11.6 विकास
‘ज्ञान, जब हम वस्तुओंके साथ सक्रिय सम्बन्धोंमें आते हैं, तब प्राप्त होता है और प्रतीतिसे निर्णयकी ओर विकसित होता है। ज्ञानका विकास प्रत्ययात्मकसे उपपत्त्यात्मक (युक्तिपूर्ण सिद्धि) तक, वस्तुओंके रूप-रंग आदिके केवल बहिरंग (ऊपरी-ऊपरी) निर्णयोंसे उनके आवश्यक गुण-धर्मों, पारस्परिक संयोगों तथा नियमोंके विषयमें तर्कपूर्ण निष्कर्षोंतकके मार्गपर होता है। इस प्रकार हम बाह्य (वस्तुमय) संसारका उत्तरोत्तर अधिक पूर्ण एवं गम्भीर ज्ञान प्राप्त करते चलते हैं। प्रत्येक अवस्थामें हमारा ज्ञान सीमित है। पर वह इन सीमाओंको जीतता हुआ प्रगति कर रहा है, करता जा रहा है।’
बुद्धिवृत्तिरूप ज्ञानोंका विकास ही नहीं, किंतु ह्रास भी होता है। कोई प्राणी ज्ञान-साधनोंसे ज्ञानार्जन, ज्ञान-विकास करता है, किंतु प्रमादसे वह उत्पन्न ज्ञान भी नष्ट हो जाता है। आजके पुरातत्त्ववेत्ता तो यह भी कहते हैं—‘प्रथम ज्ञान अत्यन्त विकसित था, परंतु अब वह संकुचित हो गया है।’ पर वेदों, पुराणों, भारतादि ग्रन्थोंको पढ़नेसे मालूम होगा कि आज पहलेकी अपेक्षा सभी क्षेत्रोंमें ज्ञानका संकोच हो गया है। नित्य ज्ञानस्वरूप आत्मा तो चित् नित्य स्वप्रकाश ही है। उसके विकासका प्रश्न ही नहीं उठता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
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