4.7 प्राकृतिक चुनाव विकासकी दूसरी विधि डार्विनके प्राकृतिक चुनावकी है, जिसके पाँच तत्त्व हैं—(१) सर्वत्र विद्यमान परिवर्तन है, (२) अत्युत्पादन, (३) जीवन संग्राम, (४) अयोग्योंका नाश और योग्योंकी रक्षा तथा (५) योग्यताओंका संततिमें संक्रमण। परिवर्तनका अभिप्राय यह है कि प्रत्येक प्राणीकी संततिमें भी भेद होता है। इस भेदका भी नियम है। इंग्लैण्डमें सबसे अधिक संख्या… Continue reading 4.7 प्राकृतिक चुनाव ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
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4.6 संधियोनियाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.6 संधियोनियाँ इसी तरह संधियोनियोंके आधारपर भी विकाससिद्धिका प्रयत्न किया जाता है। ‘जो प्राणी बिलकुल दो श्रेणियों-जैसा आकार रखते हैं, वे संधियोनिके हैं—जैसे चमगादड़, डकविल, आर्किओप्टेरिक्स, ओपोसम और कंगारू। जिनके कुछ अंग निकम्मे हो गये हैं, जैसे ह्वेल, मयूर, शुतुर्मुर्ग और पेंग्विन एवं जिनके कई अधिक अंग स्फुटित हो गये हैं, जैसे कई स्तनोंकी स्त्रियाँ,… Continue reading 4.6 संधियोनियाँ ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.5 गर्भ-शास्त्र ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.5 गर्भ-शास्त्र कहा जाता है कि ‘गर्भ-शास्त्र’ के आधारपर विकास सिद्ध होता है। पानीमें पड़े हुए पत्तों या लकड़ियोंपर जो लसदार काले चिकने कण दिखायी पड़ते हैं, वे मेढकोंके अण्डे हैं। तीन-चार दिनमें ये कण या पिण्ड पूँछदार और चपटे सिरवाले जन्तुका आकार धारण कर लेते हैं। फिर इनके गलेके पास मछलियोंकी तरह श्वास लेनेके… Continue reading 4.5 गर्भ-शास्त्र ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.4 लुप्त-जन्तु ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.4 लुप्त-जन्तु यह भी कहा जाता है कि ‘पृथ्वीकी तहोंमें लुप्त हुए पाषाणमय प्राणियोंकी खोजसे भी विकास सिद्ध होता है। प्राणियोंकी शृंखलाकी कुछ कड़ियाँ नहीं मिलतीं; क्योंकि वे आज लुप्त हो चुकी हैं। ‘लुप्त-जन्तु-शास्त्र’ से वर्तमानकालमें अविद्यमान लुप्त जन्तुओंका पता लगाया जाता है। एल० म्यूजियममें घोड़ेकी, साउथ कैन्सिंगटनमें हाथी-दाँतोंकी, ब्रूसेल्समें इग्बेनोडसकी और किस्टल् पैलेस, न्यूयार्क,… Continue reading 4.4 लुप्त-जन्तु ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.3 जातिविधान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.3 जातिविधान इसी तरह विकासवादी जातिविभाग-शास्त्रके अनुसार साधर्म्य-वैधर्म्यके अनुसार प्राणिवर्गका वर्गीकरण पृष्ठवंशधारी और पृष्ठवंशविहीनोंके भेदसे करते हैं। जबसे रक्तकी परीक्षाका सिलसिला जारी हुआ, तबसे विकासवादियोंका वर्ग-विन्यास गलत सिद्ध हो गया। अबतक लोग ‘गिनी फाउल’ को मुर्गीकी किस्मका समझते थे। पर अब रक्तकी परीक्षासे वह शुतुरमुर्गकी जातिका मालूम होता है। इसी तरह ‘विकासवाद’ के लेखकने भालूको… Continue reading 4.3 जातिविधान ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.2 स्पेंसरकी मीमांसा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4.2 स्पेंसरकी मीमांसा हर्बर्ट स्पेंसर, हेमिल्टन एवं माइन्सेल आदि विकासानुयायियोंने ईश्वर माननेमें कई आपत्तियाँ उपस्थित की हैं, जैसे यदि ‘स्वतन्त्र जगत्-कारण ईश्वर जगत् बाह्य है, तो उसका जगत्से कोई सम्बन्ध ही नहीं। बिना सम्बन्धके कोई ज्ञान ही होना कठिन है। यदि जगत्से सम्बन्ध हुआ, तो स्वतन्त्रता कैसे रह सकती है’ इत्यादि। परंतु ईश्वरवादियोंकी दृष्टिमें इन… Continue reading 4.2 स्पेंसरकी मीमांसा ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4. विकासवाद – 4.1 डार्विनका मत ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
4. विकासवाद (प्राणिशास्त्र, शरीर-रचना) आजकल धर्म, संस्कृति, राजनीति, भाषाविज्ञान, इतिहास सभी क्षेत्रोंमें विकासवाद सिद्धान्त लागू किया जा रहा है। आधुनिक विज्ञान तथा जड-भौतिकवादका एक प्रकारसे यही मूल हो रहा है। बहुत-से भारतीय विद्वान् भी इसे ही मानकर भारतीय विषयोंकी व्याख्या करते हैं। मार्क्सवादके सिद्धान्तोंका आधार भी बहुत कुछ विकासवाद ही है। अत: विकासवादका सिद्धान्त और… Continue reading 4. विकासवाद – 4.1 डार्विनका मत ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.25 अराजकतावाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.25 अराजकतावाद मार्क्सवादियोंसे भी बढ़े-चढ़े अराजकतावादी हैं। इसके प्रवर्तक माइकेल बाकुनिन (१८१४—१८७६) और प्रिंस क्रोपोटकिन (१८४२-१९१९) हुए हैं। उनके मतानुसार क्रान्तिद्वारा पूँजीवादका अन्त होते ही राज्यका भी अन्त हो जाना चाहिये। श्रमिक क्रान्तिके पश्चात् वर्गीय संस्थाका अन्त हो जाना चाहिये। न मर्ज (वर्ग) रहे, न मरीज (राज्य) रहना चाहिये। मार्क्सवादी भी राज्यको वर्ग-विशेषकी ही संस्था… Continue reading 3.25 अराजकतावाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.24 जनवाद जनवादकी व्याख्याएँ भी भिन्न-भिन्न ढंगसे होती रही है। अब्राहम लिंकनके अनुसार ‘जनताका जनताके लिये जनताद्वारा किया जानेवाला शासन ही प्रजातन्त्र या जनतन्त्र माना जाता है। प्रतिनिधि जनवादका आधार राष्ट्रका सामान्य हित होता है। सुशासनके लिये सामान्यहितको कार्यान्वित करनेके लिये कुछ प्रतिनिधियोंका निर्वाचन होता है। यही ‘परोक्ष-जनवाद’ है।’ आलोचकोंकी दृष्टिमें जनवादका अर्थ ‘मूर्खोंपर उनकी… Continue reading 3.24 जनवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.23 फॉसीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज
3.23 फॉसीवाद मुसोलिनी एवं हिटलरके फॉसीवाद एवं नाजीवादने डार्विनके संघर्षको बहुत महत्त्व दिया और स्पेंसर आदिके इस पक्षको अपनाया कि ‘जो संघर्षमें सफल हो, वही जीवित रहे।’ अर्थक्रियाकारित्ववाद इसका प्राण है। उत्कृष्ट जातिका यह प्रकृतिसिद्ध अधिकार है कि वह निकृष्ट जातिका शासन करे। उसके अनुसार मानव-इतिहास एक युद्धकी कहानी है। मानव-प्रगति युद्धके द्वारा ही होती… Continue reading 3.23 फॉसीवाद ~ मार्क्सवाद और रामराज्य ~ श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज