूलभूत धर्मपरम्परा भी अनादि है। तन्मूलक वर्णाश्रम-धर्म पातिव्रत्यादि-धर्म भी अनादि ही हैं। कभी भी उत्पत्ति-क्रममें कार्योत्पत्तिके पहले कारण ही रहता है, वायुकी उत्पत्तिके पहले आकाश था ही। क्रम-वर्णनमें क्षत्रिय आदि उत्पत्तिके पहले ब्राह्मण ही थे, विवाह होनेके पहले स्त्रियाँ आज भी अविवाहित होती हैं। आज भी घट बननेके पहले मृत्तिका ही रहती है, परंतु इससे ब्राह्मणादि वर्णों तथा विवाहादि धर्मोंकी अनादितामें कोई बाधा नहीं आती। अतएव इन सबोंका उत्पत्ति-क्रम-वर्णनमें ही तात्पर्य है। आकाशसे वायु, वायुसे तेज एवं तेजसे जल तथा जलसे पृथ्वीकी उत्पत्ति होती है। यह कहा जा सकता है कि पृथ्वी, जलके उत्पत्तिके पहले तेज ही था, तेजसे भी पहले वायु ही था, वायुसे भी पहले आकाश था और कुछ नहीं था। उसी तरह भगवान्की मुखशक्तिसे ब्राह्मणकी उत्पत्तिके पश्चात् बाहुकी शक्तिसे क्षत्रियकी उत्पत्ति हुई। तत्पश्चात् उदर या ऊरुसे वैश्य, पादसे शूद्रकी उत्पत्ति हुई। उत्पत्तिक्रममें पौर्वापर्य होता ही है, उसीमें अभावका व्यवहार होता है। जबकि अनादि वेदोंद्वारा ही प्रतिकल्पकी सृष्टि होती है और अनादि वर्णाश्रम-धर्मका प्रतिपादन होता है। अनादि ही पातिव्रत-धर्मका प्रतिपादन है, तब अमुक वर्ण या अमुक धर्म पहले नहीं था—इत्यादि कल्पनाएँ निराधार एवं अप्रमाणित हैं।
जीव ईश्वरके समान ही धर्माधर्म भी अनादि हैं। तदनुसार ही तद्बोधक शास्त्र एवं तदनुयायी वर्णाश्रम-धर्म भी अनादि हैं। ब्राह्म आदि विवाहोंसे सवर्णामें उत्पन्न ही ब्राह्मणादि वर्ण हैं, अत: विवाह आदि सभी अनादि हैं। श्वेतकेतु आदिकी कथाएँ गुणवादसे लक्ष्यार्थमें पर्यवसित हैं, वाच्यार्थमें नहीं। अर्थात् कुन्तीको देवताओंसे संतानोत्पादनमें प्रवृत्त करनेके लिये यह अर्थवाद है और अर्थवाद भी जहाँ प्रमाणान्तरसे विरुद्ध अर्थका प्रतिपादक होता है, वहाँ भूतार्थवाद न होकर गुणवाद ही होता है अर्थात् उसका वाच्यार्थमें कुछ भी तात्पर्य न होकर प्रशंसा या निन्दाद्वारा प्रवृत्ति या निवृत्तिमें ही तात्पर्य होता है। सिद्धान्तत: ह्रास-विकासका चक्र ही सिद्ध है। तदनुसार कभी ब्राह्मणोंकी बहुलता, कभी शूद्रोंकी बहुलता होती है, अर्थात् कभी ज्ञान-विज्ञानप्रधान मनुष्योंकी बहुलता होती है, कभी शिल्पादि कर्म-प्रधान मनुष्योंकी—
यथा कृतयुगे पूर्वमेकवर्णमभूत् किल।
तथा कलियुगस्यान्ते शूद्रीभूता: प्रजास्तथा॥
(मत्स्यपुराण १४३।७८)
मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘दर्शनके क्षेत्रमें स्वयं द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ही एक ऐसा उदाहरण है। पहलेके भौतिकवादका प्रतिषेध हुआ आदर्शवाद और इस आदर्शवादका प्रतिषेध हुआ फिर भौतिकवाद। लेकिन यह भौतिकवाद यान्त्रिक भौतिकवाद नहीं, बल्कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है। दार्शनिक क्षेत्रमें एक और उदाहरण है, रूसोके समतावादका तथ्य। रूसोके अनुसार प्राकृतिक बर्बर युगमें सब मनुष्य समान थे। रूसो भाषाको भी इस प्राकृतिक अवस्थाका विकार मानता है, उसके अनुसार एक ही जातिके पशुओंके बीचकी समताको उन पशु-मनुष्योंके लिये भी लागू करना चाहिये, जिनको हैकलने एक आनुमानिक श्रेणीयुक्त किया है, आलालीमूक। लेकिन इन पशु-मनुष्योंको अन्य पशुओंकी अपेक्षा एक सुविधा थी, उन्नतिकी शक्ति और यही असमताका कारण थी। इसलिये असमतामें भी रूसो उन्नतिका कारण देखता है। लेकिन यह उन्नति विरोधपूर्ण थी। यह साथ-ही-साथ अवनति भी थी। उन्नतिका मार्ग यही था कि मनुष्य व्यक्तिगतरूपसे पूर्णताकी ओर कदम बढ़ाता, लेकिन यही कदम मनुष्य-जातिके लिये अवनतिका भी कदम था। सभ्यताका हर एक कदम असमताकी ओर अग्रसर होता था। यह निर्विरोध सत्य है और वैधानिक नियमका मूल सत्य भी है कि लोग सरदारोंको चुनते हैं अपनी स्वतन्त्रताकी रक्षाके लिये, न कि उसका अन्त करनेके लिये। फिर भी ये सरदार अवश्य ही लोगोंको सतानेवाले बन जाते हैं और यहाँतक सताते हैं कि यह असमता चरम सीमापर पहुँचकर अपने विपरीत बन जाती है और समताका कारण बन जाती है; क्योंकि निरंकुश शासकके सामने सब समान हैं, सब शून्य हैं। लेकिन यह शासक तभीतक प्रभु है, जबतक वह जबरदस्त है और जब वह निकाला जाता है, तब जबरदस्तीकी शिकायत नहीं कर सकता। शक्ति ही उसकी प्रभुता बनाये रखती है। अन्तमें शक्तिसे ही उसका पतन होता है। सब प्राकृतिक और सही रास्तेपर ही चलते हैं। इस प्रकार असमता फिर एक बार समतामें रूपान्तरित हो जाती है। लेकिन यह मूक प्राथमिक मनुष्यकी प्राकृतिक समता नहीं है, यह समाजकी उन्नत समता है। सतानेवाले सताये-जानेवाले हो जाते हैं, प्रतिषेधका प्रतिषेध हो जाता है।’
उपर्युक्त कथन भी असंगत ही है; क्योंकि किसी भी शास्त्रार्थमें जब एक पक्षका खण्डन होता है, तब वह दूसरे प्रकारसे अपने खण्डित पक्षका समर्थन करता है। जैसे द्वैत-अद्वैत पक्षके ही शास्त्रार्थकी बात लीजिये। श्रीमध्वके द्वैतका खण्डन मधुसूदनने ‘सिद्धान्तबिन्दु’ ग्रन्थके द्वारा किया। उसका खण्डन करके ‘न्यायामृत’ द्वारा पुन: द्वैतका प्रतिष्ठापन हुआ। उसका खण्डन पुन: ‘अद्वैतसिद्धि’ द्वारा हुआ। पुनश्च ‘न्यायामृत-तरङ्गिणी’ द्वारा उसका प्रतिष्ठापन हुआ, पुनश्च ‘गौड़ब्रह्मानन्दी’ द्वारा उसका खण्डन हुआ, ‘न्यायभास्कर’ द्वारा पुन: प्रतिष्ठापन हुआ। ‘न्यायेन्दुशेखर’ द्वारा पुन: खण्डन होनेपर पुन: प्रतिष्ठापनार्थ प्रयत्न हुआ, परंतु एतावता उनके पहलेके द्वैत और अद्वैतसे पिछले द्वैत-अद्वैतमें कोई भेद नहीं हुआ। इसी तरह जडवाद एवं भौतिकवादका भले ही सहस्रों बार खण्डन तथा मण्डन हो, तथापि वस्तुत्वमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसे प्रतिषेधके प्रतिषेधको प्रतिप्रसव कहा जाता है। दर्शनशास्त्रोंमें सिद्धान्तत: भी इसके उदाहरण मिलते हैं। जैसे संन्यासका विधान, पुनश्च कलियुगके लिये निषेध, पुनश्च कलिमें भी वर्णविभाग वैदिकधर्म-प्रवृत्ति-पर्यन्त विधानद्वारा प्रतिषेधके प्रतिषेध होनेसे विधानका प्रतिप्रसव होता है। यह निर्दोष उदाहरण है। इसी प्रकार व्याकरणकी दृष्टिसे राम शब्दके प्रथमा या द्वितीयाके द्विवचनमें ‘राम औ’ इस स्थितिमें ‘वृद्धिरेचि’ से वृद्धि प्राप्त होती है। उसका बाधकर ‘प्रथमयो: पूर्वसवर्ण:’ से पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त होता है। पुनश्च ‘नादिचि’ से उसका बाध होकर ‘वृद्धिरेचि’ से वृद्धि हो जाती है। तब ‘रामौ’ शब्द बनता है।
भौतिकवाद एवं आदर्शवादके तत्त्वोंमें कोई भी अन्तर नहीं है। यह नहीं कहा जा सकता कि वस्तुत: पहले भौतिकवादका खण्डन हो गया था और अब वह पुन: सिद्ध ही हो गया है। रूसो, हैकेल आदिकोंके मन:कल्पित इतिहासकी अपेक्षा ऋषियोंके आर्ष इतिहासका महत्त्व कहीं अधिक है। तदनुसार सृष्टिकालके वसिष्ठ, अत्रि आदि उच्चकोटिके महामानव थे। उनके धर्म, योग, वेदान्त आदिके सिद्धान्त आजके सभ्य कहे जानेवाले नरपशुओंको दुर्विज्ञेय ही हैं। उनमें जो आध्यात्मिक समता थी, वह आज भी है।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(गीता ५।१८)
सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते॥
(गीता ६।९)
विद्वान् सदा ही सर्वत्र समब्रह्मका दर्शन करता है, यही समता है। शरीर-बुद्धि या कर्म अथवा उसके फलकी दृष्टिसे न कभी समता थी, न होनेवाली है। पशुतुल्य मनुष्य असंस्कृत मूक तभी होता है, जब उसका सद्गुरु-सम्बन्ध नहीं होता। आज भी यह बात स्पष्ट है। जहाँ शिक्षण है, वहाँ ज्ञान-विद्या विकसित होती है; जहाँ शिक्षण नहीं है, वहाँ विकास नहीं होता। ईश्वरने ब्रह्माको नियुक्त करके उसे नित्य वेदोंका उपदेश दिया—
‘यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।’
(श्वेता० उप० ६।१८)
ब्रह्माने सनकादिको एवं मरीचि आदिकोंको उत्पन्न करके उन्हें वेदादि शास्त्रोंका उपदेश किया है। जिन मनुष्योंका प्रमादवश उक्त सम्पर्क टूट गया, वे ही पशुतुल्य हो गये हैं।
हॉब्स, लाक, रूसो आदिकी कल्पनाएँ परस्पर भी टकराती हैं। हॉब्सके मतानुसार ‘आदिम प्राणी समताकी स्थितिमें नहीं था, किंतु खूँखार था।’ लाकका ‘आदिम मनुष्य बहुत नेक था’, रूसोका भी ऐसा ही था। सुकरातके अनुसार ‘मनुष्य स्वभावसे ही सामाजिक प्राणी है’ इनके अनुबन्धीय राज्यको भी अन्य दार्शनिक अनैतिहासिक कहते हैं। हैकलका अनुमान केवल उसका दिमागी फितूर ही है। मनुष्यों एवं पशुओंके वैषम्यका कारण उनके जन्मान्तरीय कर्म मानने पड़ेंगे। निर्हेतुक शक्तिवैषम्यकी उपपत्ति हैकलके पास कुछ नहीं है। मनुष्योंमें भी कर्मतारतम्यसे ही उन्नतिकी शक्तिमें तारतम्य होता है और इसका भी अन्तिम उद्देश्य है, उस आध्यात्मिक स्तरपर समता स्थापित करना, जिससे अधिक उन्नति हो ही नहीं सकती।
व्यक्तिगत उन्नतिकी ओर कदम बढ़ाना कभी भी अवनतिका कारण नहीं होता। व्यक्तिका समुदाय ही समाज है, व्यक्तिगत उन्नतिसे समाजकी उन्नति सुतरां सम्भव होती है। उन्नति एवं सभ्यताका कोई भी कदम अवनतिका कदम नहीं है। क्या कोई विद्वान् बलवान् बनता है, एतावता किसीका नुकसान होता है? इतनी सहज-सी चीजको आधुनिक सभ्योंने कितने उल्टे रूपमें ग्रहण किया है? यदि किसी ऊँचे स्थानपर १०० मनुष्य चढ़नेके लिये अग्रसर होते हैं और यदि कुछ आलसियों, दीर्घसूत्रियोंको पीछे छोड़कर कुछ लोग आगे बढ़ते हैं तो स्पर्धासे दूसरे भी आगे बढ़नेके लिये दीर्घसूत्रता और आलस्य छोड़ेंगे ही। अत: आगे कदम बढ़ानेसे यदि विषमता होती है, तो यह भी उन्नत स्तरपर समताकी ओर ले जानेका ही प्रयत्न है।
मुखिया, सरदार या राजाको सदा ही धर्मनियन्त्रित होना आवश्यक है। उच्छृंखल होना धर्महीनताका परिणाम है, सरदार या राजा होनेके कारण नहीं। धर्महीन राज्योंमें ही उच्छृंखल या निरंकुश शासक होते हैं; वेन, रावणादि इसके उदाहरण हैं। मनु, इक्ष्वाकु, नृग, नल, मान्धाता, राम, युधिष्ठिर आदि धर्मनियन्त्रित राजाओंमें निरंकुशताका लेश भी नहीं हो सकता था। समाजवादी ढंगकी समता उच्चकोटिकी होगी, यह उनके अपने घरकी ही कल्पना है। मुर्गों, कबूतरोंकी तरह साम्यवादी बन्धनमें मनुष्योंको सर्वथा परतन्त्र कर देना ही अगर समानता है, तो इससे कोई भी समझदार दूर ही रहना चाहेगा।
यदि प्रकृति ही सबको सही रास्तेपर चलाती है, तब तो संसारमें प्रचलित शिक्षण-व्यवस्था एवं दण्डविधान पागलपन ही ठहरेगा और समाजवादियोंका भी प्रचार और उपदेश सब व्यर्थ ही सिद्ध होगा। अत: इसे प्रतिषेधके प्रतिषेधका उदाहरण समझना व्यर्थ है। प्रतिषेध कभी भी कारण नहीं हो सकता है। यदि प्रतिषेध ही कारण है, तब तो अवश्य ही मसलकर, जलाकर भी जौके दानेका प्रतिषेध होता ही है, फिर उससे अंकुरकी उत्पत्ति क्यों नहीं होती? यदि विशिष्ट प्रतिषेधसे अंकुरकी उत्पत्ति है, तो कहना पड़ेगा कि वह प्रतिषेध नहीं है, किंतु परिणामोपयोगी विकारमात्र है, प्रतिषेध या विनाश अभावात्मक ही है, विशेषता प्रतियोगीमें ही हो सकती है, अभावमें नहीं; क्योंकि कार्यके लिये विशिष्ट कारणका अन्वेषण होता है, प्रतिषेध या अभावका अन्वेषण नहीं होता। अत: प्रतिषेधसे या प्रतिषेधके प्रतिषेधसे किसी भी विशिष्टकार्यसिद्धिकी कल्पना व्यर्थ है। इसके अतिरिक्त प्रतिषेधका प्रतिषेध भावात्मक ही होता है। जैसे किसीको भ्रमवशात् रजतमें अरजत-बुद्धि होती है। तब वह कहता है कि ‘नेदं रजतम्’, पुनश्च जब उसका बोध होता है, तब उस प्रतिषेधका प्रतिषेध होता है—‘इदं नारजतम्’। यह अरजत नहीं है, इसका फल होता है, रजतका व्यवस्थापन।
प्रकृतिमें जिस बीजका प्रतिषेध होकर अंकुरकी उत्पत्ति होती है, उस अंकुरके प्रतिषेधसे भी उस बीजका पुन: व्यवस्थापन नहीं होता। अत: वस्तुत: यहाँपर प्रतिषेधका प्रतिषेध हुआ ही नहीं। अंकुरको प्रतिषेधका फल किसी तरहसे कहा भी जाय, परंतु वह प्रतिषेधरूप नहीं हो सकता और बीजको भी अंकुर प्रतिषेधका फल भले ही कहा जाय, परंतु अंकुरको प्रतिषेध अंकुर फल नहीं कहा जा सकता, अंकुरका कारणभूत बीज अन्य है, बीजसे अंकुरादि क्रमसे उत्पन्न फलरूप बीज उससे भिन्न होता है। पिता-पुत्रमें जैसे भेद होता है, वैसे ही प्रथम बीज एवं बीजजन्य फलभूत बीजोंमें भेद है। एक पिताके अनेक पुत्र होते हैं, वैसे ही एक बीजसे सैकड़ों फल उत्पन्न होते हैं। अत: यहाँ भी अन्तिम बीज प्रतिषेधका प्रतिषेध स्वरूप नहीं हो सकता। वस्तुत: प्रतिषेधके प्रतिषेधका व्यवहार वहीं होता है, जहाँ प्रतिषेधके प्रतिषेधसे प्रथम प्रतिषेधके प्रतियोगीका सत्त्व-व्यवस्थापन किया जाता है। जैसे रजतनिषेधका निषेध करके रजतके सत्त्वका व्यवस्थापन किया जाता है।
कहा जाता है कि ‘विचारजगत् और द्वन्द्वन्याय तर्कशास्त्रका साधारण नियम है, ‘हाँ’ ‘हाँ’ है और ‘नहीं’ ‘नहीं’। इसके विपरीत द्वन्द्वमान कहता है कि ‘हाँ’ नहीं है और ‘नहीं’ हाँ है। ऊपरी दृष्टिसे द्वन्द्वमानकी भाषा बहुत ही विरोधपूर्ण है। लेकिन कुछ विचार करनेपर इसकी सत्यता प्रमाणित हो जायगी। तर्कशास्त्रके तीन बुनियादी नियम हैं। १. एकताका नियम, २. विरोधका नियम और ३. मध्यपरिहारका नियम। पहले नियमके अनुसार ‘क’ है, या ‘क’ = ‘क’ दूसरा नियम पहले नियमका नकारात्मकरूप है। इसका रूप है ‘क’ नहीं है = न ‘क’। तीसरे नियमके अनुसार किसीके लिये दो विरोधी गुण एक साथ नहीं हो सकते, वास्तवमें या तो ‘क’, ‘ख’ है या ‘क’, ‘ख’ नहीं हैं। यदि इनमेंसे एक बात सत्य है तो दूसरी असत्य है और दूसरी सत्य है तो पहली असत्य है। इनके मध्यमें कोई बात नहीं हो सकती।’
‘युबेरवेगके निर्देशानुसार दूसरे और तीसरे नियमोंको इस प्रकार मिलाया जा सकता है। किसी विशिष्ट प्रश्नका, किसी वस्तुविशेषका अमुक गुण है या नहीं? उत्तर हो सकता है ‘हाँ’ या ‘नहीं’। ‘हाँ’ और ‘ना’ दोनोंमें उसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। इन नियमोंमें कोई भूल नहीं मालूम पड़ती। फिर द्वन्द्वमानका नियम क्योंकर सही है? प्रकृतिमें ही इसका उत्तर मिल जाता है, जिसका विवरण पहले दिया जा चुका है और अभी आगे चलकर फिर दिया जायगा। अतिभौतिक विचारप्रणालीकी जो कि तर्कशास्त्रमें मिलती है, गड़बड़ी यह है कि व्यष्टि और समष्टि, इकाई और समूह—सबको एक साथ मिला दिया जाता है। इसी प्रकार निश्चित परिमाणोंमें हाइड्रोजन (उद्रजन) और ऑक्सीजनके मिश्रणसे पानी बनता है। आधिभौतिकवादके लिये पानीमें अम्लजन और उद्रजनका पृथक् अस्तित्व बना रहता है। केवल तर्कन्यायमें पानी तथा अम्लजन और उद्रजनका एकीकरण होता है। यह रहस्यमय कल्पना है। इससे यह परिणाम निकलता है कि अम्लजन और उद्रजन तथा पानी—सभी एक साथ आसपास रहते हैं और अनन्त कालतक रहेंगे।’
वस्तुत: पाश्चात्य अतिभौतिकवाद भी भौतिकवादके समान ही निस्तत्त्व है। वास्तविक अध्यात्मवाद एवं तर्क वेदान्तके सिद्धान्त बिना समझे हुए मार्क्सवादी उसके खण्डनकी निरर्थक चेष्टा करते हैं। अध्यात्मवादी जब कहता है, सत् सत् ही है असत् नहीं, असत् असत् ही है सत् नहीं, तब उसका तात्पर्य है कि कोई वस्तु उसी रूपसे उसी दृष्टिसे सत् एवं असत् दोनों नहीं हो सकती। इसी आधारपर अनेकान्तवादका खण्डन किया जाता है। सभी देशकालमें व्यभिचरित वस्तु ही है; किसी देशकालमें व्यभिचरित वस्तु असत् है। मृत्तिकाविकार घटादिमें मृत्तिका अव्यभिचरितरूपसे विद्यमान होती है। अत: वह घटादिकी अपेक्षा सत् है, परंतु मृत्तिकाका कारण जल है, जलकी अपेक्षा मृत्तिका असत् है। उसकी अपेक्षा जल सत्, परंतु सर्वकारण, स्वप्रकाश, अखण्डबोधस्वरूप सत् सर्वदेश, काल तथा वस्तुओंमें अव्यभिचरित होनेसे निरपेक्ष सत् है। तद्भिन्न सब वस्तु असत् ही है। यदि सत्-असत्की अव्यवस्था हो तो किन्हीं भी सिद्धान्तों, मन्तव्यों अर्थात् अनेकान्तवाद या मार्क्सवाद एवं द्वन्द्ववादके सम्बन्धमें भी वही बातें लागू होंगी। मार्क्सवाद भी एकान्तत: सत्य नहीं है। किसी रूपमें सत् है, अन्य रूपोंमें असत् भी है। फिर अनिश्चित सिद्धान्तमें किसीकी प्रवृत्ति कैसे होगी? अपेक्षा-बुद्धिसे भाव-अभावकी एकत्र स्थिति तो भारतीय दर्शनोंमें अधिक प्राचीनकालसे मान्य है—
‘भावान्तरमभावो हि कयाचित्तु व्यपेक्षया।’
अर्थात् किसी अपेक्षासे दूसरा भाव ही अभाव है। जैसे घटका घट-रूपसे भाव होनेपर पटरूपसे अभाव भी है। इसीलिये स्वरूप-पररूपसे हरेक वस्तु सत्, असत्, उभयात्मक है—
‘स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यं सदसदात्मकम्।’
परंतु इतने मात्रसे सत्-असत्का अविरोध नहीं कहा जा सकता। स्वरूपसे सत् असत् नहीं हो सकता। अन्यरूपसे सत्का असत् होना यह अपेक्षाबुद्धिकृत है। नियम तभी निर्दोष होता है, जब वह अव्याप्ति, अतिव्याप्ति तथा असम्भव दोषोंसे मुक्त हो। विचित्र संसारमें गुणधर्मकी विचित्रता स्वाभाविक है। केवल कतिपय स्थलोंमें सहचार-दर्शनमात्रसे व्याप्ति नहीं होती। पार्थिवत्व एवं लोह लेख्यत्वका सर्वत्र सहचार होनेपर भी केवल हीरकमें अव्याप्ति होनेमात्रसे यह व्याप्ति अशुद्ध समझी जाती है। फिर द्वन्द्वमानके तो लगभग सभी नियम अव्याप्ति-अतिव्याप्ति दोषोंसे ग्रस्त होते हैं।
कहा जाता है कि ‘द्वन्द्वमान इस स्थावर आधिभौतिकताका भेदन कर जाता है। ‘मनुष्य’ शब्दमें सब सम्भव मनुष्य सम्मिलित हैं। लेकिन मनुष्यजाति और मनुष्यगण यद्यपि भिन्न और पृथक् तर्कसिद्ध श्रेणियाँ हैं, लेकिन केवल तार्किक दृष्टिसे ही वे ऐसे हैं। एक ही घटनावलीके देखनेके लिये ये विभिन्न दृष्टिकोण हैं। व्यापकताके दृष्टिकोणसे अर्थात् उस दृष्टिकोणसे, जिसमें एक ही मनुष्य जातिका सदस्य होनेके नाते सब एक समान हैं। ‘मनुष्यजाति’ सब मनुष्योंकी समष्टि है। मनुष्यगण सब मनुष्योंकी समष्टिकी ही एक और कल्पना है, लेकिन इस अर्थमें कि कोई भी मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यके समान नहीं है। द्वन्द्वमानके लिये विशेष और व्यापक याने ‘साधारण एक और सब’ विरोध रहते हुए भी ये दोनों एक-दूसरेमें और एक-दूसरेके द्वारा अवस्थित हैं। ‘श्याम’ का ‘श्यामत्व’ और उसके मनुष्यत्वसे पृथक् रूपमें न रह सकता है, न उसके रहनेकी कल्पना ही की जा सकती है। मनुष्यको मनुष्यरूपमें हम उस साधारण गुणसे जानते हैं—जो सब विशिष्ट मनुष्योंमें विद्यमान है और हर विशिष्ट मनुष्यकी पहचान तभी हो सकती है, जब व्यापक मनुष्यरूपसे उसकी भिन्नताको दिखलाया जाय।’
हीगेलके तर्कशास्त्रका यही गुण है कि वह विरोधियोंके एकत्वको मानता है और उनको श्रेणीबद्ध करता है। ‘तर्कसिद्धके रूपमें’; एक ओर पूर्णरूपसे व्यापक और दूसरी ओर पूर्णरूपसे एक। हीगेलीय भाषामें दो विरोधियों—उद्रजन, अम्लजनका एकत्व ही पानी है। ये तर्ककी दृष्टिसे विरोधी हैं। इन दो विरोधियोंके मेलसे जो पानीरूप वस्तु बनती है, वह न उद्रजन है और न अम्लजन। गुणात्मकरूपसे दोनोंका अन्तर्धान हो जाता है और बिलकुल नये गुणोंके संयोगकी सृष्टि हो जाती है। परिणाम तो उतना ही रहता है, लेकिन रूप परिवर्तित हो जाता है।
उपर्युक्त कथन भी नि:सार है। यह तो अध्यात्मवादमें ही स्वीकृत है कि वस्तुओंमें सामान्य-विशेषभाव एवं साधर्म्य-वैधर्म्य विभिन्नरूपसे मान्य होते हैं। जाति एवं गुणकी दृष्टिसे समष्टि-व्यष्टिका उपर्युक्त विवेचन भ्रान्तिपूर्ण है। नित्य एक एवं अनेकोंमें समवेत जाति है। जैसे अनेक गोव्यक्तियोंमें एक गोत्वजाति रहती है, उसीके आधारपर सभी गोव्यक्तियोंको जाना जाता है, परंतु गण या समूह तो विशेषों (नैयायिकस्वीकृत पदार्थ)-का भी कहा जा सकता है, जिनमें जाति नहीं है। अनेक जातिके मनुष्योंके समूहको भी गण कहा जा सकता है, परंतु उन्हें एक जातिका नहीं कहा जा सकता, यह प्रसंग ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व आदि अवान्तर जातिका है। मनुष्यत्व जाति तो सभी मनुष्योंमें होती ही है। व्यष्टि और समष्टि अध्यात्मवादमें वृक्ष और वनके तुल्य है। व्यष्टित्व और समष्टित्वका तो भेद होता ही है। ऐसे अनेक गुणधर्म समष्टिमें मान्य होते हैं, जो व्यष्टिमें नहीं होते। जैसे एक-एक तन्तुओंसे शीतापनयन नहीं होता, परंतु वही तन्तु-समुदाय पटरूपमें परिवर्तित होकर अंगप्रावरण, शीतापनयन आदि कार्य करते हैं। व्यक्ति-समुदायसे भिन्न होकर समष्टि कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है।
जिन तत्त्वोंसे जिस वस्तुका निर्माण होता है, उन तत्त्वोंका किसी-न-किसी रूपमें उस वस्तुमें बना रहना स्वाभाविक है। कर्ता, निमित्त आदिके बिना भी कार्य रह सकता है, परंतु उपादान या समवायी कारण बिना तो कार्यकी स्थिति सम्भव ही नहीं होती। कोई नियम तभी निर्दोष माना जाता है, जब वह अव्याप्ति-अतिव्याप्ति आदि दोषोंसे रहित हो। श्यामत्व मनुष्यत्वका व्याप्त धर्म है, सुतरां व्यापक धर्मके बिना व्याप्त धर्मकी अवस्थिति नहीं हो सकती। जैसे क्षितित्व, जलत्व आदि द्रव्यत्व-व्याप्त धर्म है। अत: क्षितित्व, जलत्व आदि द्रव्यत्वके बिना नहीं रह सकते। विभिन्न विशेषोंमें ही सामान्यका पर्यवसान होता है।
वस्तुत: जिस रूपमें ऑक्सीजन और हाइड्रोजन जलके जनक होते हैं; उस रूपमें वे विरोधी नहीं हैं। यद्यपि अग्नि और तैल किसी रूपमें विरोधी हैं, परंतु वे ही युक्तिसे समन्वित होकर दीपक-प्रज्वलनका भी काम करते हैं। जल-अग्नि परस्पर विरोधी हैं, परंतु युक्तिसे समन्वित होकर बाष्पद्वारा यन्त्र-संचालन करते हैं। वे विरोधी अन्यरूपसे हैं, कार्यवाहक अन्यरूपसे हैं। इसीलिये स्वरूपसे भाव, अभाव, सत्, असत्की एकता नहीं हो सकती। अन्यथा सरोवरकमल और गगन-कमलकी तथा मित्रातनय एवं वन्ध्यातनयकी एकता भी कही जानी चाहिये। अत: इस प्रकारके काल्पनिक विरोधके दृष्टान्तसे सत्, असत्, भाव, अभावकी तरह उसी सम्बन्धसे उसी देशमें उसी वस्तुका भाव-अभाव नहीं रह सकता। जैसे भूतलके उसी प्रदेशमें संयोग सम्बन्धसे उसी प्रकारके उसी घटका भाव-अभाव—दोनों नहीं हो सकते। यदि यह हो सके, तब तो संसारसे विरोधमात्र ही दत्तजलांजलि हो जायगा।
उद्रजन, अम्लजन दो विरोधियोंके मिलनेसे पानी बना। उद्रजन, अम्लजन केवल इतनेमात्रसे विरोधी नहीं होते; क्योंकि एक वह है, जो दूसरा नहीं है। इतना दूर क्यों जाया जाय और सरल लौकिक दृष्टान्त लें। अनेक तन्तुओंसे पट बनता है, तन्तुओंमें भी एक वह नहीं है, जो दूसरे हैं। एक दृष्टिसे सब परस्पर भाव एवं अभावस्वरूप हैं और उनके मिलनेसे ही पट बनता है। पटमें तन्तुओंका अन्तर्भाव हो जाता है, एक नयी वस्तु पट बन जाती है, परंतु यह कलाबाजी अविचारित रमणीय ही है। तन्तुओंको परस्पर विरोधी कहनेकी अपेक्षा परस्पर सहयोगी कहना प्रत्यक्ष-प्रमाणके अधिक अनुकूल है। विरोधी तो उन्हें एक-दूसरेका अभावात्मक होनेसे केवल अपेक्षा-बुद्धिसे कहा जाता है। इसी तरह पट बननेपर तन्तुका लुप्त हो जाना, पटरूपी नयी वस्तुका बन जाना भी अविचारित रमणीय है। विचारनेपर अब भी तन्तुओंसे भिन्न होकर पट कोई वस्तु नहीं है। शीतापनयनादि-अर्थक्रियाकारिता विशेषरूपसे अवस्थित समुदायका गुण है। समुदाय समुदायीसे भिन्न नहीं एवं विशेष अवस्थिति अवस्थावालोंसे भिन्न नहीं हो सकती है। व्यष्टिवृक्षोंसे भिन्न होकर समष्टि वन नहीं है। पटसे भिन्न होकर उसकी संकुचित-प्रसारित अवस्था भी भिन्न नहीं है। यही स्थिति उद्रजन, अम्लजनकी है, उन्हें परस्पर विरोधी न कहकर सहयोगी कहना अधिक उपयुक्त है।
पंचभूत भी परस्पर विरुद्ध कहे जा सकते हैं। जलसे अग्निका निर्वाण हो जाता है, किसी ढंगसे अग्निसे जलका शोषण हो जाता है; पर साथ ही उनका कार्य-कारणभाव भी है। तेजसे ही जलकी उत्पत्ति होती है और तेजमें ही जलका संहार होता है। ब्रह्मसे ही विश्वकी उत्पत्ति होती है, उसीमें उसका संहार भी होता है। इस दृष्टिसे ब्रह्म ही विश्वका उत्पादक भी है, संहारक भी है, परंतु यह विरोध अपेक्षा-बुद्धिकृत है। सत्, असत्का-सा विरोध नहीं है। इसी तरह सत्त्व, रज, तमका भी परस्पर विरोध कहा जा सकता है। सत्त्व प्रकाशात्मक है, रज चल है, तम आवरणात्मक एवं अवष्टम्भात्मक है। व्यवहारमें भी सत्त्वके बढ़नेपर रज-तमका घटना अनिवार्य है। रजके बढ़नेपर अन्यका घटना अनिवार्य है, तो भी महदादि कार्यकी उत्पत्तिमें दोनों सहयोगी बनते हैं। अवश्य ही जबतक उनका सम परिणाम चलता रहता है, तबतक वे कोई कार्य नहीं आरम्भ कर सकते, परंतु विषमता होनेपर प्रधानके अप्रधान सहयोगी हो जाते हैं, फिर कार्यका उत्पादन करते हैं और हर एक कार्यमें वे उपलब्ध भी होते हैं। यही चीज हर एक उपादानकारणके सम्बन्धमें कही जा सकती है। अगर ऑक्सीजन, हाइड्रोजन जलके कारण हैं, तो अवश्य ही उनमें संयोग अपेक्षित है। इसी तरह कार्यावस्थामें भी उनका अस्तित्व रहना ही चाहिये और कार्य भी कारणसे भिन्न होकर सर्वथा नयी वस्तु नहीं है। जैसे पटकी ही अवस्थाविशेष, उनका संकोच और प्रसार है, वैसे ही कारणकी अवस्थाविशेष ही कार्य है। इसीलिये जलसे पुनरपि हाइड्रोजन, ऑक्सीजन निकल आनेपर जल कुछ भी नहीं रह जाता है। भाव-अभावके समान उद्रजन, अम्लजनका विरोध नहीं होता। अतएव उनका सम्बन्ध होता है, सम्बन्धसे जल बनता है, किंतु भाव-अभावके सम्बन्धसे सत्-असत्के सम्बन्धसे किसी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती।
इसी तरह कहा जाता है कि ‘तर्कशास्त्रके अनुसार आरम्भ क्या है? यह कुछ (अस्तित्व) नहीं है; क्योंकि आरम्भमात्र है। लेकिन इसी कारणसे वह कुछ नहीं भी नहीं हो सकता। इस प्रकार आरम्भ न अस्तित्व है, न नास्तित्व है। साथ ही वह अस्तित्व, नास्तित्व—दोनों ही है। यही अस्तित्व-नास्तित्वकी एकता है। एकका दूसरेसे रूपान्तर है। संक्षेपमें यह होनेकी एक क्रिया है, जिसमें अस्तित्व और नास्तित्वकी साधारण बुनियाद है। इस तर्कको वास्तविकताके रूपमें देखा जाय तो श्याम एक मनुष्य है। जो एक मनुष्य-श्रेणीका है, जिसमें सब मनुष्य सम्मिलित हैं। श्यामका और अन्य मनुष्योंमें व्यावर्तक धर्मोंसे भेद होता है; जो कि एकमें होते हैं, दूसरेमें नहीं, इस तरह वे विशिष्ट अंशोंमें भिन्न होते हुए भी मनुष्यत्वेन समान हैं। उन चीजोंको देकर जो उनमें नहीं हैं, किंतु दूसरोंमें हैं। लेकिन इस प्रभेदका अर्थ यही है कि अपने विशिष्ट गुणोंके अलावा वह और मनुष्योंके समान है। इस प्रकार तार्किक दृष्टिसे श्यामका पूरा ज्ञान हो जाता है। जब उसकी कल्पना विशिष्ट ‘श्याम’ तथा सर्वसाधारण मनुष्योंके एकत्वके रूपमें की जाय।’
मार्क्सवादी इसे एक सहज और महान् सत्य कहते हैं। विशुद्ध सत् विशुद्ध असत्से अभिन्न है। विशेष गुणोंके द्वारा ही एक वस्तुको दूसरीसे अलग किया जा सकता है और इस अलग करनेका अर्थ ही है दो बातोंका एक साथ कहना। भावात्मकरूपसे वही वस्तु एक है और अभावात्मकरूपसे अन्य। इस प्रकार विचारमें एक वस्तुको दूसरेसे पृथक् करना हाँ और ना दोनों करना है और इसमें विरोध और पुनर्मिलन दोनों हैं। समरूपता और पार्थक्य-दोनोंका रहना आवश्यक है, नहीं तो एकको दूसरेसे पृथक् नहीं किया जा सकता।
‘यही तत्त्व है सत् और असत्के एकत्वका। हेगेलकी इस तार्किक प्रथाका रूप है वाद (थिसिस), प्रतिवाद (एन्टीथिसिस) और समन्वितवाद (सिन्थिसिस)। दूसरे शब्दोंमें भाव-अभाव, अभावका अभाव या प्रतिषेधका प्रतिषेध। इस त्रिगुट सम्बन्धकी विशेषता यह है कि ये एक साथ विराजमान रहते हैं। एकके बाद दूसरेका आविर्भाव नहीं होता। जब कहा जाता है कि ‘राम मनुष्य है’ तो राम और अरामका विरोध तथा उसका साथ-साथ इन सबकी कल्पना एक साथ हो जाती है। मनमें तर्ककी जो क्रिया होती है, उसमें इन दोनोंके पृथक्करणका पहले एक सिरा, फिर दूसरा सिरा और फिर दोनोंका सम्बन्धित अस्तित्व दीखता है। लेकिन वास्तवमें इस त्रिगुट सम्बन्धका अस्तित्व आरम्भसे ही है और तर्कक्रिया इस अस्तित्वको मान लेती है। हेगेलने लिखा है कि इस त्रिगुट क्रियाको हम चतुष्क्रियाके रूपमें भी देख सकते हैं। पहला है अविभाजित एक, दूसरा विभाजन, तीसरा भावात्मक तथा अभावात्मक, फिर विभाजितरूपमें उस एककी पुन: स्थापना। जीवन संघर्षमें अवयवद्वारा परिवर्तनीयता और वंशानुक्रमिकताके विरोधी ऐक्यका प्रदर्शन अवयवके विकासका मुख्य स्तम्भ है।’
विरोधियोंके एकत्वके नियमको हीगेलने इस भाषामें लिखा है—‘यह समझा जाता है कि भाव और अभावका अन्तर अमिट है। लेकिन तहमें ये दोनों चीजें एक हैं। कोई एक नाम दूसरेमें परिवर्तित हो सकता है। इस प्रकार जमा और उधार सम्पत्तिके दो विशेष प्रकार नहीं हैं। कर्ज लेनेवालेके लिये जो अभाव है, देनेवालेके लिये वह भाव है। पूरबका रास्ता पश्चिमका भी रास्ता है। भाव और अभाव एक-दूसरेके ऊपर निर्भर है और परस्पर सम्बन्धमें ही इनका रूप प्रकाशित है। चुम्बक पत्थरका उत्तरी ध्रुव बिना दक्षिणी ध्रुवके नहीं रह सकता। किसी चुम्बकको दो भागोंमें काटनेपर एक हिस्सेमें उत्तरी और दूसरेमें दक्षिणी ध्रुव नहीं रहता। इसी प्रकार बिजलीकी दो धाराएँ धनात्मक और ऋणात्मक, एक-दूसरेसे स्वतन्त्र नहीं होतीं।’
वस्तुत: उपर्युक्त बातें भी वागाडम्बरके अतिरिक्त कुछ नहीं हैं—यह पीछे कहा जा चुका है। किसी अपेक्षासे भावान्तर ही अभाव होता है। स्वरूपसे कोई भी वस्तु सत् है, किंतु वही अन्य रूपसे असत् है, परंतु स्वरूपसे ही कोई वस्तु सत्-असत् नहीं हो सकती। परमाणुवादियोंकी दृष्टिसे समवायी कारण तन्तुओंसे पटका आरम्भ होता है, जो पहले असत् ही रहता है। इसका असत्-कार्यवादकी दृष्टिसे खण्डन हो जाता है। असत् खपुष्प सहस्रों प्रयत्नोंसे निर्मित नहीं होता। अत: सत् ही कार्यकी अभिव्यक्ति मात्र कारकव्यापारोंसे होती है। इस स्थितिमें आरम्भके पहले, आरम्भकालमें तथा कार्य सम्पन्न होनेपर—इन तीनों अवस्थाओंमें भी कारणरूपसे कार्य सत् ही रहता है। अत: स्वेन रूपेण आरम्भ या आरब्ध वस्तु सत् ही है, ‘हाँ’ हाँ ही है, उसे ‘नहीं’ नहीं कहा जा सकता। इसलिये आरम्भको अस्तित्व-नास्तित्वकी एकता नहीं कहा जा सकता।
राम-श्याम नामका कोई मनुष्य भी हो सकता है। कोई भी मनुष्य अपनेमें असाधारणता भी रखता है और इतर साधारणता भी है। विशिष्ट रूपसे इतर भिन्नता और तदितर व्यापक सामान्य रूपसे अभिन्नता कहनेकी अपेक्षा यह कहना अधिक संगत है कि अमुक मनुष्यमें कुछ अपने असाधारण गुण हैं और कुछ मनुष्य-सामान्य-गुण। एक मनुष्य कुछ गुणोंकी अविशेषतासे ही इतर मनुष्योंसे भिन्न नहीं है। मनुष्यत्व सामान्य रहनेपर भी व्यक्तियोंमें परस्पर भिन्नता रहती है; अत: यह अस्तित्व-नास्तित्वकी एकताका उदाहरण नहीं कहा जा सकता। इस उदाहरणसे अस्तित्व-नास्तित्वकी एकाधिकरणता और विरोधपरिहार नहीं कहा जा सकता। विरोधका स्वरूप यही होता है कि—
यस्य यद्देशावच्छिन्नयत्कालावच्छिन्नयत्सम्बन्धावच्छिन्नयद्धर्मावच्छिन्नयदधिकरणता यत्र, तत्र तस्य तद्देशावच्छिन्नतत्कालावच्छिन्नतत्सम्बन्धावच्छिन्नतद्धर्मावच्छिन्नतदत्यन्ताभावो न सम्भवति।
जिस वस्तुका जिस देशमें, जिस कालमें, जिस सम्बन्धसे, जिस धर्मसे, जिस रूपसे जहाँ भाव रहता है, उस वस्तुका उसी देशमें, उसी कालमें, उसी सम्बन्धसे, उसी रूपसे अभाव नहीं कहा जा सकता। पर्वतमें धूमत्वेन धूम रहनेपर भी वह्नित्वेन धूम नहीं है, तो भी यह अभाव अग्निके अनुमानमें बाधक नहीं हो सकता। विशेष गुणोंके कारण विशिष्टकी सामान्यसे भिन्नताका अर्थ विलक्षणतामात्र है। इससे एक वस्तुमें सालक्षण्य-वैलक्षण्यका सह अस्तित्व सिद्ध होता है। नैयायिकोंके मतानुसार साधर्म्य-वैधर्म्य अनेक पदार्थोंमें सहावस्थित होते हैं; परंतु एतावता मूल वस्तुमें भेद नहीं सिद्ध होता। जैसे प्रसारित पट और संकुचित पटमें वैलक्षण्य प्रतीत होनेपर भी वस्तुमें भेद नहीं सिद्ध होता। व्यावर्तक भेदक धर्मसे वस्तुकी भिन्नता या व्यावृत्ति होती है। इसका अभिप्राय यही है कि—‘नीलमुत्पलम्’ नीलता कमलकी विशेषता है, इससे वह अनील श्वेत, अरुण आदि कमलोंसे भिन्न सिद्ध होता है। नीलताको छोड़कर वह अन्य कमलोंसे अभिन्न ही रहता है। यहाँके भेद-अभेद दोनों असमानता तथा समानताके ही बोधक हैं, भिन्नता अर्थात् भिन्नजातीयता अभिन्नता अर्थात् अभिन्नजातीयता।
परंतु इस समानजातीयता, असमानजातीयताका भेदाभेदके समान परस्पर विरोेध नहीं होता, क्योंकि कमल व्यापक है। नील कमल उसका ही अवान्तर भेद है, जैसे मनुष्यजातिके भीतर ब्राह्मणत्व आदि जातियाँ हैं। एक ब्राह्मणमें ब्राह्मणत्व भी है, मनुष्यत्व भी। इनका आपसमें कोई विरोध नहीं होता। यह भावात्मक-अभावात्मक वस्तुओंका एकीकरण नहीं कहा जा सकता। इतनेमात्रके लिये इतनी दूर भटकनेकी आवश्यकता नहीं। यों तो सहयोगी वस्तुओंमें भी भावात्मकता, अभावात्मकताका सह अस्तित्व किसी अपेक्षा-भेदसे मिलता ही है। यह विरोध परिहार स्वमन:परिकल्पित ही है। जैसे कोई अपने मनसे ही प्रेतकी कल्पना करके उससे संग्राम करता हो और कहता हो कि हमने अपने प्रतिद्वन्द्वीको हरा दिया, ठीक यह भी वैसा ही है।
भाव, अभाव एवं अभावका अभाव या वाद, प्रतिवाद, समन्वितवाद अथवा अविभक्त एक तथा उसका भावात्मक, अभावात्मक विभाजन, फिर विभक्त स्वरूपोंसे एक वस्तुकी स्थापना आदि कल्पना मनोरंजक अवश्य है, पर है सारशून्य ही। यह केवल बौद्धोंके विनाश (अभाव) कारणवादके आधारपर गढ़ी गयी है। बौद्धोंने देखा कि बीजसे अंकुर उत्पन्न होनेमें बीजका स्वरूप नष्ट हो जाता है; अत: अंकुरोत्पत्तिके अव्यवहितपूर्व क्षणवर्ती विनाश ही है; अत: विनाशहीको कारण मानना ठीक है, परंतु सांख्यों और वेदान्तियोंने उसका खण्डन किया है। यदि विनाश ही कारण है तो बीजदाहसे भी अंकुर उत्पन्न होना चाहिये। यदि अभाव ही कारण है तो वह तो सर्वत्र सुलभ है तो फिर कार्योत्पत्तिके लिये कारण-सामग्री ढूँढ़नेकी प्रवृत्ति क्यों होती है? फिर कार्यमें कारणांश सत्की अनुवृत्ति देखी जाती है। विनाश, अभाव या असत्की अनुवृत्ति नहीं देखी जाती। अत: भाव ही कार्यका कारण है, अभाव नहीं।
इस मण्डन एवं खण्डनसे प्रभावित होकर मार्क्सवादियोंने मूलबीजको अविभाजित एक वस्तु मान पुन: उसका विभाजन मानकर भाव, अभावकी कल्पना की और उनके समन्वयसे अंकुरकी उत्पत्ति मान ली, परंतु वस्तुत: यहाँ भाव-अभाव-जैसा विभाजन और उसके समन्वयका कोई प्रश्न ही नहीं उठता! विनाश, अभाव या असत्से न कोई कार्य उत्पन्न हो सकता है, न सत्-असत्का कोई सम्बन्ध हो सकता है। न ख-पुष्प, वन्ध्यापुत्रसे किसीकी उत्पत्ति हो सकती है, न किसीसे उनका कोई सम्बन्ध ही हो सकता है। बीजावयव ही अंकुरके कारण हैं और उन्हींका कार्यमें अनुवेध भी रहता है, परंतु एक उपादानमें कार्यान्तरकी उत्पत्तिके लिये पूर्वकायका तिरोधान आवश्यक होता है। इसीलिये बीजावस्थाका तिरोभाव नान्तरीयकरूपसे होता है।
अवयवद्वारा परिवर्तनीयता और वंशानुक्रमिकताके विरोधी ऐक्यका उदाहरण भी ऐसा ही है। जैसे आम्रादि बीजसे आम्रादि वृक्षकी उत्पत्ति होती है, वैसे ही मनुष्य, पशु आदि बीजोंसे ही मनुष्य, पशु आदि देहोंकी उत्पत्ति होती है। अवयवपरिवर्तनादिद्वारा गोलांगूल, मनुष्य आदिके विकासकी कल्पना सर्वथा अप्रमाणित है। उसमें मुख्य आपत्ति यह है कि उन-उन प्राणियोंकी परम्परा स्वतन्त्ररूपसे आज भी प्रचलित है, आज वैसा कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता। न तो पूँछ घिसनेसे आज कोई मनुष्य बनता है और न मनुष्यसे आगे कोई विकसित वर्ण दिखायी देता है। न कोई मनुष्यका अंग बढ़ रहा है और न कोई घट रहा है। यों परिणामवादमें कार्योंके रूपमें भिन्नता और कारणात्मना अभिन्नताका सिद्धान्त मान्य है ही। इसका तत्त्व भेदाभेद विवेचनमें आ चुका है।
हीगेलके दृष्टान्तोंसे भाव-अभाव, सत्-असत्का विरोध मिट नहीं सकता। जमा-उधार, लेना-देना; ऋण-धन, पूर्व-पश्चिम आदिमें भाव, अभावकी अपेक्षा बुद्धिजन्य कल्पनामात्र है। उनकी सम्पत्ति या रास्तेके एक स्थानमें ऋण-धन और पूर्व-पश्चिमकी एकता हो सकती है; परंतु क्या इसी तरह उसी देशमें, उसी कालमें, उसी सम्बन्धसे, उसी रूपमें, उसी घटका भाव और उसीका अभाव साथ-साथ रह सकता है? क्या इसी तरह मित्रापुत्र और वन्ध्यातनयका सह अस्तित्व हो सकता है? वस्तुस्थिति यह है—‘क्वचिदप्युपाधौ सत्त्वेन प्रतीयमानत्वानधिकरणत्व’ ही असत् है, अर्थात् जो किसी भी उपाधि या अधिकरणमें सत्त्वेन प्रतीत न हो, वही असत् है। जो प्रातिभासिक रजतादि कहीं शुक्तिकादिमें सत्त्वेन प्रतीत होता है, वह शुक्ति रजतादि प्रातिभासिक सत् है। कारण ब्रह्ममें सत्त्वेन प्रतीत आकाशादि व्यावहारिक सत् है और अत्यन्ताबाध्य स्वप्रकाशरूपसे भासमान सत् पारमार्थिक सत् है। ऐसे सत्-असत्की भी यदि एकता हो सकती है, तब संसारमें विरोध क्या है। फिर शोषक-शोषित वर्गोंका ही अमिट विरोध क्यों? उनमें तो एकता स्पष्ट ही है। दूसरोंके भक्षक जंगली जानवर या पानीकी मछली आदि स्वयं ही दूसरोंद्वारा भक्षित होते हैं, फिर यहाँ तो एक स्थानमें ही शोषकत्व, शोषितत्व स्पष्ट है। वस्तुत: सत्-असत्का भेद अपेक्षाबुद्धिजन्य कल्पनामात्र नहीं है। हाँ, जहाँ भावान्त ही अभाव है, वहाँ विरोधकी चर्चा व्यर्थ है।
पटाभाव घट स्वरूप है, अत: घटका, पटाभावका कोई विरोध नहीं है; एतावता घटाभावका भी घटके साथ विरोध नहीं है, यह कहना उपहासास्पद ही है। साथ ही भाव, अभाव एक-दूसरेके ऊपर निर्भर है—इसका दो अर्थ हो सकता है। एक तो यह कि अभाव किसी वस्तुका और किसी अधिकरणमें होता है, अर्थात् प्रतियोगिनिरूपक (जिसका अभाव हो) और दूसरा अनुयोगी, (जैसे ‘भूतले घटो नास्ति’ ‘भूतलमें घट नहीं है’)। भूतलका तथा घटका ज्ञान हुए बिना घटाभावका ज्ञान नहीं हो सकता। अभाव अधिकरणस्वरूप है, इस दृष्टिसे अनुयोगिस्वरूप तो अभाव कहा जा सकता है; परंतु अभाव और प्रतियोगी भी कभी एक हो जाते हों, ऐसी बात नहीं है।
इसके अतिरिक्त अभाव तो अवश्य ही अनुयोगी-प्रतियोगीकी अपेक्षा रखता है; परंतु भाव इस प्रकार अभावकी अपेक्षा नहीं रखता। निरुपाख्य असत्त्व इससे भी अधिक अव्यवहार्य है। चुम्बकके उत्तरी ध्रुव, दक्षिणी ध्रुव एवं बिजलीकी धनात्मक-ऋणात्मक दो धाराएँ परस्पर विरोधी होनेपर भी भावरूप हैं। उनका जुट सकना सम्भव है, परंतु इसी तरह भाव-अभाव, सत्-असत्का जुटना असम्भव है। उपर्युक्त विरोध सत्त्व, रज, तमके विरोध-जैसा है, जो कि विरोध होनेपर भी समन्वित होकर कार्यारम्भक होते हैं। इस प्रकार भाव-अभाव, सत्-असत्का समन्वय होकर कार्यारम्भकता सम्भव नहीं है।
कहा जाता है कि ‘प्रकृतिके दृश्यगत घटनाओंके मूलमें भूतकी गति है। इसका विरोध स्पष्ट है। यदि कोई पूछे कि कोई गतिशील पदार्थ किसी विशेष समयपर किसी स्थानपर है या नहीं, तो युवेरवेगके नियमके अनुसार इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता कि ‘हाँ’ ‘हाँ’ है और ‘नहीं’ ‘नहीं’ है। गतिशील पदार्थ एक बिन्दुपर है भी और नहीं भी है। इसका विचार इसी संकेतसे किया जा सकता है कि ‘हाँ’ ‘नहीं’ है और ‘नहीं’ ‘हाँ’। गतिशील पदार्थ ‘विरोधके तर्क’ की अकाटॺ दलील है और जो इस तर्कको नहीं मानता, उसको जैनोंके साथ कहना पड़ेगा कि गति इन्द्रियोंका भ्रममात्र है। जो ऐसा नहीं मानते, उन्हें या तो युवेरवेगके तर्कशास्त्रके बुनियादी नियमको मानकर गतिका त्याग करना पड़ेगा अथवा गतिको मानकर इस बुनियादी नियमका परिहार करना होगा।’ पहले ही कहा जा चुका है कि प्रकृतिकी दृश्यगत घटनाओंकी बुनियादी बात है भूतकी गति। लेकिन गति एक विरोध है। इसका विचार द्वन्द्वमानके नियमसे किया जाना चाहिये। अर्थात् इस संकेतसे कि ‘हाँ’ नहीं है और ‘नहीं’ ‘हाँ’ है। इसलिये यह मानना पड़ेगा कि दृश्यगत घटनाओंके सम्बन्धमें हम विरोधी तर्कके राज्यमें हैं। लेकिन गतिशील भूतके अणुओंके संयोगसे वस्तुओंकी सृष्टि होती है। यह संयोग कम या अधिक क्षणस्थायी होकर तिरोहित हो जाता है और दूसरे संयोग इसका स्थान ले लेते हैं। जो अनन्त है, वह है भूतकी गति। जब बाहरी गतिके कारण भूतके एक विशिष्ट संयोगका आविर्भाव होता है और गतिहीके कारण जबतक उसका अन्तर्धान नहीं होता, तबतक इसके अस्तित्वके प्रश्नको भावात्मकरूपसे ही हल किया जा सकता है। यही कारण है कि यदि कोई बुधग्रहको दिखाकर हमसे पूछे कि उसका अस्तित्व है या नहीं? तो हम नि:संकोच यह उत्तर देंगे कि ‘हाँ’ है। इसका अर्थ यह है कि स्पष्ट वस्तुओंके सम्बन्धमें हम युवेरवेगके ही नियमका अनुसरण करेंगे। इस राज्यमें ‘हाँ’ ‘हाँ’ है और ‘नहीं’ ‘नहीं’ का ही संकेत लागू होता है। लेकिन इस नियमका राज्य अबाध नहीं है। जब कोई वस्तु उत्पत्तिकी अवस्थामें है तो उसका उत्तर देनेमें कुछ संकोच नहीं होता। जब किसी मनुष्यके सरके बाल काफी उड़े देखे जाते हैं, तो कहा जाता है कि वह गंजा है। लेकिन वह कब पूरा गंजा हो जायगा, ठीक उस मुहूर्तका निश्चय नहीं किया जा सकता।
‘किसी विशिष्ट प्रश्नका कि अमुक वस्तुका अमुक गुण है या नहीं, ‘हाँ’ या ‘ना’ में ही उत्तर दिया जा सकता है। लेकिन जब कोई वस्तु परिवर्तनकी स्थितिमें है, किसी विशेष गुणका उसमें संयोग या वियोग हो रहा हो, तब इसका उत्तर दिया जा सकता है—‘हाँ’ ‘नहीं’ है तथा ‘नहीं’ है ‘हाँ’। युवेरवेगके नियमके अनुसार इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता। यह एतराज किया जा सकता है कि जिस गुणका वियोग हो रहा है, उसका अभी अन्तर्धान नहीं हुआ और जिस गुणका संयोग हो रहा है, अभी वह पहलेसे ही वर्तमान है। इसलिये ‘हाँ’ या ‘ना’ में इसका उत्तर असम्भव नहीं, किंतु बाधितामूलक है, चाहे वह वस्तु परिवर्तनहीकी क्रियामें क्यों न हो। लेकिन यह एतराज गलत है। जिस युवककी ठोढ़ीपर दाढ़ीकी रेखा उग रही हो, उसको दाढ़ीवाला नहीं कहा जायगा; यद्यपि यह रेखा धीरे-धीरे दाढ़ीमें परिणत हो रही है। गुणात्मक परिवर्तनके लिये परिमाणकी एक सीमातक पहुँचना आवश्यक है। जो इसको भूलता है, वह वस्तुओंके गुणोंके सम्बन्धमें स्पष्ट राय नहीं दे सकता।’
सिद्धान्तत: भूत स्वयं प्रकृतिका कार्य है, प्रकृतिके गुण भूतमें भी रहते हैं। सभी घटनाओंका मूल ईश्वर चेतनाधिष्ठित प्रकृति है। ‘चञ्चलगुणवृत्तम्’ के अनुसार प्रकृति क्षण-परिणामशील या गतिशील है। सुतरां तत्तत्परिणामभूत सभी कार्य भी गतिशील हैं, परंतु परिच्छिन्न कोई पदार्थ समकालमें अनेक स्थानमें नहीं हो सकता। अवश्य ही वह जिस समय किसी स्थलमें है, उसी समय तदन्यस्थलमें नहीं कहा जा सकता। कितनी भी तीव्रगति किसीकी क्यों न हो, फिर भी एक ही देशकालमें उसका भाव-अभाव नहीं कहा जा सकता। काल बड़ा सूक्ष्म होता है, अत: किसी स्थलपर समकालमें गतिशील पदार्थका अस्तित्व, नास्तित्व नहीं कहा जा सकता। उसी वस्तुको रूपान्तरसे भाव एवं रूपान्तरसे अभाव कहना सम्भव है, परंतु उसी रूपसे भाव-अभाव—दोनों कोटि-कोटि प्रयत्नोंसे भी सम्भव नहीं हैं, तीव्रगामी बाण या तलवारसे समवेत सहस्र कमलपत्रका छेदन समकालमें ही प्रतीत होता है। पापड़ खाते समय समकालमें ही शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धकी प्रतीति समकालमें मालूम पड़ती है, फिर भी सर्वत्र क्रमिकता ही है। हाँ, क्रम इतना सूक्ष्म है कि परिलक्षित नहीं होता, फिर भी उसका अनुमान तो होता ही है। इस तरह अति तीव्रगतिमें, अतिसूक्ष्मकालमें अस्तित्व-नास्तित्वका क्रम भी बदल जाता है। इसीलिये अस्तित्व-नास्तित्व एकत्र स्थलमें क्रमिक ही रहता है; समकालिक नहीं। सामान्य गतिमान् पदार्थका जब विभिन्न स्थानीय अस्तित्व, नास्तित्व, भिन्नकालिक है, तो इसी तरह तीव्र गतिमान् पदार्थोंका भी एकत्र अस्तित्व, नास्तित्व भिन्नकालिक ही मानना उचित है। इस तरह उसे अकाटॺ तर्क समझना भ्रम ही है।
युवेरवेग हो या कोई और हो, यौक्तिक विचारमें जिसका पक्ष उचित हो ग्रहण करना चाहिये। अयुक्तियुक्त किसीका भी मत त्याज्य होना चाहिये। किसी भी नियमसे सत् असत्, असत् सत् नहीं हो सकता। द्वन्द्वमानकी बाजीगरी भी इस सम्बन्धमें व्यर्थ ही है। सिर्फ घटका स्वेन रूपेण अस्तित्व है, अन्यरूपेण नास्तित्व है। इसके सिवा अस्ति, नास्तिकी एकत्र अवस्थिति सर्वथा असम्भव है। गतिशील परमाणुओंके संयोगसे दृश्य वस्तुओंका निर्माण हो अथवा प्रतिक्षण परिणामी प्रकृति-तत्त्वका परिणामस्वरूप दृश्य वस्तु हो, उसकी अस्थिरता निश्चित है। फिर भी वस्तुके भाव-अभावमें सन्देह नहीं होना चाहिये। सन्देह होता है स्थिरता एवं अस्थिरतामें।
नदीप्रवाह एवं दीपशिखामें स्थूलदृष्टिसे स्थिरता एवं एकता प्रतीत होती है, किंतु वस्तुत: उनमें स्थिरता-एकता सादृश्यमूलक भ्रम ही है। गगन, पर्वत, समुद्र, नक्षत्रादि—सभीमें स्थिरता, एकता, प्रत्यभिज्ञा इसी प्रकार सादृश्यमूलक भ्रम ही है। फिर भी अविचारित रमणीय एकता आदिका व्यवहार चलता ही है। सदृश परिणाम जबतक चलता है, तबतक एकता विसदृश परिणाम होनेसे ही भिन्नता, अनेकताकी प्रतीति होने लगती है। सदृश-विसदृश किसी भी परिणाममें अस्तित्व तो रहता ही है, आविर्भाव, तिरोभावके आधारपर होनेवाले भाव-अभावके व्यवहारमें भी क्रम अनिवार्य है। समकालमें, समदेशमें, समसम्बन्धसे, समरूपसे एक ही वस्तुका भाव या अभाव नहीं रह सकता। यह पर्वतवत् अकम्प्य विरोध है, यह कहा जा चुका है। प्रमाणकी दृष्टिसे सब स्पष्ट ही होता है, अस्पष्ट नहीं। सिरके अधिकांश बालोंके उड़ जानेपर भी हम यही कह सकते हैं कि ‘वह खल्वाट हो रहा है।’ जिसे पूरे मुहूर्तका पता लगाना अभीष्ट है, उसे घड़ी लेकर त्राटक लगाकर बैठना ही पड़ेगा। जिसे गर्दभके बालोंकी जिज्ञासा है, उसे गिननेका श्रम करना ही पड़ेगा। जैसे अमुक वस्तुका अमुक गुण है या नहीं, इस प्रश्नका उत्तर हाँ या नहीं में देना उचित है; वैसे ही परिवर्तनकी हालतमें भी निश्चित उत्तर दिया ही जा सकता है।
सांख्यीय सत्कार्यवादके अनुसार छोटे-से वटबीजके अन्दर वटवृक्षकी सत्ता है, तभी उसका प्रादुर्भाव होता है। फिर भी जबतक उसका आविर्भाव नहीं है, तबतक अभावका व्यवहार चलता है और जिस कालमें अंकुर, नाल, स्कन्ध, शाखा, उपशाखा, पत्र, पल्लवादिकी अवस्था है, उस कालमें स्पष्टतया उसी रूपमें उसका भाव, अन्य रूपमें अभाव कहनेमें कोई अड़चन नहीं हो सकती। युवककी ठोढ़ीमें बालोंकी जो अवस्था है, उसी रूपमें उसका भाव अन्यरूपमें अभाव कहनेमें भी कोई अड़चन नहीं। उसी भूतलपर देश-कालभेदसे, सम्बन्ध तथा रूपभेदसे, घटके भाव-अभावका व्यवहार होता ही है। वस्तुओं तथा उसके गुणके सम्बन्धमें यही स्पष्ट मत है। ‘हाँ’ नहीं है, ‘नहीं’ हाँ है, यह मत कभी भी स्पष्ट मत नहीं कहा जा सकता। कारणमें कार्यका अस्तित्व रहता है, इसलिये बीजमें भी अंकुर है। युवक क्या, शिशुकी भी ठोढ़ीमें बालोंका अस्तित्व है। जबतक आविर्भाव नहीं है, तबतक अंकुरके तुल्य बालोंका भी अभाव है। जितना प्रादुर्भाव है, उतनेका भाव, जितनेका नहीं, उतनेका अभाव है, इससे अधिक स्पष्टता क्या हो सकती है।
एफीसियसका प्राचीन दार्शनिक कहता है कि ‘सभी चीजें परिवर्तनशील हैं, सभी परिवर्तित हो रही हैं। जिन संयोगोंको हम वस्तु नाम देते हैं, वे सदा ही परिवर्तनकी स्थितिमें हैं।’ जबतक ऐसे संयोगोंका अनुपात कायम रहता है, उनका विचार हम हाँ-हाँ और नहीं-नहींके संकेतसे कर सकते हैं। लेकिन जिस समय उनमें ऐसा परिवर्तन होता है कि वह पहला अनुपात नहीं रहता, तब उनका विचार विरोधके तर्कसे ही हो सकता है। हमें हाँ और ना दोनोंमें उत्तर देना पड़ेगा। वह है भी और नहीं भी है।
‘जैसे स्थिरता गतिका एक विशिष्ट प्रकार है, उसी तरह साधारण तर्कशास्त्र द्वन्द्वमान तर्कका एक विशेष प्रकार है।’ प्लेटोके शिष्य क्रैटिलसके विषयमें कहा जाता है कि जब हेराक्लिट्सने कहा कि एक ही नदीमें हम दो बार प्रवेश नहीं कर सकते, तब उसने कहा कि एक बार भी हम उसमें प्रवेश नहीं कर सकते; क्योंकि प्रवेश करते-करते उसमें परिवर्तन होता रहता है। वह एक दूसरी नदी हो जाती है। ऐसी रायमें होनेकी क्रियाको उसके अस्तित्वसे अधिक महत्त्व दिया जाता है। यह द्वन्द्वमानका अपव्यवहार है। हीगेलका कहना है कि ‘कुछ’ सर्वप्रथम ‘प्रतिषेधका प्रतिषेध’ है। द्वन्द्वमान और भौतिकवादका आपसमें कोई विरोध नहीं है। वास्तवमें द्वन्द्वमानकी बुनियाद ही भौतिकवाद है। यदि प्रकृतिकी भौतिकवादी धारणाका अन्त हो जाय तो साथ ही द्वन्द्वमानका भी अन्त हो जायगा।
हीगेलकी प्रथामें ‘द्वन्द्वमान और अतिभौतिकवाद दोनों समानार्थसूचक हैं। मार्क्सीय दर्शनमें द्वन्द्वमान प्राकृतिक सिद्धान्तके सहारे खड़ा है। हीगेलके अनुसार धारणाओंमें जो विरोध है, उनके आविष्कार और हलसे ही विचारधारा आगे बढ़ती है। भौतिकवादी सिद्धान्तके अनुसार धारणाओंमें अवस्थित विरोध उन विरोधोंके प्रतिबिम्बमात्र हैं, जो दृश्यगत जगत् वर्तमान हैं और जिनका मूल कारण प्रकृतिका अन्तर्विरोध यानी उसकी गति है।’
एफीसियसके प्राचीन दार्शनिककी दृष्टि भी इस सम्बन्धमें भ्रमात्मक ही है। सूक्ष्मकालभेदके अनुसार सूक्ष्मपरिवर्तित अवस्थाओंका भी सुस्पष्ट अस्ति या नास्तिरूपसे निरूपण किया जा सकता है। अनिश्चित अवस्था सदा ही अज्ञानकी अवस्था है, प्राकृतिक एवं यान्त्रिक प्रत्यक्ष साधनों, अनुमानों या आर्षविज्ञानों अथवा अपौरुषेय आगमोंके आधारपर उस अज्ञानको मिटाना ही उचित है। उभयत: आकर्षणकी स्थिरता एक गतिका प्रकार भले मान्य हो, परंतु सब गतियों एवं गतिमानोंकी अधिष्ठानभूत आत्मसत्ता गतिका प्रकारविशेष नहीं है। एकत्व-भ्रमके मूल कारण सादृश-ज्ञानके लिये ‘तेनेदं सदृशम्’ ‘के ते नेदं सदृशम्’ जाननेके लिये अनेककालावस्थायी द्रष्टाको स्वत: स्थिर मानना पड़ता है। इसीलिये सांख्योंने सब पदार्थोंको क्षणपरिणामी मानते हुए भी चित्-शक्तिको कूटस्थ माना है—
‘क्षणपरिणामिनो हि भावा ऋते चितिशक्ते:।’
व्यवहारमें गतिमान, पशुपक्ष्यादि जंगम तथा स्थावर भूमि-पर्वतादि स्वतन्त्ररूपसे मान्य है। अत: गतिविशेष ही स्थिरता है, यह दृष्टान्त ही असंगत है।
इस तरह सत्को असत्, असत्को सत् कहनेवाला द्वन्द्वमान कोई तर्क ही नहीं है। नदीके प्रथम प्रवेशकालमें ही नहीं, किंतु प्रतिक्षण भिन्नता क्रैटिलससे बहुत पहले भारतीय दर्शनोंने बता रखा है—
नित्यदा ह्यङ्ग भूतानि भवन्ति न भवन्ति च।
कालेनालक्ष्यवेगेन सूक्ष्मत्वात्तन्न दृश्यते॥
यथार्चिषां स्रोतसां च फलानां वा वनस्पते:।
तथैव सर्वभूतानां वयोऽवस्थादय: कृता:॥
सोऽयं दीपोऽर्चिषां यद्वत् स्रोतसां तदिदं जलम्।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर्धीर्मृषायुषाम्॥
(श्रीमद्भा० ११।२२।४२—४४)
नित्य ही भूतोंकी उत्पत्ति और प्रलय अलक्ष्य वेगवाले कालद्वारा होता रहता है। सूक्ष्म होनेके कारण वह प्रतीत नहीं होता। दीपादि अग्नि-ज्वालाओं, सरिताओं, फलों तथा वनस्पतियों एवं सभी भूतोंका वय एवं अवस्थाओंके अनुसार क्षण-क्षणपर उत्पत्ति और प्रलय होता रहता है। क्षण-परिवर्तनशील होनेपर भी ‘यह वही दीप है, यह वही जल है, यह वही पुत्रादि है,’ इस प्रकारकी प्रत्यभिज्ञा—पहचान तथा एकत्व-बुद्धि भ्रान्तिसे ही है।
पदार्थ तो सभी प्रतिषेधके प्रतिषेध हैं, परंतु यदि पहला प्रतिषेध भ्रमात्मक हो तभी जो प्रमात्मक घटके निषेधका निषेध है अथवा घटध्वंसका ध्वंस है, वह ध्वंस घटरूप नहीं हो सकता। अत: द्वन्द्वमानके तर्काभाससे व्यापक नियमोंका बाध नहीं हो सकता। इसीलिये भूत, भौतिक प्रपंच या भौतिकवाद या किसी वादके साथ द्वन्द्वमानका अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। तर्क, प्रतितर्क, निष्कर्ष, वाद, प्रतिवाद, समन्वय या सिद्धान्त सर्वत्र आदरणीय हैं, परंतु इससे द्वन्द्वमान नामकी कोई स्वतन्त्र प्रमाण वस्तु सिद्ध नहीं होती। मार्क्सवादीके कथनानुसार भौतिकवादी धारणाका अन्त हो जाय, तो द्वन्द्वमानका ही अन्त हो जायगा, परंतु मार्क्सके गुरु हीगेलने, जो द्वन्द्ववादका आविष्कारक माना जाता है, अतिभौतिकवाद और द्वन्द्वमानको समानार्थक माना है।
इस तरह मार्क्सका भौतिक द्वन्द्वमान आविष्कारकके मतसे ही विरुद्ध है। हीगेलके मतानुसार यह ठीक है कि तर्क-प्रतितर्क वादसे पक्ष-विपक्षका साधन, बाधन, विरोधोद्भावन तथा विरोध-परिहारसे विचारधारा आगे बढ़ती है, परंतु फिर भी उसकी सीमा है। तर्क या विचारधारा तत्त्वनिर्णयावसान ही होता है। तत्त्व-निर्णयके बाद वह व्यर्थ ही नहीं, अनिष्टकर भी है, परंतु विचारगत विरोध बाह्य वस्तुओंमें भी होना ही चाहिये, यह अनिवार्य नहीं है। अनेक प्रकारके दोषोंसे विचारोंमें भिन्नता होते हुए भी वस्तुओंमें भिन्नता नहीं होती। एक ही रज्जुमें सर्प, धारा, माला, भूछिद्रादि अनेक विचार उत्पन्न होते हैं; परंतु वस्तु एक ही है, उसमें कोई भेद नहीं। ‘प्रपंचका मूल क्या है, आत्मा क्या है’, इस सम्बन्धमें वस्तुस्थिति एक रहनेपर भी तर्कों, प्रतितर्कों तथा विचारोंमें पर्याप्त भिन्नता होती है। तर्कोंमें बाह्य वस्तुओं एवं उनकी विचित्रताओंका असर होता है, यह अवश्य है। महाकारण ईश्वर या प्रकृति या भूत व्यापक होते हैं। उनसे विविध, विचित्र कार्य उत्पन्न होते हैं, तदनुकूल विचित्र अवस्थाएँ उद्भूत होती हैं। इनसे भिन्न अन्तर्विरोध नामकी कोई वस्तु नहीं है। कहा जाता है ‘हीगेलके अनुसार घटनाओंका विस्तार, विचार-विस्तारसे विदित होता है’, परंतु भौतिकवादमें विचारका विस्तार वस्तुओंके विकासपर निर्भर है।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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