10.4 वर्गवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.4 वर्गवाद

मार्क्सके मतसे ‘भारतमें औद्योगिक विकाससे होनेवाला परिवर्तन यूरोपके प्रभावसे देरमें आरम्भ हुआ, बल्कि अभी शनै:-शनै: हो रहा है और पूरे रूपमें हो भी नहीं पाया, स्त्रियोंकी अवस्थामें भी परिवर्तन अभीतक यहाँ नहीं हो पाया है। जनसाधारण या जमींदार-श्रेणी और पूँजीपति-श्रेणीकी स्त्रियाँ इस देशमें अभीतक उसी अवस्थामें हैं, परंतु मध्यम श्रेणीकी स्त्रियोंकी अवस्थामें—जिनपर आर्थिक परिवर्तनका प्रभाव गहरा पड़ा है, परिवर्तन तेजीसे आ रहा है।’
‘यूरोपमें जहाँ पूँजीवाद पूर्ण उन्नति कर चुकनेके बाद ठोकरें खाने लगा है, स्त्रियोंकी अवस्था पुरुषोंकी अपेक्षा जीवन-निर्वाहके संघर्षमें कम योग्य होनेके कारण पुरुषोंसे भी गयी-बीती है। बेकारी और जीवन-निर्वाहकी तंगीके कारण लोग ब्याहकर परिवार पालनेके झगड़ेमें नहीं फँसना चाहते, इसलिये स्त्रियोंके लिये घर बैठकर बच्चे पालने और निर्वाहके लिये रोटी-कपड़ा पाते रहनेका भी मौका गया। अब उन्हें भी मिलों, कारखानों, खानों, खेतों और दफ्तरोंमें मजदूरीकर पेट पालना पड़ता है। यदि उनका विवाह हो जाता है तो माता बननेका उनका काम ज्यों-त्यों निभ जाता है और वे फिर मजदूरी करने चल देती हैं। यदि विवाह नहीं हुआ और शरीरकी स्वाभाविक प्रवृत्तिके कारण वे माता बन गयीं तो उनकी मुसीबत है। प्रसवकी अवस्थामें उनके निर्वाहका सवाल बहुत कठिन हो जाता है और प्रसवकालमें ही उन्हें सहायताकी अधिक आवश्यकता रहती है। प्रसवकालमें यदि वे कामपर नहीं जा सकतीं तो उनकी जीविका छूट जाती है और प्रसवकालके बाद जब उन्हें एकके बजाय दो जीवोंकी जरूरतोंको पूरा करना पड़ता है, तो वे बिना साधनके हो जाती हैं। इससे समाजमें उत्पन्न होनेवाली संतानके पोषण और अवस्थापर क्या प्रभाव पड़ता है, यह समझ लेना कठिन नहीं।’
‘स्त्रियोंकी इस अवस्थाके कारण देशकी जनताके स्वास्थ्यपर जो बुरा प्रभाव पड़ता है, उसके कारण अनेक पूँजीवादी सरकारोंने स्त्रियोंकी रक्षाके लिये मजदूरीसम्बन्धी कुछ नियम बनाये हैं। जिनके अनुसार मिल-मालिकोंको प्रसवके समय स्त्रियोंको बिना काम किये कुछ तनख्वाह देनी पड़ती है और बच्चा होनेपर मिलमें काम करते समय माँको बच्चेको दूध आदि पिलानेकी सुविधा भी देनी पड़ती है। इन कानूनी अड़चनोंसे बचनेके लिये मिलें प्राय: विवाहित स्त्रियोंको और खासकर बच्चेवाली स्त्रियोंको मिलमें नौकरी देना पसन्द नहीं करतीं। यूरोपमें अस्सी या नब्बे प्रतिशत लड़कियाँ विवाहसे पहले किसी-न-किसी प्रकारकी मजदूरी या नौकरीकर अपना निर्वाह करती हैं या अपने परिवारको सहायता देती हैं, परंतु विवाह हो जानेपर उन्हें जीविका कमानेकी सुविधा नहीं रहती। इन कारणोंसे स्त्रियाँ विवाह न करने या विवाह करनेपर भी गर्भ हटा देनेके लिये मजबूर होती हैं। जीविकाका कोई उपाय न मिलनेपर उन्हें अपने शरीरको पुरुषोंके क्षणिक आनन्दके लिये बेचकर अपना पेट भरनेके लिये मजबूर होना पड़ता है।’
‘वैयक्तिक सम्पत्तिके आधारपर कायम पूँजीवादी-समाजमें स्त्री व्यक्तिकी सम्पत्ति और मिल्कियतका केन्द्र होनेके कारण या तो पुरुषके आधिपत्यमें रहकर उसके वंशको चलाने, उसके उपयोग-भोगमें आनेकी वस्तु रहेगी या फिर आर्थिक संकट और बेकारीके शिकंजोंमें निचोड़े जाते हुए समाजके तंग होते हुए दायरेसे, अपनी शारीरिक निर्बलताके कारण—जिस गुणके कारण वह समाजको उत्पन्न कर सकती है, समाजमें जीविकाका स्थान न पाकर केवल पुरुषके शिकारकी वस्तु बनती जायगी। पर यह अवस्था है साधनहीन गरीब और मध्यम श्रेणीकी स्त्रियोंकी। साधन-सम्पन्न और अमीर श्रेणीकी स्त्रियाँ यद्यपि भूख और गरीबीसे तड़पती नहीं, परंतु उनके जीवनमें भी आत्मनिर्णय और विकासका द्वार बन्द रहता है।’ मार्क्सके अनुसार ‘समाजमें स्त्रियोंका समान अधिकार होनेके लिये उन्हें भी समाजमें पैदावारके कार्यमें सहयोग देनेका अवसर मिलना चाहिये।’ मार्क्सवाद इस बातको स्वीकार करता है कि ‘समाजमें संतान उत्पन्न करना न केवल स्त्रीके, बल्कि सम्पूर्ण समाजके सभी कामोंमें महत्त्वपूर्ण काम है; क्योंकि मनुष्य-समाजका अस्तित्व इसीपर निर्भर करता है। इस महत्त्वपूर्ण कार्यके ठीक रूपसे होनेके लिये अनुकूल परिस्थितियाँ होनी चाहिये। स्त्रीको संतानोत्पत्ति मजबूर होकर या दूसरेके भोगका साधन बनकर न करनी पड़े, बल्कि वह अपने आपको समाजका एक स्वतन्त्र अंग समझकर, अपनी इच्छासे संतान पैदा करे। संतान पैदा करनेके लिये समाजकी सभी स्त्रियोंके लिये ऐसी परिस्थितियाँ होनी चाहिये, जो स्वयं स्त्री और संतानके स्वास्थ्यके लिये अनुकूल हों। गर्भावस्थामें स्त्रीके लिये इस प्रकारकी परिस्थिति होनी चाहिये कि वह अपने स्वास्थ्यको ठीक रख सके और स्वस्थ संतानको जन्म दे सके, परंतु पूँजीवादी-समाजमें साधनहीन तथा पूँजीपति दोनों ही श्रेणियोंके लिये ऐसी परिस्थितियाँ नहीं हैं। साधनहीन श्रेणीकी स्त्रियोंको गर्भावस्थामें उचितसे अधिक परिश्रम करना पड़ता है और पूँजीवादी श्रेणीकी स्त्रियाँ बिलकुल निष्क्रिय रहनेके कारण जैसी संतान पैदा करना चाहिये, वैसी नहीं कर पातीं।’
‘समाजवादी और समष्टिवादी-समाजमें स्त्री भी समाजका परिश्रम या पैदावार करनेवाला अंग समझी जाती है। उसे केवल पुरुषके भोग और रिझावका साधन नहीं समझा जाता। ‘मार्क्सवाद’ मनुष्यमें आनन्द, विनोद और रिझावकी जगह भी स्वीकार करता है, परंतु उसमें पुरुषको प्रधान बनाकर स्त्रीको केवल साधन बना देना उसे स्वीकार नहीं। पूँजीवादी-समाजमें स्त्री अपने माता बननेके लिये कार्यके कारण पुरुषके सामने आत्मसमर्पण करनेके लिये मजबूर होती है (क्योंकि पुरुष जीविका कमाकर लाता है)। समाजवाद और समष्टिवादमें स्त्रीके गर्भवती होने, प्रसवकाल और उसके बाद जबतक वह फिर परिश्रमके काममें भाग लेनेके योग्य न हो जाय, स्त्रीकी आवश्यकताओंकी पूर्ति और स्वास्थ्यकी देख-भालकी जिम्मेदारी समाजपर होगी। प्रसवसे दो-ढाई मास पूर्वसे लेकर प्रसवके एक मास पश्चात्तक वह समाजके खर्चपर रहेगी। संतान पैदा होनेके बाद समाज जो काम उसे करनेके लिये देगा, उसमें बच्चेकी देख-भालका समय और सुविधा भी उसे देगा। बच्चेके पालने-पोसने और शिक्षाकी जिम्मेदारी भी गरीब स्त्रीके ही कन्धोंपर न होकर समाजके सिर होगी। इस प्रकार संतान पैदा करना स्त्रीके लिये भय और मुसीबतका कारण न होकर उत्साह और प्रसन्नताका विषय होगा।’
उपर्युक्त मार्क्सवादी मन्तव्यसे यह स्पष्ट है कि मार्क्सवादियोंको स्त्री-हितसे उतना प्रयोजन नहीं है, जितना कि स्त्रीको अपने पति-पुत्रादि परिवारसे विच्छिन्नकर उसे समाजकी वस्तु बनानेसे है। स्पष्ट है कि पतिको अपनी पत्नीमें जितनी प्रीति है, पुत्रको अपनी मातामें जितना स्नेह है, उतनी प्रीति, उतना स्नेह समाजकी साधारण वस्तुमें समाजका क्यों होगा? जेलों एवं अनाथालयोंमें भी स्त्रियों-पुरुषोंको भोजन मिलता है, वस्त्र मिलते हैं, इलाज मिलता है और गर्भ तथा प्रसवकालमें बहुत-सी सुविधाएँ भी मिलती हैं, परंतु क्या स्वाधीनतापूर्वक गरीबी हालतके भी जीवनका सुख उपर्युक्त स्थितिमें सम्भव है? पति, सास-ससुर, देवर-जेठ, पुत्र-पौत्र आदिके सहज सम्बन्ध और स्नेहकी तुलना समाजमें कहाँ प्राप्त हो सकती है? रामराज्य-प्रणालीमें स्त्री गृहलक्ष्मी रहेगी। वेदोंने विवाहके समय वरके मुखसे वधूको कहलाया है कि तुम श्वसुर, श्वश्रू, ननद और देवरमें सम्राज्ञी बनो—‘सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्र्वां भव। ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु॥’ (ऋक्० सं० १०।८५।४६) स्त्री ससुर, पति, पुत्रादिकी कमाईकी रानी एवं मालकिन होगी, परिवारके लोग उसके इशारेपर काम करेंगे, उसका ही दिया हुआ खायेंगे और खर्च करेंगे। उसे मिलोंमें मजदूरी करने नहीं जाना पड़ेगा, समाजके नामपर हुकूमत करनेवाले मुट्ठीभर तानाशाहोंके प्रबन्धस्थापनमें कोई वस्तु पानेके लिये पंक्तिबद्ध खड़े रहकर उसे बाट नहीं जोहना पड़ेगा। बिना मजदूरी किये ही वह समाजमें पुरुषोंके बराबरका ही नहीं, उनसे हजारगुना अधिक ऊँचा स्थान प्राप्त करेगी।
रामराज्यके अनुसार सन्नारीके बलपर कुल, गोत्र एवं वंशकी रक्षा होगी। समाजवादी-व्यवस्थामें इच्छानुसार किन्हीं नये-नये पुरुषोंसे संतान उत्पन्न करनेवाली नारीके पुत्र-पुत्रीका कुल, गोत्र, धर्म क्या होगा? एक ही माँसे उत्पन्न अनेक भाई-बहनें कितने ही पिताओंसे उत्पन्न हुए होंगे, उनका परस्पर क्या सम्बन्ध होगा? इससे मार्क्सवादीसे क्या मतलब होगा? मार्क्सवादमें तो जैसे सभी सम्पत्ति सरकारी, भूमि सरकारी; वैसे ही सब औरतें सरकारी, सब मर्द सरकारी और सभी बच्चे भी सरकारी होंगे। जैसे गाय-बैल, घोड़े-घोड़ी, ऊँट-ऊँटिनी आदि पशुओंका अपना न निजी कोई पति है, न पत्नी है, न अपना कोई माता-पिता है, न अपना कोई बच्चा-बच्ची है, सब सरकारी-ही-सरकारी हैं; वैसे ही स्त्री-पुरुष, बच्चे-बच्ची सब सरकारी-ही-सरकारी होंगे। फिर कहाँका पिण्डदान, कहाँका श्राद्धतर्पण, कहाँका गयाश्राद्ध, कहाँका धर्म, दान, पुण्य, मोक्ष; कहाँका परिवार, कुटुम्ब और कैसे पारिवारिक स्नेह?—सब पशुवत् जीवन होगा। सरकारी अफसरके आदेशानुसार जैसे किसी घोड़ा-घोड़ीका सम्बन्ध कराया जाता है, वैसे ही समाज या समाजवादी सरकारके आदेशानुसार अनियतरूपसे स्त्री-पुरुषका सम्बन्ध करा दिया जायगा।
समाजके नामपर तानाशाही सरकार और उसके नौकर सब व्यवस्था करेंगे। वे ही लोगोंसे विभिन्न काम करायेंगे, वे ही रोटी-कपड़ा देंगे, वे ही गर्भधारण करायेंगे, वे गर्भ तथा प्रसवकालका सब प्रबन्ध करेंगे। फिर पति-पुत्र और कुटुम्बका कोई भी स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रहेगा। गो, गर्दभ, श्वान, शूकरादि जानवरोंके या काक, कुक्‍कुट, कपोत आदि पक्षियोंके समूहके तुल्य ही मानव-समूह होगा। ‘गरीब स्त्रीसमाजके कन्धेपर कोई भार न दिया जायगा, दयालु समाजमें और समाजवादी सरकारके कन्धोंपर ही सब भार रहेगा’, यह है समाजवादमें स्त्रियोंका स्थान। समाजमें यदि समानाधिकार लेना है, तो स्त्रियोंको यह सब स्वीकार करना पड़ेगा। बिना कमाये उन्हें अधिकार न मिल सकेगा। मार्क्सवादमें स्त्रियोंके लिये सरकारी गुलामी और सरकारी मजदूरी ठीक समझी जाती है, परंतु अपने सास-ससुर, पति-पुत्र आदिकी सेवा, लालन-पालन असह्य है। यह स्त्रीके लिये गुलामी है, उसे आत्म-समर्पणके लिये बाध्य करना है। श्वशुरकुलकी साम्राज्ञी, पतिके घर एवं हृदयकी महारानी, पुत्रोंकी पूज्या होकर गृहस्वामिनी, गृहलक्ष्मी बनना श्रेष्ठ है या सरकारी नौकरानी बनकर पिल्ली-कुतियाका जीवन व्यतीत करना श्रेष्ठ है, इसे समझदार स्त्रियाँ स्वयं सोचें और सोचें वे पुरुष, जिन्हें आगेसे ऐसी ही पत्नी और माता पाना है।


श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें

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