11.9 भारतीय दर्शनमें ज्ञान-सिद्धान्त ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.9 भारतीय दर्शनमें ज्ञान-सिद्धान्त ‘काण्टके भी अनुभव और ज्ञान—दोनोंका भेद सिद्ध नहीं हो सकता। भारतीय दर्शनोंके अनुसार अनुभवके ही भ्रम और प्रमा—ये दो भेद होते हैं। उसे ही ज्ञान भी कहते हैं। ‘सर्वव्यवहारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम्’ अर्थात् आहार-विहार, शब्द-प्रयोगादि सभी व्यवहारोंका असाधारण कारण गुण ही बुद्धि है, वही ज्ञान भी है। ज्ञानके बिना कोई भी व्यवहार नहीं… Continue reading 11.9 भारतीय दर्शनमें ज्ञान-सिद्धान्त ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.8 स्वतन्त्रताका अवबोध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.8 स्वतन्त्रताका अवबोध मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘जनता जन्मत: ही स्वतन्त्र नहीं उत्पन्न होती, परंतु शनै:-शनै: स्वतन्त्रता उपार्जित कर लेती है। स्वतन्त्रता प्रकृतिपर प्रभुत्व प्राप्त करनेके लिये किये जानेवाले संघर्ष एवं वर्गसंघर्षद्वारा उपार्जित एवं विकसित की जाती है। समाजमें विभिन्न वर्गोंद्वारा वस्तुत: उपार्जित एवं अधिकृत स्वतन्त्रता एवं उस स्वतन्त्रताके बन्धन तत्तद्वर्गोंकी स्थिति एवं उद्देश्योंके अनुसार… Continue reading 11.8 स्वतन्त्रताका अवबोध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.7 आवश्यकता एवं स्वतन्त्रता ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.7 आवश्यकता एवं स्वतन्त्रता ‘युक्तिपूर्ण या उपपत्त्यात्मक ज्ञान वस्तुओंकी ‘आवश्यकताओं’ का उद्घाटन करता है और यह भी बतलाया है कि आवश्यकका महत्त्व सर्वदा काकतालीय (ऐक्सिडेण्टल)-से ही विदित होता है। ज्ञानकी प्राप्ति (acquisition) से हमें स्वतन्त्रता मिलती है, जो आवश्यकताके ज्ञानपर आधारित आत्मनियन्त्रण एवं बाह्यप्रकृति-नियन्त्रणके ही रूपमें हैं। हम उस समय स्वतन्त्र हैं, जब ज्ञानके आधारपर… Continue reading 11.7 आवश्यकता एवं स्वतन्त्रता ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.6 विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.6 विकास ‘ज्ञान, जब हम वस्तुओंके साथ सक्रिय सम्बन्धोंमें आते हैं, तब प्राप्त होता है और प्रतीतिसे निर्णयकी ओर विकसित होता है। ज्ञानका विकास प्रत्ययात्मकसे उपपत्त्यात्मक (युक्तिपूर्ण सिद्धि) तक, वस्तुओंके रूप-रंग आदिके केवल बहिरंग (ऊपरी-ऊपरी) निर्णयोंसे उनके आवश्यक गुण-धर्मों, पारस्परिक संयोगों तथा नियमोंके विषयमें तर्कपूर्ण निष्कर्षोंतकके मार्गपर होता है। इस प्रकार हम बाह्य (वस्तुमय) संसारका… Continue reading 11.6 विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.5 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.5 ज्ञानका मूल ‘ज्ञान वस्तुगत सत्यताकी यथासम्भव निर्दुष्ट प्रतिच्छायाओंके रूपमें प्रतिष्ठापित एवं परीक्षित मान्यताओं, दृष्टियों एवं प्रस्तावनाओंका योग है। यह निश्चितरूपसे एक सामाजिक उपज है, जिसकी जड़ें सामाजिक व्यवहारोंमें हैं; जिन्हें व्यावहारिक आशाओं एवं अपेक्षाओंकी पूर्तिद्वारा परीक्षित एवं संशोधित कर लिया जाता है। सभी ज्ञानोंका प्रारम्भ उन इन्द्रियानुभूतियोंमें निहित है, जिनकी विश्वसनीयता मनुष्यके व्यवहारोंमें सिद्ध… Continue reading 11.5 ज्ञानका मूल ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.4 सत्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.4 सत्य ‘सत्य का अर्थ होता है धारणाओं एवं वस्तुगत सचाई की समन्विति। ऐसी समन्विति बहुधा केवल आंशिक एवं प्रायिक (लगभग) ही होती है। हम जिस सत्यताको स्थापित कर सकते हैं, वह सर्वदा सत्यके अन्वेषण एवं अभिव्यंजनके हमारे साधनोंपर अवलम्बित रहती है; परंतु इसीके साथ धारणाओंकी सत्यता, यहाँके अर्थमें आपेक्षिक ही सही, उन वस्तुगत तथ्योंपर… Continue reading 11.4 सत्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.3 विज्ञान एवं समाजवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.3 विज्ञान एवं समाजवाद ‘बोर्जिआई विज्ञानने जहाँ महान् वैज्ञानिक उन्नतियाँ प्राप्त की हैं, वहीं पूँजीवादी सम्बन्धोंने विज्ञानोंके विकासपर बन्धन (सीमाएँ) लगा दिये। समाजवादके अधीन जहाँ विज्ञानका जनताकी सेवाके लिये विकास किया जाता है, ये बन्धन दूर कर दिये जाते हैं। विशेषत: समाजवादके लिये मजदूरवर्गके संघर्षके उदयके साथ समाजविज्ञान स्थापित हुआ है। समाजवादी समाजमें पुरानी आदर्शवादी… Continue reading 11.3 विज्ञान एवं समाजवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.2 आदर्शवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

11.2 आदर्शवाद ‘काल्पनिक धारणाओंका प्रयोग किसी-न-किसी प्रकारकी वस्तुओं अथवा विचारपद्धतियोंकी सुव्यस्थित दृष्टियोंके निरूपणमें ही किया जाता है। ये दृष्टियाँ या विचारपद्धतियाँ समाज-विकासकी विभिन्न अवस्थाओंमें विभिन्न सामाजिक वर्गोंद्वारा आविष्कृत होती हैं। आदर्शविषयक विकास समाजके भौतिक जीवनके विकासपर अवलम्बित है तथा आदर्शादि वर्गविशेषकी रुचियों या स्वार्थोंकी पूर्ति करते हैं, परंतु इसके साथ-ही-साथ यह भी आवश्यक है कि… Continue reading 11.2 आदर्शवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘जगत् परिवर्तनशील है। विकास परिवर्तनका ही एक प्रकार है। इस परिवर्तनको देखनेके विभिन्न दृष्टिकोण हैं। अतिभौतिकवादी और नैसर्गिकवादीका दृष्टिकोण एक है और द्वन्द्वात्मक भौतिकवादीका दृष्टिकोण और है। लेनिनकी व्याख्यासे इसपर काफी प्रकाश पड़ता है। विकास विरोधियोंका संघर्ष है। विकासकी दो ऐतिहासिक धाराएँ हैं। पहली विकासवृद्धि और ह्रास… Continue reading 10.11 द्वन्द्वन्याय और विकास ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.10 व्यवहार और तथ्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

10.10 व्यवहार और तथ्य मार्क्सवादी कहते हैं कि ‘भूत पहले या मानस, यह प्रश्न एक दूसरे रूपमें भी जीवनके सामने उठ खड़ा होता है। प्रयोग पहले या सिद्धान्त? व्यवहार पहले या तथ्य? इसका उत्तर हमको जीवनपथमें एक विशिष्ट दिशाकी ओर ले जाता है। इस विषयमें मार्क्सवादी दृष्टिकोण भी अपनी विशेषता रखता है। कुछ लोग कहते… Continue reading 10.10 व्यवहार और तथ्य ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

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