6.5 आर्थिक असंतुलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

6.5 आर्थिक असंतुलन आर्थिक असंतुलन मिटानेके लिये ही शास्त्रोंमें दानका महत्त्व कहा गया है। अपनी श्रद्धासे, दूसरोंके उपदेशसे, लज्जासे, भयसे किसी तरह भी देना परम कल्याणकारी है। शास्त्रोंमें यह भी कहा गया है कि जो धनी होकर दानी नहीं और निर्धन होकर तपस्वी नहीं, ऐसे लोग गलेमें पत्थर बाँधकर समुद्रमें डुबा देने योग्य होते हैं—… Continue reading 6.5 आर्थिक असंतुलन ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.13 विकासवाद और जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.13 विकासवाद और जाति जल, वायु एवं देशोंके प्रभावसे रंगमें परिवर्तन होना प्रत्यक्ष अनुमान एवं शास्त्रसे भी सिद्ध है। कफ, वात, पित्तकी प्रधानता-अप्रधानतासे भी रंग, रूप, स्वभावमें भेद होना शास्त्रसिद्ध है। जैसे संकल्पों, विचारों एवं वातावरणोंसे रजस्वला स्त्री प्रभावित हो, स्त्री-पुरुष जैसे देश, काल, वातावरणसे प्रभावित होकर गर्भाधान करते हैं, वैसे ही संतानका प्रादुर्भाव होता… Continue reading 4.13 विकासवाद और जाति ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.11 भाषा-विज्ञान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

4.11 भाषा-विज्ञान ज्ञानके लिये भाषा भी अपेक्षित होती है; क्योंकि ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं होता, जिसमें सूक्ष्म शब्दका अनुवेध न हो। भाषा भी सीखकर ही बोली जाती है। माता तथा कुटुम्बियोंकी बोलचाल सुनकर ही प्राणी बोलता है। स्वतन्त्रतासे कोई नयी भाषा बना भी नहीं सकता। कहते हैं कि गूँगे बहरे भी होते हैं। वे… Continue reading 4.11 भाषा-विज्ञान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.24 जनवाद जनवादकी व्याख्याएँ भी भिन्न-भिन्न ढंगसे होती रही है। अब्राहम लिंकनके अनुसार ‘जनताका जनताके लिये जनताद्वारा किया जानेवाला शासन ही प्रजातन्त्र या जनतन्त्र माना जाता है। प्रतिनिधि जनवादका आधार राष्ट्रका सामान्य हित होता है। सुशासनके लिये सामान्यहितको कार्यान्वित करनेके लिये कुछ प्रतिनिधियोंका निर्वाचन होता है। यही ‘परोक्ष-जनवाद’ है।’ आलोचकोंकी दृष्टिमें जनवादका अर्थ ‘मूर्खोंपर उनकी… Continue reading 3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.18 मार्क्सवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.18 मार्क्सवाद कार्लमार्क्स (१८१८-१८८३)-के कैपिटल आदि अनेक ग्रन्थोंद्वारा समाजवाद एवं साम्यवादका परिष्कृत रूप व्यक्त हुआ। यों इसका प्रचलन बहुत पूर्वसे ही था। अफलातून, मोर आदिने तथा उनसे भी पहले कई धार्मिक लोगोंने साम्यवादी समाजका चित्रण किया है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की प्रसिद्धि बहुत पुरानी है। किंतु कार्लमार्क्सने साम्यवाद या समष्टिवादको आवश्यक ही नहीं; अपितु अवश्यम्भावी बतलाया।… Continue reading 3.18 मार्क्सवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.15 बोदाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3.15 बोदाँ बोदाँ (१५३०—१५९६) ने कहा था कि ‘मनुष्यजातिका इतिहास प्रगतिका इतिहास है।’ दो शती बाद हीगेलने इसी सिद्धान्तकी व्याख्या की और उसने बताया कि यदि कभी इसके विपरीत अवनति-सी दृष्टिगोचर होती है तो भी उसे अवनति नहीं मानना चाहिये; किंतु यह घटना प्रगतिकी पृष्ठ-भूमि है। हीगेलके अनुसार मानव-इतिहास केवल कुछ घटनाओंका वर्णन नहीं है;… Continue reading 3.15 बोदाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

3. आधुनिक विचारधारा – 3.1 राज्यका जन्म और सामाजिक अनुबन्ध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

कहा जाता है कि ‘सर्वप्रथम समझौता-सिद्धान्त’ या ‘अनुबन्धवाद’ ही राजनीतिक सिद्धान्त था। इसीको ‘सोशल कॉन्ट्राक्ट थ्योरी’ कहा जाता है। प्रजाने परस्पर समझौतेसे एक व्यक्तिको अपने सब अधिकारोंको शपथपूर्वक अर्पित किया। सामन्तों और किसानोंका, सामन्तों तथा राजाओंका एवं राजाओं और सम्राट्का सम्बन्ध समझौतोंपर आश्रित था। राजा अपने सामन्तों एवं प्रजाके सम्मुख सच्चरित्रता, न्याय-परायणताकी शपथ लेता था।… Continue reading 3. आधुनिक विचारधारा – 3.1 राज्यका जन्म और सामाजिक अनुबन्ध ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज

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