4.4 लुप्त-जन्तु
यह भी कहा जाता है कि ‘पृथ्वीकी तहोंमें लुप्त हुए पाषाणमय प्राणियोंकी खोजसे भी विकास सिद्ध होता है। प्राणियोंकी शृंखलाकी कुछ कड़ियाँ नहीं मिलतीं; क्योंकि वे आज लुप्त हो चुकी हैं। ‘लुप्त-जन्तु-शास्त्र’ से वर्तमानकालमें अविद्यमान लुप्त जन्तुओंका पता लगाया जाता है। एल० म्यूजियममें घोड़ेकी, साउथ कैन्सिंगटनमें हाथी-दाँतोंकी, ब्रूसेल्समें इग्बेनोडसकी और किस्टल् पैलेस, न्यूयार्क, लण्डन, जेयनामें अन्य प्राणियोंकी पाषाणीभूत प्राप्त अस्थियाँ एकत्र की गयी हैं। घोड़ेकी समस्त कड़ियाँ ठीक हो गयी हैं। ‘आर्किओप्टेरिक्स’ नामक एक ऐसा प्राणी मिला है, जिससे सर्पवर्ग और पक्षीवर्गके बीचकी कड़ी सिद्ध हो जाती है। अस्थिहीन प्राणी मरनेपर मिट्टीमें मिल जाते हैं। पर अस्थियुक्त प्राणियोंकी हड्डियाँ मिट्टीमें नष्ट नहीं हो जातीं, हजारों वर्ष पुरानी हड्डियाँ मिलती हैं। इन्हें ही ‘फौसिल’ कहते हैं। इनसे सब कड़ियाँ पूरी हो सकती थीं; परंतु पृथ्वीके अधिक भागमें समुद्र होनेके कारण एवं शीत-उष्ण कटिबन्धोंमें सर्दी-गर्मीकी अधिकताके कारण खुदाईका काम हो ही नहीं सकता। अच्छे स्थानोंसे भी कुत्ते, शृगाल आदि अस्थियोंको नष्ट कर देते हैं। इन्हीं कारणोंसे ‘लुप्त-जन्तु-शास्त्र’ के पूर्ण प्रमाण नहीं मिलते। प्राकृतिक परिवर्तनों, नदियोंके कटावों, अग्नि, प्रपातोंसे बहुत-सी हड्डियाँ बह गयीं, बहुत-सी जल गयीं, बहुत-सी पिघल जाती हैं। बिना हड्डीवाले जन्तु तो मिट्टी हो ही जाते हैं। पृथ्वीकी विभिन्न तहोंमें उपलब्ध अस्थियोंसे उन प्राणियोंके समयका निर्णय करना ‘लुप्त-जन्तु-शास्त्र’ का मुख्य विषय है।’
‘परंतु पृथ्वीकी आयुका निर्णय करनेके लिये काल्पनिक सिद्धान्तोंके अतिरिक्त वैज्ञानिकोंके पास कोई प्रबल साधन नहीं है। पृथ्वीकी आयुके सम्बन्धमें भूगर्भ-शास्त्रके अनुसार प्राणियोंकी उत्पत्तिसे अबतक दस करोड़ वर्ष हुए। वैज्ञानिक सूर्यकी गरमीके आधारपर जो समय निकालते हैं, वह इससे कम है; किंतु प्रो० पेरीने रेडियमकी खोजसे जो समय निकाला है, वह बहुत अधिक है। ‘भूगर्भ-विद्याके अनुसार पृथ्वीकी चार तहें हैं। सबसे निचली तहमें हड्डीरहित प्राणी रहे होंगे। दूसरी तहमें प्राणियोंकी अस्थियाँ हैं, पर वे प्राणी मत्स्य-मण्डूक श्रेणीके हैं। तीसरी तहमें उन्नत प्राणियोंकी भी अस्थियाँ पायी जाती हैं। चौथी तहमें वर्तमान कालके सभी प्रकारके प्राणियोंके अवशेष पाये जाते हैं।’ इससे सिद्ध होता है कि जिस कालमें जो प्राणी थे, केवल वही थे और बड़े विशालकाय थे। उनकी अनेक उपजातियाँ भी थीं। जब मत्स्य थे, तब सर्प नहीं थे। सर्पके समयमें सब सर्प ही थे। किसी समय अनेक जातिकी छिपकलियाँ थीं, जो ८० मनतककी बतलायी जाती हैं, यह उनकी हड्डियाँ देखनेसे सिद्ध होता है। मिस्र देशमें प्राणियोंके सिर भी मिलते हैं, जिनमें मांस, चर्म-नस, नाड़ी आदि सभी अवयव विद्यमान हैं। ‘मत्स्यपुराण’ में आयी उड़नेवाले सर्पोंकी कथा गलत नहीं।’
‘इन सर्प-श्रेणीके पक्षियोंसे ही पक्षियोंकी उत्पत्ति हुई है। जर्मनीमें पाषाणीभूत घोंघोंके कवच अनेक तहोंमें मिलते हैं। उनसे विकास-क्रमका पता लगता है। घोड़ेके विकासका भी क्रम मिलता है। भिन्न-भिन्न तहोंमें मिले हुए प्राणियोंके पंजों और सुमों (घोड़ोंके अवयव-विशेष)-के मिलानसे पता लगता है कि ‘घोड़े किन प्राणियोंसे विकसित होकर इस रूपमें आये हैं।’ ऊपरकी तहमें वर्तमान घोड़े-जैसा ही जन्तु मिलता है। मध्य-स्तरमें वह ३-४ अंगुलीवाला मिलता है। निचली तहोंमें उसका आकार शशकके समान और ५ अंगुलीवाले पंजोंका मिलता है। गाय, भैंसको पाँचमेंसे जिस तरह चार ही अंगुलियाँ रह गयीं, उसी तरह इस जानवरकी भी अंगुलियाँ क्रमश: घटते-घटते बीचकी अंगुली टाप बन गयी। घोड़ेके आदिपूर्वजका अबतक पता नहीं लगा; परंतु ज्ञात होता है कि वह पाँच अंगुलीवाला था। इसी तरह हाथी और हरिणके आद्यवंशजोंसे लेकर वर्तमान समयतककी विकास-परम्परा ज्ञात होती है। लुप्त कड़ियोंका उदाहरण ‘ऑर्किओप्टेरिक्स’ है। यह पंखयुक्त उड़नेवाला सर्प है। इसका सिर छोटा, जबड़ा बड़ा और दाँत साँप-जैसे हैं; परंतु पंख एवं पंजे पक्षियों-सरीखे हैं। इसी तरह एक प्राणी ‘टेरोडिक्टिल’ है। इसके हाथोंकी एक-एक अंगुली बहुत बड़ी है, जिससे पंखको सहारा मिलता है। इसमें सर्प, पक्षी तथा स्तनधारियोंकी थोड़ी-थोड़ी बातें मिली हुई हैं। इसी प्रकार कंगारू, ओपोसम आदि इस अन्वेषणमें सहायक हैं।’
उपर्युक्त बातोंपर विचार करनेपर भी विकास सिद्ध नहीं होता। यह सिद्ध है कि वर्तमान साधनोंसे पृथ्वीकी आयुका पता नहीं लगता और सारी पृथ्वीका खोजना भी सम्भव नहीं। अस्थियोंका नष्ट हो जाना, पिघल जाना आदि भी सम्भव है। फिर इस लुप्त-शास्त्रके बलपर विकासवाद कैसे सिद्ध होगा? अस्थियोंके मेलका सिद्धान्त भी गलत है। यदि घोड़ा, गधा, जेब्रा एक ही जगह मिलें तो विकासवादी तीनोंके पंजरोंको एक ही कह सकता है। फिर भी तीनों एक नहीं, अत: अस्थियोंके मेल मिलाकर शृंखला मिलाना असंगत है। ‘घोड़ेकी कड़ियाँ मिल गयीं’ यह बात भी गलत है। घोड़ेकी कड़ियोंपर विकासवादियोंका दृढ़-विश्वास है। यूरोप, अमेरिकाकी खुदाईसे मिले हुए भिन्न समयोंके विचित्र जातिके अस्थि-पंजरोंको मिलाकर यह दिखलानेकी कोशिश की जाती है कि ‘ये सब घोड़ेके पूर्वज उसके विकासकी कड़ियाँ हैं।’ हक्सले साहबने इसे महत्त्व दिया है; परंतु आधुनिक खोजसे इसका खण्डन हो गया। सर जे० डब्ल्यू० डासनने अपनी ‘माडर्न आइडिया ऑफ इवोल्यूशन्’ (विकासकी आधुनिक भावना) नामक पुस्तकसे अच्छी तरह सिद्ध किया है कि ‘अमेरिका एवं यूरोपके इन जन्तुओंमें जिन्हें घोड़ेका पूर्वज कहा जाता है, परस्पर कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।’ घोड़ा बड़ा ही विचित्र जानवर है। पाँच बातें उसमें अन्य तृणाहारी पशुओंसे विलक्षण हैं—(१) नीचे-ऊपर दोनों तरफ दाँत, (२) प्रसवके समय घोड़ीकी जीभका गिरना, (३) घोड़ेके अगले पैरोंकी गाँठोंमें परोंका निशान होना, (४) नर घोड़ेके स्तन न होना और (५) खुरकी जगह टाप होना। कहा जाता है कि ‘घोड़ेकी चार अँगुलियाँ लुप्त हो गयीं, बीचकी अँगुली टाप बन गयी। गाय-भैंसके अगल-बगलकी चार अँगुलियाँ मौजूद हैं, बीचवाली लुप्त हो गयी।’ जो अँगुलियाँ विद्यमान हैं, उनमें दो तो फटे हुए खुरको बतलाया जाता है और दो उठी हुई मदनखुरी बतायी जाती है। यह कैसा उलटा-पुलटा विकास? किसीमें चारों अँगुलियाँ लुप्त होकर बीचकी अँगुली टाप बन गयी तो किसीमें सब रहीं, केवल बीचकी ही लुप्त! गधे, घोड़े और खच्चरके पंजरोंमें धोखा हो सकता है, वनबिलाव और चीतेके बच्चेके पंजरोंमें भी धोखा हो सकता है। इसी तरह सभी पंजर मिलानवाली जातियोंको एक ही जातिके स्थिर करनेमें भी धोखा हो सकता है। मि० डे० क्वाडर फेगस अपनी ‘लेस अम्यूलस डे डारविन’ पुस्तकमें लिखते हैं कि ‘घोड़ोंकी कड़ियाँ न तो इस प्रकारके जिंदा जानवरोंसे पूरी होती हैं और न प्रस्तरीभूत अस्थिपंजरोंसे ही। ऐसे प्राणियोंका अस्तित्व कल्पनामात्र है।’ इसी तरह जोन्स बोसनने नवम्बर सन् १९२२ ई० के ‘न्यू एज’ पत्रमें लिखा है कि ‘ब्रिटिश म्यूजियमका अध्यक्ष कहता है कि इस म्यूजियममें एक कण भी ऐसा नहीं, जो यह सिद्ध कर सके कि जातियोंमें परिवर्तन हुआ है। विकासविषयक दर्शनमें नौ बातें नि:सार हैं। परीक्षणोंका आधार स्वच्छता और निरीक्षणपर बिलकुल अवलम्बित नहीं। संसारभरमें ऐसी कोई सामग्री नहीं, जो विकास-सिद्धान्तकी सहायक हो।’ इस तरह लुप्त-जन्तु-शास्त्रके आधारपर विकासका सिद्ध होना असम्भव हो गया है।
यदि विकास होता तो बर्फीले स्थानोंमें कोई सांगोपांग ऐसा प्राणी मिलता, जिससे विकास सिद्ध होता। पृथ्वीकी तहोंकी आयुका भी अभी हिसाब नहीं बैठा। तहोंके प्रस्तरीभूत प्राणियोंकी आयु जाननेके लिये तहोंकी आयुका जानना आवश्यक है। जब पृथ्वीकी ही आयुका ठीक ज्ञान नहीं, तब तहकी आयुका ज्ञान कैसे होगा? फिर एक तहके प्राणी कितने समयमें प्रस्तरीभूत हुए, यह जाननेका क्या साधन है? आधुनिक विज्ञान यह भी नहीं बतला सकता कि मनुष्योंको पैदा हुए कितने दिन हुए। फिर समस्त कड़ियोंकी वर्ष-संख्या मिलाकर पृथ्वीकी आयुके साथ मेल बैठानेका विकासवादियोंके पास कोई साधन नहीं। पृथ्वीकी अमुक बनावट किन साधनोंसे होती है, उन साधनोंका निर्माण किससे होता है, इन बातोंतक अभी विज्ञान पहुँचा ही नहीं। यदि जगत्की रचनाके कारणोंका ज्ञान, उन कारणोंकी गति, शक्ति तथा परिणामके मापका ज्ञान होता, तो पृथ्वीकी आयु निश्चित होती, परंतु इनका ठीक ज्ञान नहीं। कल्पनाके द्वारा निकला सिद्धान्त विश्वसनीय नहीं होता। अगस्त सन् १९२३ के ‘थियोसोफिकल पाथ’ में हैनसन्ने लिखा है कि ‘नेवादामें जॉन टी० रीडको एक आदमीका पदचिह्न और एक अच्छी तरह बना हुआ जूतेका तला मिला है, जिसे वह अपने चट्टानविषयक भूगर्भ-विद्या-सम्बन्धी ज्ञानसे ५० लाख वर्ष पुराना बतलाता है। उस तलेमें ऐसी सिलाई, धागोंके मरोड़ और धागोंके माप मिलते हैं, जो आजकलके अच्छे-से-अच्छे बने हुए जूतोंके समान पक्के और सूक्ष्म हैं। इससे सिद्ध हुआ कि ५० लाख वर्षसे तो मनुष्य जूता पहनता है और वह सुई, सूत, सिलाई, नपाईका ज्ञान प्राप्त कर चुका था।’ विकासके अनुसार यह ज्ञान बहुत दिनोंमें हुआ होगा। इस विचारसे मनुष्यकी उत्पत्तिका समय आजसे यदि एक करोड़ वर्ष पूर्व मानें और हेकलके मतानुसार प्राणियोंकी २१ कड़ियोंके बाद मनुष्यकी उत्पत्ति मानें एवं प्रत्येक कड़ीको यदि एक करोड़ वर्षका समय दें तो प्रथम प्राणीकी उत्पत्तिसे मनुष्यकी उत्पत्तितक २२ करोड़ वर्ष और आजतक २३ करोड़ वर्ष होते हैं। लोकमान्य तिलकने ‘गीता-रहस्य’ में डॉ० गेडाका मत उद्धृत करते हुए लिखा है कि ‘मछलीसे मनुष्य होनेमें ५३ लाख ७५ हजार पीढ़ियाँ बीती हैं। इतनी ही पीढ़ियाँ अमीबासे मछली बननेमें बीती होंगी अर्थात् अमीबा अबतक लगभग एक करोड़ पीढ़ियाँ बीतीं। कोई पीढ़ी एक दिन, तो कोई सौ वर्ष जीती है। यदि औसत प्रति पीढ़ी २५ वर्ष भी मान लें तो इस हिसाबसे भी प्राणियोंकी उत्पत्तिका समय २५ करोड़ वर्ष होता है।’ यह भी सिद्ध है कि पृथ्वी उत्पन्न होनेके करोड़ों वर्ष बाद उसपर प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई होगी। यह संख्या विकासवादियोंकी निर्धारित संख्यासे बहुत आगे जाती है।
विकासवादी पृथ्वीकी प्राणियोंवाली तहोंकी आयु १० करोड़ वर्ष बतलाते हैं। वे अमीबाको सादी रचनावाला कहते हैं; परंतु यह ठीक नहीं है। वह तो क्लिष्ट रचनावाला ही प्राणी है। अपने शरीरमें हर जगह छिद्र कर लेना क्या साधारण बात है? वनस्पतिकी ही रचना सादी है। सिद्धान्तत: भोग्य सादी रचनावाले और भोक्ता क्लिष्ट-रचनावाले हैं। पृथ्वीकी नीचेवाली तहमें हड्डीवाले प्राणी नहीं मिलते, अत: कहा जाता है कि ‘पहले बिना हड्डीवाले प्राणी हुए।’ परंतु इसपर यह भी तो कहा जा सकता है कि ‘पृथ्वीके दबावसे नीचेवाली तह तथा उसके साथ हड्डियाँ भी पिघल गयी होंगी।’ अत: ‘पहले हड्डियाँ नहीं थीं’ यह कल्पना भी गलत है। फिर इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अस्थिहीनोंसे ही अस्थिवालोंकी उत्पत्ति हुई। हड्डी अपने आप ही उत्पन्न होती है, यह पीछे कहा जा चुका है। यदि यह सत्य हो कि ‘जिस समय जो प्राणी थे, वही थे और वे भीमकाय थे,’ तो वर्तमान प्राणियोंका उनसे उत्पन्न होना सिद्ध नहीं होता। किंतु सबसे प्रथम उत्पन्न एक कोष्ठवाला अमीबा भी अबतक मौजूद है। इतना ही नहीं, वे अन्तिम प्राणी मनुष्यसे भी अधिक हैं। अत: यह सत्य नहीं है कि ‘जब जो थे, तब वही थे।’ पृथ्वीकी खुदाईसे भी यह बात पायी नहीं जाती। जिस तहमें जो हड्डियाँ पायी जाती हैं, वह तह इस सिद्धान्तानुसार उन्हीं जन्तुओंसे पटी होनी चाहिये; क्योंकि ‘उस समय वही थे और दीर्घकाय (विशालकाय) थे।’ पर ऐसा है नहीं, बहुत गहरा खोदनेपर भी एक तहमें थोड़े ही जन्तु एक प्रकारके पाये जाते हैं। उन प्राणियोंका विशालकाय होना तो विकासवादके विरुद्ध ही होगा; क्योंकि उसके अनुसार तो बहुत छोटे प्राणियोंसे ही विकासका आरम्भ होता है। जब छोटे प्राणी ऐसे विशालकाय हुए कि एक छिपकली ही अस्सी मन वजनकी हुई और वृक्ष इतने बड़े हुए कि खदानोंमें कोयलाके पहाड़ बन गये तो उसी नियमानुसार आरम्भिक मनुष्योंकी लाशें ऐसी क्यों नहीं मिलीं? वह भी कम-से-कम ताड़के पेड़के बराबर तो होनी ही चाहिये थी। छिपकली उतनी क्यों बढ़ी और आदि प्राणी अमीबा और अन्तिम प्राणी मनुष्य उतना क्यों न बढ़ा? क्यों भैंसके बराबर चींटियाँ देखनेको न मिलीं? और जीवित प्राणियोंमें आज वैसे भीमकाय क्यों नहीं? हो सकता है कि कुछ योनियाँ पहले भीमकाय रही हों; परंतु उनके वंशका आज पता नहीं लगता। वे सपरिवार नष्ट हो गयी होंगी।
शास्त्रीय दृष्टिसे तो विकासकी अपेक्षा ह्रास-पक्ष ही संगत जँचता है। सत्ययुगके प्राणी आजके प्राणियोंकी अपेक्षा बहुत बड़े थे। युग-ह्राससे सबमें ह्रास हो रहा है। जो गायें पहले बड़ी होती थीं, वे भी आज छागप्राय हो रही हैं—‘छागप्रायासु धेनुषु’ (भागवत १२।२।१४)। किंतु विकासवादका कहना है ‘भीमकाय प्राणी भी अमीबाके ही विकास थे, परिस्थिति प्रतिकूल होनेसे वे नष्ट हो गये।’ यदि यह सत्य हो तो विकासवादका यान्त्रिक सिद्धान्त असत्य ठहरता है। विशालकाय प्राणी नष्ट हो गये और अल्पकाय जी रहे हैं। जिस प्रकार दीर्घजीवी कछुवाने अल्पजीवी कबूतरको उत्पन्न किया, उसी प्रकार भीमकाय छिपकलीने अल्पकाय छिपकली उत्पन्न की। यद्यपि आज अस्सी मनकी छिपकलीका कहीं पता नहीं लगता, पर क्या यह यन्त्रोंका सुधार एवं उन्नति हुई अथवा उनका बिगाड़ एवं अवनति हुई? वस्तुत: कर्मोंके अनुसार जिन प्राणियोंने जितना बड़ा शरीर जितने दिनोंके लिये पाया, उतने दिन वे उसे भोगकर चले गये। अब संसार जिन शरीरोंके योग्य है, वे बचे हुए हैं और कर्मफल भोग रहे हैं। ‘मत्स्यपुराण’ के पक्षयुक्त सर्प भी विकासके साधक नहीं हो सकते। चमगादड़ पशु एवं पक्षियोंके बीचका क्यों माना जाता है? पक्षी एकदम चमगादड़ बनकर स्तनधारी हो गये या धीरे-धीरे? यदि धीरे-धीरे, तब तो इस प्रकारकी आगे-पीछे हजारों कड़ियाँ दिखलानी होंगी। यह कहनेसे काम नहीं चलेगा कि ‘आगे-पीछेकी हजारों कड़ियाँ नष्ट हो गयीं।’ पहली कड़ियाँ तो बादवाली कड़ियोंसे कमजोर थीं, वे नष्ट हो सकती थीं; परंतु बादवाली कड़ियाँ क्यों नष्ट हो गयीं? वे तो योग्य होनेसे ही विकसित हुई थीं। वर्तमान चमगादड़से उसके बादकी कड़ियाँ, फिर आगे-पीछेकी सब कड़ियोंको हटाकर एकमात्र चमगादड़ ही कैसे बच रहा? ये बातें विकासवादके साथ कैसे संगत होंगी? पुराणोंके अनुसार तो घोड़ों और पहाड़ोंके भी उड़नेकी बात पायी जाती है। क्या विकासवादी उसे भी मानेंगे? वस्तुत: जिन्हें सन्धि-योनियाँ या मध्य-कड़ियाँ कहा जाता है, वे चमगादड़ उड़नेवाले सर्प आदि स्वतन्त्र योनियाँ ही हैं। अत: ‘लुप्त-जन्तुशास्त्र’ के आधारपर विकासवाद सिद्ध नहीं होता।
श्रोत: मार्क्सवाद और रामराज्य, लेखक: श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज, गीता सेवा ट्रस्ट
निवेदन : मूल पुस्तक क्रय कर स्वयं की तथा प्रकाशक की सहायता करें